सरकार ने विपक्षी दलों के दबाव में उच्च पदों के लिए बाहरी स्तर पर सीधी भर्ती की योजना (लैटरल एंट्री स्कीम) वापस ले ली है क्योंकि इन दलों की शिकायत थी कि इससे ‘पिछड़े वर्ग’ के लिए सरकार में उच्च स्तर पर सेवाएं देने के मौके कम हो जाएंगे। अपने बचाव में तर्क देते हुए सरकार के समर्थकों का कहना है कि सीधी भर्ती की योजना का प्रस्ताव संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) के शासनकाल में दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग ने दिया था।
इसके अलावा कांग्रेस जब सत्ता में थी तब यह उच्च स्तर पर अनौपचारिक तरीके से सीधी भर्तियां कर रही थी। दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग की लैटरल एंट्री योजना का मकसद सरकार में संयुक्त सचिव के स्तर पर नई तरह की प्रतिस्पर्द्धी क्षमता वाले लोगों को प्रवेश दिलाना था जिसका अनुसरण मौजूदा सरकार कर रही है।
लैटरल एंट्री योजना की उपयुक्तता का निर्णय इस बात से नहीं किया जा सकता है कि इस विचार को लेकर कौन आया। इसका मूल्यांकन इस आधार पर किया जाना चाहिए कि क्या यह प्रशासन से जुड़े सुधार और नागरिकों के कल्याण सुधार के लिए सही समाधान है।
सभी देशों की सरकारों को कई सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक समस्याओं का हल भी अवश्य ही करना पड़ता है। ये सभी 17 सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में सूचीबद्ध हैं जिसे 2030 तक हासिल करने के लिए सभी सरकारों ने सहमति जताई है। मूल रूप से इन लक्ष्यों का उद्देश्य मुक्त बाजार के दबाव से पीछे छूट गए लोगों को मुख्यधारा से जोड़ने की रफ्तार बढ़ाने के साथ ही पर्यावरणीय नुकसान को कम करना है।
दुनिया में भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा असमानता है। सभी धर्मों और जातियों से जुड़े नागरिक अवसरों की तलाश में आरक्षण की मांग कर रहे हैं। अधिकांश लोग पीछे भी छूटते जा रहे हैं। शिक्षा और रोजगार के अपने अधिकारों को संरक्षित करने की चाह रखने वाले लोगों की तादाद 50 प्रतिशत की सीमा पार कर गई है। भारत दुनिया के उन देशों में से एक है जहां के पर्यावरण पर भारी दबाव है और जहां ताजा पानी के स्रोत खत्म हो रहे हैं। भारत में सबसे अधिक प्रदूषित शहर हैं तथा इसके सबसे अधिक उत्पादक कृषि क्षेत्रों में भी भूमि क्षरण की स्थिति बन रही है।
21वीं सदी में प्रशासन के लिए चुनौती बाजार, समाज और सरकार के संस्थानों के स्तर पर है। सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक समस्याएं इतनी जटिल हो गई हैं कि इनका साथ-साथ समाधान अवश्य किया जाना चाहिए। केवल पर्यावरणीय समस्याओं का हल करने वाले विशेषज्ञ, सामाजिक और आर्थिक नुकसान पहुंचा सकते हैं। धीमी वृद्धि और संतुलित बजट की आर्थिक समस्याओं को हल करने का लक्ष्य लेकर चलने वाले अर्थशास्त्री, सामाजिक और पर्यावरणीय परिस्थितियों को बाहरी मानने वाले मॉडल का इस्तेमाल करते हुए एसडीजी में सूचीबद्ध समस्याओं के संयोजन का हल नहीं निकाल सकते हैं।
100 वर्ष पहले दो द्वितीय युद्ध के बीच एक अनियंत्रित बाजार से पश्चिमी देशों के समाज में एक संकट पैदा हुआ जिस बाजार का नियंत्रण सरकार पर्याप्त रूप से नहीं कर रही थी। हालांकि सरकार को इसमें हस्तक्षेप करते हुए समाज को सामाजिक सुरक्षा और सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराते हुए सुगम जीवन स्तर के लिए सुधार करना पड़ा।
इसके अलावा कारोबार सुगमता के स्तर में कमी लाते हुए बाजार में एकाधिकार को तोड़ना था। इसके करीब 50 वर्ष बाद वैश्विक तेल आपूर्ति में बाधाओं के चलते मुद्रास्फीति और स्थिर आर्थिक वृद्धि को देखते हुए बाजार और सरकार के बीच के रिश्ते में दोबारा समायोजन की जरूरत थी। उसी दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने कहा था, ‘सरकार समाधान नहीं बल्कि समस्या है।’
फ्रांसिस फुकोयामा के मुताबिक वैचारिक संघर्ष का इतिहास अंततः सरकार को अर्थव्यवस्था में दखल न देने वाले वॉशिंगटन कंसेंसस जैसी विचारधारा और 1991 में सोवियत संघ के विभाजन के साथ खत्म हो गया। इस तरह समाजवाद का अंत हुआ और पूंजीवाद का उभार हुआ।
सभी देशों में सरकार के प्रमुखों को वरिष्ठ अधिकारियों को चुनने की आजादी है जिन पर वे भरोसा करते हैं चाहे वह अमेरिका, फ्रांस के राष्ट्रपति हों या फिर ब्रिटेन या भारत के प्रधानमंत्री हों। मितु सेनगुप्ता ने (‘फ्रॉम हार्ड सेल टू सॉफ्ट सेलः दि आईएमएफ, वर्ल्ड बैंक ऐंड इंडियन लिबरलाइजेशन’, वर्ल्ड अफेयर्स, वॉल्यूम-14, नं. 1, स्प्रिंग 2010) यह समझाया है कि कैसे बाजार समर्थक आर्थिक सुधारों की अमेरिकी विचारधारा के बीज भारतीय राजनीति में बोने के लिए, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और पश्चिमी विश्वविद्यालयों में अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले अर्थशास्त्रियों को लैटरल एंट्री के जरिये देश के वित्त और आर्थिक संस्थानों उच्च पद दिए गए जैसे कि मुख्य आर्थिक सलाहकार, राष्ट्रीय योजना संस्थान के प्रमुख, रिजर्व बैंक के गवर्नर आदि जैसे पद।
यह प्रथा संप्रग और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन दोनों की सरकार के कार्यकाल के दौरान जारी रही। बाजार की यही विचारधाराएं 1980 के दशक से भारतीय सरकारों का मार्गदर्शन कर रही है। मौजूदा सरकार ने सीधी भर्तियों के जरिये आर्थिक नीतियों की दिशा तय करने के लिए उच्च पदों पर नियुक्ति की है जैसे कि मुख्य आर्थिक सलाहकार, नीति आयोग के उपाध्यक्ष, रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर और वित्त आयोग के अध्यक्ष जो आर्थिक नीतियों के पैरोकार होते हैं।
सरकार को अर्थव्यवस्था में कम से कम दखल देना चाहिए। वॉशिंगटन कंसेंसस की विचारधारा ने वास्तव में समाज और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है, जिसे तुरंत ठीक करने की जरूरत है। इसके साथ ही बाजार, सरकार और समाज के बीच तालमेल बनाने की जरूरत है। सरकार को बाजार की ऊर्जा को नियंत्रित करना चाहिए और इसका इस्तेमाल सभी नागरिकों, खासकर सबसे गरीब और कमजोर लोगों के जीवन को आसान बनाने के लिए करना चाहिए।
सरकार को उसी तरीके से आर्थिक विकास बढ़ाने के लिए निवेश नहीं करना चाहिए जिससे पर्यावरण और सामाजिक समस्याएं हुई हैं और यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि कोई अदृश्य शक्ति इन समस्याओं का हल निकाल देगी। सरकार को बहुमुखी प्रणालियों का प्रबंधन करने के लिए समाज, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए नई क्षमताओं की दरकार है।
16वीं शताब्दी में यूरोप में पुनर्जागरण काल के बाद से, विज्ञान और उद्योग ने जटिल चीजों के बारीक पहलुओं के लिए विशेषज्ञ तैयार कर प्रगति की है। क्षेत्र विशेषज्ञ एक क्षेत्र के बारे में ज्यादा जानते हैं लेकिन वे सभी क्षेत्रों के बारे में कम ही जानते हैं। हकीकत यह है कि कोई भी पूरी तस्वीर नहीं देख सकता है। इसलिए, एक क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा दिए गए समाधान दूसरे क्षेत्रों में उलटा असर डालते हैं। शासन सुधार पर काम करने वालों को फिर से लैटरल-एंट्री योजना पर विचार करना चाहिए।
सरकार को नीति निर्माताओं और अमल करने वालों की आवश्यकता है जो जटिलता से डरें नहीं लेकिन वे इसे समझें और अपनाते हुए कई क्षेत्रों के लिए समाधान तैयार करें। सरकार को उच्च स्तर पर शासन प्रणाली से जुड़े विचारकों की जरूरत है, न कि अधिक क्षेत्र विशेष के विशेषज्ञों की। वरिष्ठ पदों पर सभी अधिकारियों को तंत्र से जुड़ी सोच के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए।
अंत में, कारोबार का काम केवल कारोबार तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। निजी उद्यमों के प्रबंधक जो अपने उद्यमों के विकास और लाभ पर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रशिक्षण पाते हैं उन्हें भी समाज और पर्यावरण के कल्याण को बेहतर बनाने के लिए पूरे शासन तंत्र से जुड़ी व्यापक सोच और उस पर अमल करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। अब समय आ गया है कि एक नया तरीका अपनाया जाए। वॉशिंगटन कंसेंसस नाम की इस शासन में मुक्त बाजार विचारधारा के 50 साल का चक्र खत्म हो रहा है और दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका में भी ऐसा हो रहा है।
(लेखक योजना आयोग के पूर्व सदस्य हैं)