कोविड महामारी की दूसरी लहर एकदम विनाशकारी साबित हुई है। भले ही इसकी चपेट में आने वाले संक्रमितों एवं मृतकों की संख्या में अब कमी आने लगी है लेकिन मौजूदा स्तर भी खासा अधिक है। अधिकांश राज्यों ने कोरोनावायरस के प्रसार पर लगाम लगाने के लिए लॉकडाउन जैसी बंदिशें लगाई हुई हैं जिससे आर्थिक क्रियाकलापों पर प्रतिकूल असर देखने को मिल रहा है।
इसी के साथ विश्लेषकों ने अपने वृद्धि पूर्वानुमानों को संशोधित करना शुरू कर दिया है। आर्थिक गतिविधियों में आई गिरावट पिछले साल जैसी गंभीर किस्म की नहीं है लेकिन इस बात से शायद ही राहत मिल सकती है। सरकार ने कोविड की दूसरी लहर से निपटने के क्रम में तमाम गलतियां की हैं और अब उसका ध्यान यह नुकसान कम करने पर होना चाहिए। आर्थिक बहाली तब तक कमजोर ही रहेगी जब तक महामारी पर प्रभावी नियंत्रण नहीं पा लिया जाएगा। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आईएमएफ) की मुख्य अर्थशास्त्री गीता गोपीनाथ और अन्य विशेषज्ञों ने सही ही कहा है कि महामारी नीति ही आज की आर्थिक नीति है। इस संदर्भ में यह लेख दूसरी लहर से निपटने में भारत की प्रतिक्रिया के तीन पहलुओं- राजकोषीय नीति, टीकाकरण नीति एवं केंद्र-राज्य समन्वय पर गौर करेगा।
राजकोषीय कदम
अचरज नहीं है कि लोग यह दलील दे रहे हैं कि सरकार को अर्थव्यवस्था को समर्थन देने के लिए अपना खर्च बढ़ाना चाहिए। सरकार ने आबादी के सबसे कमजोर तबकों को खाद्यान्न का मुफ्त वितरण फिर से शुरू कर अच्छा ही किया है। उसे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना मनरेगा के तहत जरूरी होने पर आवंटन बढ़ाने पर भी खुले दिल से सोचना चाहिए। हालांकि व्यापक स्तर पर खर्च बढ़ाकर मांग में तेजी लाना उतना व्यवहार्य नहींं होगा। सरकार की वित्तीय स्थिति महामारी की शुरुआत से ही उतनी सहज नहीं रह गई है। केंद्र सरकार को वित्त वर्ष 2020-21 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 9.5 फीसदी का राजकोषीय घाटा उठाना पड़ा था। आर्थिक गतिविधियों में आए संकुचन को देखते हुए एक बार फिर राजस्व में कमी आएगी और चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 6.8 फीसदी पर सीमित रखना खासा मुश्किल हो सकता है। इसके अलावा भारत का सार्वजनिक ऋण भी बढ़कर जीडीपी का करीब 90 फीसदी हो चुका है।
अक्सर यह दलील दी जाती है कि अभूतपूर्व हालात में अभूतपूर्व उपाय करने पड़ते हैं लेकिन इसका नतीजा अभूतपूर्व परिणाम के रूप में भी निकल सकता है। अगर सरकारी वित्त पर दबाव और सार्वजनिक ऋण बढ़े तो उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक बहाली उम्मीद से अधिक तेज होने और वैश्विक वित्तीय परिवेश मुश्किल होने से भारत जैसे उभरते बाजारों के लिए जोखिम और बढ़ सकता है। सरकारी उधारी का ज्यादा बढऩा भी घरेलू स्तर पर मुश्किल साबित होगा। एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि गरीबी में तीव्र वृद्धि हुई है। दुर्भाग्य से भारत के पास इतनी क्षमता नहीं है कि बड़े पैमाने पर आय समर्थन कार्यक्रम चला सके।
हालांकि महामारी से निपटने के संदर्भ में देखें तो वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता से कहीं अधिक संस्थागत एवं इलाज की समुचित क्षमता के अभाव ने भारत की जंग को कमजोर किया है। मसलन, दिल्ली एवं अन्य शहरों को फंड की कमी के नाते मेडिकल ऑक्सीजन की कमी से नहींं जूझना पड़ा। पैसे से भले ही आप शायद अधिक जांच किट एवं वेंटिलेटर खरीद सकते है लेकिन पैसे से आप इनका सदुपयोग सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं। तमाम ऐसी रिपोर्ट आई हैं कि कई राज्यों में, खासकर ग्रामीण इलाकों में संक्रमण की जांच क्षमता बहुत ही कम है। कई जगह ऐसा कोई नहींं है जो पहले से मौजूद वेंटिलेटरों को चला पाए। भारत की खराब संस्थागत क्षमता का एक और उदाहरण है, महामारी के बीच में भी वह पहले से स्वीकृत ऑक्सीजन संयंत्र नहीं लगा पाया। यह कहने का मतलब यह नहीं है कि सरकार को चिकित्सकीय ढांचा बनाने पर खर्च नहीं करना चाहिए। लेकिन यह ध्यान रखना जरूरी है कि अकेले पैसे से भारत की चिकित्सकीय क्षमता को रातोरात अपेक्षित स्तर तक नहींं पहुंचाया जा सकता है।
टीकाकरण नीति
कोविड-रोधी टीका लगाने की रफ्तार बेहद निराशाजनक रही है। आबादी के एक बड़े हिस्से को कम वक्त में टीके लगाना भारत के लिए मुमकिन काम था। लेकिन सरकार ने न केवल टीका निर्माता विदेशी कंपनियों से बात करने से परहेज किया बल्कि उसने घरेलू विनिर्माताओं को भी पर्याप्त संख्या में ऑर्डर नहीं दिए। देश में टीकों की उपलब्धता एवं बड़ा विनिर्माण केंद्र होने के बावजूद समुचित संख्या में आपूर्ति सुनिश्चित नहीं कर पाना शायद इस दौर की सबसे बड़ी नीतिगत खामी है। टीकाकरण कार्यक्रम को निजी क्षेत्र के लिए खोलने के मसले पर भी इस सरकार की खूब आलोचना हुई है। यह तर्क दिया जा सकता है कि हर किसी को मुफ्त में टीका लगाया जाना चाहिए। लेकिन भारत को बड़े पैमाने पर टीकाकरण करना है और इसमें निजी क्षेत्र मददगार हो सकता है। सरकारी क्षेत्र में जरूरी क्षमता न होने से अगर जनसंख्या के एक हिस्से (टीके के लिए भुगतान करने को भी तैयार) के टीकाकरण का जिम्मा निजी क्षेत्र को दे दिया जाता है तो इससे सरकारी स्वास्थ्य ढांचे पर पडऩे वाला बोझ कम ही होगा। इसके अलावा निजी क्षेत्र में मुहैया कराए जाने वाले टीकों के ऊंचे दाम से विनिर्माता भी सरकार को कम दाम पर टीके मुहैया करा पाएंगे। इससे निजी क्षेत्र आयात भी कर पाने में सक्षम हो सकेगा जिससे टीके की कुल आपूर्ति सुधरेगी।
केंद्र-राज्य समन्वय
केंद्र सरकार ने इस बार राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन न लागू कर अच्छा ही किया है। ऐसे फैसलों के लिए राज्य सरकारें कहीं बेहतर स्थिति में होती हैं। राज्यों में संक्रमण के मामलों को देखते हुए सरकारों को अलग ढंग से प्रतिक्रिया देनी होगी। फिर भी हरेक अहम फैसले को राज्यों पर छोडऩा कोई समझदार रणनीति नहींं है। केंद्र सरकार को राज्यों के साथ अधिक सक्रियता दिखाते हुए सामंजस्य बिठाना चाहिए। ऐसा होने पर अलग-अलग राज्यों में कारगर तरीके अधिक तेजी से अपनाए जा सकेंगे। केंद्र ने टीके की खरीद का जिम्मा राज्यों पर ही डाल दिया है। टीकाकरण कार्यक्रम को निजी क्षेत्र के लिए खोलना अलग बात है और इसके ठोस कारण भी हैं। लेकिन विदेशी फर्मों एवं घरेलू विनिर्माताओं से टीका खरीद का जिम्मा राज्यों पर ही डाल देने में कोई तुक नहीं है।
ऐसे में अचरज नहीं है कि कई विदेशी टीका कंपनियों ने टीका खरीदने के लिए राज्यों से भेजी गई अपीलों को ठुकरा दिया है। राज्यों के स्तर पर कोविड-रोधी टीके की खरीद कर पाना एक हद तक मुमकिन नहीं लगता। इसके लिए संबंधित कंपनियों से लंबी बातचीत एवं तोलमोल की ताकत की भी जरूरत होगी। ऐसी स्थिति में केंद्र को ही कोविड टीके की सारी खरीद करनी चाहिए और फिर उसे राज्यों में पारदर्शी तरीके से वितरित कर देना चाहिए। इस मामले में पैसे का इंतजाम कोई मसला नहीं होना चाहिए।
सरकार भले ही मांग बढ़ाने के लिए बड़ी मात्रा में नकद अंतरण की स्थिति में नहींं है लेकिन कोविड टीके पर किए जाने वाले खर्च का इसके वित्त पर कोई ठोस असर पडऩे की संभावना नहीं है। असल में, आर्थिक गतिविधि तेज होने से इसके राजस्व में सुधार ही होगा। टीकाकरण की रफ्तार बढ़ाए बगैर लॉकडाउन बंदिशों को लेकर हिचकिचाहट पैदा होगी और कुल आर्थिक लागत बढ़ जाएगी।