पहले दुर्लभ खनिजों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर भारतीय इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) निर्माताओं को मुश्किल में डाला गया था। अब चीन ने विशेष उर्वरकों पर रोक लगा दी है। भारत में आने वाली जर्मनी की सुरंग-बोरिंग मशीन कथित तौर पर चीन में फंसी हुई है जिसके लिए निर्यात मंजूरी मिलने का इंतजार किया जा रहा है। अब इससे ज्यादा क्या होगा? भारत, दवाओं का एक बड़ा निर्माता देश है और अपनी प्रमुख दवा सामग्री का 80 फीसदी चीन से आयात करता है। सवाल यह है कि अगर इस पर भी रोक लग गई तब क्या होगा?
चीन को भारत से किसी भी महत्त्वपूर्ण चीज का आयात करने की जरूरत नहीं है जबकि भारत को अपनी अर्थव्यवस्था के विभिन्न हिस्से को चलाने के लिए हर साल चीन से 115 डॉलर अरब के सामान की जरूरत होती है। वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में राष्ट्र-निर्माण के लिए विनिर्माण को कम महत्त्वपूर्ण मानने वाले सभी लोगों को अब यह समझाना होगा कि चीन ने ऐसी स्थिति कैसे बना ली है कि वह किसी भी देश को नियंत्रित कर सकता है। इसका जवाब निश्चित रूप से स्थानीय विनिर्माण बढ़ाना है खासतौर पर सभी महत्त्वपूर्ण चीजों का और यह निश्चित रूप से हैरानी की बात होगी।
करीब 40 साल पहले, अर्थव्यवस्था में सुधार का प्रमुख आर्थिक नुस्खा, मुक्त-बाजार सिद्धांतों का एक मिश्रण था जिसमें खुली प्रतिस्पर्धा, न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप, कम शुल्क बाधाएं और वित्तीय उदारीकरण जैसे पहलू शामिल थे। इसके कारण सरकार की योजनाओं पर मुक्त बाजार विचारधारा की निर्णायक बढ़त देखी गई। खैर, अब यह सोच पूरी तरह से बदल गई है। टैरिफ बाधाएं बढ़ गई हैं और सरकारी हस्तक्षेप आर्थिक ताकतों को मजबूती से आकार दे रहा है। अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप, स्टील से लेकर इलेक्ट्रॉनिक्स और दवाओं तक का विनिर्माण अपने देश में करना चाहते हैं।
उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति जो बाइडन ने सेमीकंडक्टर और हरित प्रौद्योगिकियों के लिए भारी सब्सिडी दी थी। ब्रिटेन विनिर्माताओं के ऊर्जा बिलों पर सब्सिडी देने पर विचार कर रहा है वहीं भारत ने 17 क्षेत्रों में स्थानीय विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन की पेशकश की है। इंडोनेशिया, विनिर्माण के क्षेत्र में विदेशी निवेश के तहत ‘स्थानीय सामग्री’ अनिवार्य कर रहा है और अपने विशाल निकल भंडार के साथ यह इलेक्ट्रिक वाहनों का प्रमुख केंद्र बनने की आकांक्षा रखता है।
औद्योगिक नीति’ का विचार एक वक्त में सरकार की अक्षमता और भ्रष्टाचार की याद दिलाता था। वर्ष 1950 और 1970 के दशक के बीच, भारत की औद्योगिक नीति वास्तव में मूल्य नियंत्रण, लाइसेंसिंग, आयात प्रतिबंध और सार्वजनिक क्षेत्र के दबदबे का मिश्रण थी और यह एक ऐसा मॉडल था जिसने उद्यमशीलता को बाधित किया, अक्षमताओं को बढ़ावा दिया और भ्रष्ट सरकारी उद्यमों को समर्थन दिया जिन्होंने सरकारी खजाने को खाली कर दिया। ऐसे में सवाल यह है कि फिर औद्योगिक नीति और इसके मुख्य घटक, विनिर्माण को अब वृद्धि के संदर्भ में क्यों तरजीह दी जा रही है?
इसका जवाब है चीन। क्या आपने यह नहीं देखा कि कैसे सोची-समझी औद्योगिक नीतियां किसी देश को बदल सकती हैं जैसे विश्व युद्ध से पहले जापान और बाद में ताइवान और दक्षिण कोरिया बदला? एक लंबी अवधि की औद्योगिक नीति कैसे तैयार की जाए और क्रियान्वित की जाए, इसका एक शानदार उदाहरण चीन पेश करता है। इसी नीति के बलबूते उसने वैश्विक स्तर के विनिर्माण के 32 फीसदी हिस्से पर नियंत्रण कर लिया है, जिससे सबसे शक्तिशाली राष्ट्र भी इसकी ताकत के सामने कमजोर हो गए हैं। इन रुझानों में आखिर भारत कहां मुफीद बैठता है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के तहत 2014 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण की हिस्सेदारी 15 फीसदी से बढ़ाकर 2025 तक 25 फीसदी करने का वादा किया गया था, जिसका उद्देश्य रोजगार सृजन और निर्यात वृद्धि था। लेकिन प्रचार के नारों और रोडशो के अलावा कुछ खास नहीं हुआ।
इस दिशा में एक और व्यवस्थित प्रयास छह साल बाद, मार्च 2020 में किया गया जब भारत ने तीन क्षेत्रों के लिए उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना शुरू की, जिसे बाद में 17 क्षेत्रों तक बढ़ाया गया। इसके पीछे मकसद घरेलू विनिर्माण क्षमता को 30 लाख करोड़ रुपये तक बढ़ाना, आयात की जगह लेना और 60 लाख नई नौकरियों के मौके तैयार करना था।
पीएलआई योजना ने मोबाइल फोन असेंबल करने और दवा सामग्री के क्षेत्र में कुछ सफलता दिलाई है। फिर भी, घरेलू स्तर पर मूल्यवर्धन कम है, जिसमें प्रमुख घटक अब भी आयात किए जा रहे हैं। जनवरी 2024 में एक सरकारी विज्ञप्ति में दावा किया गया था कि इसके तहत रोजगार के 6,78,000नए मौके तैयार हुए। हालांकि यह एक ऐसे देश में बेहद कम संख्या है जहां सालाना 1 करोड़ से अधिक युवा श्रम बाजार में प्रवेश करते हैं।
जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी वास्तव में और कम हो गई है और यह वर्ष 2020 के 15.4 फीसदी से घटकर 2025 में 14.3 फीसदी रह गई है। रॉयटर्स की एक जांच में आंतरिक सरकारी दस्तावेजों का हवाला दिया गया था जिससे पता चला है कि अक्टूबर 2024 तक पीएलआई आवंटित फंड का 8 फीसदी से भी कम हिस्सा वितरित हुआ था। इसके अलावा, योजना के दो-तिहाई लक्ष्य पूरे नहीं हो पाए थे। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
पीएलआई योजना में गलत प्राथमिकताओं पर काम किया जा रहा है। दरअसल, जिन बुनियादी बातों पर पहले ध्यान देना चाहिए, वे हैं शिक्षा और अनुसंधान की गुणवत्ता, साथ ही व्यापार करने में आने वाली भारी लागतें जिनमें लॉजिस्टिक्स, ऊर्जा, कर और उपकर, रिश्वत, राज्य व केंद्रीय कानून और लालफीताशाही शामिल हैं। यही वजह है कि चमड़ा, कपड़े, हस्तशिल्प और आभूषण जैसे अधिक श्रम वाले क्षेत्र भी बड़े पैमाने पर विकसित नहीं हो पाए हैं। यह योजना हमें याद दिलाती है कि शॉर्टकट तरीके से औद्योगिक क्षमता नहीं तैयार की जा सकती है। असली विनिर्माण तंत्र बनाने में वर्षों के बुनियादी सुधार की दरकार होती है।
भारत के लिए इस नींव को तैयार करने के प्रयास कम ही हुए हैं। वर्ष 2000 के दशक के मध्य में, कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने थाईलैंड और मलेशिया जैसे देशों की निर्यात-आधारित सफलता की नकल करने की कोशिश की, जिसके लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) को बढ़ावा दिया गया। लेकिन यह पहल भ्रष्टाचार, विवाद और घोटालों में उलझ कर आखिरकार नाकाम हो गई। इसमें नागपुर के पास भगोड़े कारोबारी मेहुल चोकसी को 1,000 एकड़ जमीन का आवंटन जैसे उदाहरण भी शामिल हैं।
भारत ने अक्टूबर 2021 में ‘गति शक्ति’ योजना शुरू किए जाने तक व्यवस्थित रूप से लॉजिस्टिक्स लागत कम करने की कभी कोशिश नहीं की। लॉजिस्टिक्स लागत कम करने (जो अभी जीडीपी का 13-14 फीसदी है जबकि चीन में यह 8-10 फीसदी है) के अलावा, इसका उद्देश्य आर्थिक क्षेत्रों के साथ कनेक्टिविटी बढ़ाना भी है।
अगर भारत में विनिर्माण क्षेत्र तरक्की करता तब यह रोजगार की कमी और गरीबी की दोहरी चुनौतियों से निपट सकता था। सेवाओं के विपरीत, विनिर्माण क्षेत्र में बड़ी संख्या में अकुशल और अर्ध-कुशल श्रमिक खप सकते हैं। लेकिन इस मजबूत आधार को बनाने के बजाय, सरकार ने कई नकद हस्तांतरण और कल्याणकारी योजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया है। हालांकि ये योजनाएं अशांति-हलचल रोक सकती हैं और राजनीतिक लाभ दे सकती हैं पर ये काम करने की प्रेरणा भी कम करती हैं, खासतौर पर ग्रामीण भारत के क्षेत्र में। विनिर्माण क्षेत्र की कंपनियां लगातार कामगारों की कमी की शिकायत करती हैं, जबकि देश में बेरोजगारी बहुत अधिक है। वास्तव में भारत की युवा आबादी के होने के फायदे तेजी से आबादी के बोझ में तब्दील हो रहे हैं।
छोटे उद्योग क्षेत्रों की स्थिति बेहद खराब है, जहां ज्यादातर लोग काम करते हैं और ये एक दमघोंटू माहौल में संघर्ष करते हुए दिख रहे हैं। कोई भी औद्योगिक नीति तभी अच्छी होती है जब उसे ठीक तरीके से लागू किया जाए और उसे सहारा देने वाले दूसरे सुधार भी हों। यह बात 40 साल पहले भी उतनी ही सच थी जितनी आज है।
(लेखक मनीलाइफडॉटइन के संपादक और मनीलाइफ फाउंडेशन में ट्रस्टी हैं)