दुनिया भर में वित्तीय बाजार का नियमन मोटे तौर पर डिस्क्लोजर यानी खुलासे की व्यवस्था पर आधारित होता है। विनियमित संस्थाओं से कहा जाता है कि वे समय-समय पर खुलासा करें। यह यकीनन समय की कसौटी पर खरी और मजबूत व्यवस्था है क्योंकि जितना अधिक खुलापन हो उतना बेहतर।
डिस्क्लोजर प्रणाली, कैविएट एम्प्टर के सिद्धांत (खरीदार को सावधान रहना चाहिए) के साथ, जिसका तात्पर्य है कि खरीदार अपने जोखिम पर खरीदारी करता है – नियामकों के लिए भी सहज व्यवस्था है। खुलासे की व्यवस्था एक तरह से उन्हें यह संतोष देती है कि काम को सही ढंग से अंजाम दिया गया है। इस आलेख में हम इस बात का परीक्षण करेंगे कि देश के वित्तीय क्षेत्र के नियमन में बहुचर्चित डिस्क्लोजर का प्रभाव कैसा रहा है।
दुनिया भर में ‘लालच और भय’ ही वित्तीय बाजारों में निवेशकों के व्यवहार को संचालित करते रहे हैं। बाजार में अक्सर काफी अफरातफरी रहती है जो नियामक के काम को कठिन और चुनौतीपूर्ण बनाता है। भारत जैसे उभरते बाजारों में यह बात और भी अधिक लागू होती है क्योंकि यहां बाजार प्रतिभागियों के बीच जागरुकता की कमी और सूचनाओं की विसंगति है। सभी अंशधारकों के हितों को संतुलित करने तथा कारोबारी सुगमता और उचित नियमन के बीच संतुलन हासिल करना अक्सर मुश्किल काम होता है।
ये हालात तब और चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं जब कोई ऐसा मामला सामने आए जो बड़ी संख्या में अंशधारकों के हितों को प्रभावित करता हो या व्यवस्थागत प्रभाव डालने वाला हो। अचानक नियामक को चौतरफा आलोचना झेलनी पड़ती है। इसमें कुछ आलोचना तो अप्रत्याशित हलकों से भी आती है।
सार्वजनिक आलोचना झेलने वाले किसी भी अन्य संस्थान की तरह धारणाओं का प्रबंधन नियामकों की भी पहली प्राथमिकता बन जाता है। अक्सर इसे हासिल करने के लिए मौजूदा नियमन में कुछ प्रावधान जोड़े जाते हैं और अतिरिक्त खुलासा करने को कहा जाता है। इस दौरान अक्सर जो बात छूट जाती है, वह है बाजार के जरूरत से ज्यादा नियमन के आसार।
जब कोई यह तर्क देता है कि बढ़े हुए खुलासे का अर्थ है निवेशकों के हितों की रक्षा करना तो वह आमतौर पर अल्पांश हिस्सेदारों तथा व्यक्तिगत निवेशकों को ध्यान में रखता है। संस्थागत और बड़े निवेशक आमतौर पर अपनी तरफ से जांच-परख करते हैं और वे पूरी तरह खुलासे पर निर्भर नहीं रहते। ऐसा इसलिए क्योंकि उनके पास विस्तृत विश्लेषण करने के लिए जरूरी संसाधन रहते हैं।
व्यक्तिगत निवेशकों की बात करें तो वे मीडिया रिपोर्ट और सार्वजनिक रूप से मौजूद विश्लेषण पर भरोसा करते हैं। शायद उनमें यह क्षमता नहीं हो या उनके पास इतना समय नहीं हो कि वे डिस्क्लोजर की बारीकियों को समझ सकें। उदाहरण के लिए भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के विभिन्न नियमन के तहत उल्लिखित विभिन्न खुलासे जैसे कि लिस्टिंग ऑब्लिगेशन ऐंड डिस्क्लोजर रिक्वायरमेंट (एलओडीआर) और इश्यू ऑफ कैपिटल ऐंड डिस्क्लोजर रिक्वायरमेंट (आईसीडीआर) का विस्तार सैकड़ो पन्नों में होता है। किसी आम व्यक्ति के लिए इनकी व्यापक समीक्षा करना तथा बदलावों की जानकारी करना चुनौतीपूर्ण होगा। एक तरह से ढेर सारे प्रकटीकरण से निवेशकों के पास सूचनाओं की बमबारी हो जाती है। इससे भी बुरा यह है कि इसका परिणाम निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा निवेशक के व्यवहार को संचालित करने के रूप में भी सामने आता है। यह एक अनचाहा और अवांछित परिणाम है।
जहां तक विनियमित संस्थाओं की बात है तो अधिक खुलासे से अनुपालन लागत बढ़ती है। इनमें से अधिकांश खुलासे व्यापक आधार वाले हैं और तमाम क्षेत्रों पर लागू होते हैं। इनमें वे संस्थाएं भी शामिल हैं जो नियम के मुताबिक चलती हैं। छोटी संस्थाओं को अधिक मुश्किल का सामना करना पड़ता है। हालांकि समय-समय पर नियामक उनके लिए हल्के मानक तय करता है। लेकिन इससे व्यवस्था को मदद नहीं मिलती। वास्तव में यह अनुत्पादक साबित हो सकता है। छोटी संस्थाओं में कई ऐसे उल्लंघन होते हैं जो अक्सर निगरानी के दायरे के नीचे रह जाते हैं।
अब प्रवर्तन के मुद्दे की बात करते हैं जो सबसे महत्त्वपूर्ण है। हालांकि यह आम समझ से निकला निष्कर्ष है कि बिना प्रभावी निगरानी और प्रवर्तन के नियामकीय उपाय निरर्थक होते हैं। परंतु एक तथ्य यह भी है कि अपेक्षाकृत कमजोर प्रवर्तन न केवल देश के वित्तीय क्षेत्र नियामकों के लिए बल्कि अन्य क्षेत्रों के नियामकों के लिए भी समस्या बना रहा है।
नियामकीय कानून नियामकों को इजाजत देते हैं कि वे या तो गलती करने वालों पर जुर्माना लगाएं या गंभीर अपराधों के लिए उन्हें अदालतों में घसीटें। अगर नियामकों के प्रदर्शन की बात करें तो इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता है कि गंभीर मामलों को अदालत ले जाने तक में उनका प्रदर्शन कमजोर रहा है, दोषसिद्धि करवा पाना तो दूर की बात है। उदाहरण के लिए प्रतिभूति बाजार में भेदिया कारोबार को गंभीर अपराध माना जाता है। भेदिया कारोबार के नियमों में जहां बीते एक दशक में अनगिनत संशोधन किए गए और अतिरिक्त खुलासे की जरूरत तय की गई लेकिन एक भी मामला ऐसा नहीं रहा जिसे फौजदारी अदालत में मुकदमा चलाने लायक माना जाए। प्रतिभूति बाजार नियामक शायद इस तथ्य से राहत पा सकता है कि अन्य नियामकों का प्रदर्शन और भी खराब रहा है।
न्यायालय में आरोप पत्र दायर करने के लिए कड़ी मेहनत की जरूरत होती है, इसके अलावा ऐसा करने का इरादा भी होना चाहिए। एक फौजदारी यानी आपराधिक मामले में बिना किसी संदेह के आरोप साबित होना चाहिए, जबकि दीवानी मामले में प्रायिकता या संभावना का आधिक्य ही पर्याप्त होता है। स्वाभाविक सी बात है, जांच की गुणवत्ता तथा प्रस्तुत प्रमाण दोनों आपराधिक मामलों में उच्चस्तरीय होने चाहिए। क्या नियामकों में इतनी क्षमता है कि वे ऐसा कर सकें? इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह कि उन्हें जिस तरह से निरंतर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है उसे देखते हुए नियामक इस काम को कितनी प्राथमिकता दे सकेंगे?
नियामकों को अपनी प्रवर्तन क्षमताओं का सावधानीपूर्वक इस्तेमाल करने की आवश्यकता है। अपने संसाधनों को ढेर सारे मामलों तक विस्तारित करने के बजाय उन्हें गंभीर मामलों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। नियामकों को जोखिम आधारित निगरानी व्यवस्था पूरी शिद्दत से अपनानी चाहिए।
खुलासे की जरूरत भी जोखिम के आकलन के आधार पर अलग-अलग होनी चाहिए। गंभीर मामलों में अभियोजन समेत कठोर एवं समयबद्ध प्रवर्तन, दर्जनों नए खुलासे की तुलना में कहीं अधिक उपयुक्त साबित होगा। मुख्य दोषियों को पकड़ने के बजाय अधिक डिस्क्लोजर लागू करके समूचे उद्योग को क्यों दंडित करना और निवेशकों को क्यों भ्रमित करना? नियामकों को इस पर विचार करना चाहिए और जांच तथा प्रवर्तन के लिए गुणवत्तापूर्ण समय देना चाहिए।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो हैं और सेबी चेयरमैन रह चुके हैं)