आयकर व्यवस्था की चिंताओं में प्रमुख है उसके दायरे का विस्तार करना यानी अधिक से अधिक संख्या में करदाताओं को इस व्यवस्था के अंतर्गत लाना। बड़े आधार यानी करदाताओं की अधिक संख्या वाली कर व्यवस्था ज्यादा स्थिर मानी जाती है और राजस्व का अधिक सशक्त स्रोत भी होती है। पहले से निर्धारित समय या अंतराल पर जब आयकर से संबंधित आंकड़े जारी किए जाते हैं तो उनमें करदाताओं की संख्या भी बताई जाती है।
यह संख्या असल में उन पैन (स्थायी लेखा संख्या) धारकों का समूह होती है, जिन्होंने किसी कर निर्धारण वर्ष में या तो आयकर चुकाया था या रिटर्न दाखिल किया था। दूसरी ओर आयकर रिटर्न के आंकड़े बताते हैं कि किसी वित्त वर्ष में कितने व्यक्तियों या पैन धारकों ने रिटर्न दाखिल किए। साथ ही आंकड़ों में यह भी बताया जाता है कि चुकाई गई कर राशि समेत विभिन्न पैमानों पर करदाता किस तरह बंटे थे।
आंकड़ों की इन अलग-अलग श्रृंखलाओं को देखकर आयकर प्रणाली और करदाताओं के बीच के रिश्ते को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे व्यक्ति हैं, जो कर चुकाते हैं और रिटर्न भी दाखिल करते हैं। दूसरी श्रेणी में वे आते हैं, जो कर तो चुकाते हैं मगर रिटर्न दाखिल नहीं करते और तीसरी श्रेणी उन व्यक्तियों की है, जो शून्य रिटर्न दाखिल करते हैं यानी एक पैसे का भी कर नहीं चुकाते हैं। इस आलेख में हम करदाताओं के तीन वर्गों – व्यक्ति, फर्म और कंपनियों के लिए इन तीनों श्रेणियों के रुझान देखेंगे और समझेंगे।
भारतीय आयकर व्यवस्था में स्रोत पर कर कटौती यानी टीडीएस और स्रोत पर कर संग्रह यानी टीसीएस की व्यापक व्यवस्था है। ये व्यवस्थाएं इसलिए की गईं ताकि कर संग्रह बढ़ सके और रिटर्न दाखिल करते समय अनुपालन हो सके। राजस्व संग्रह पर इनका खासा असर भी पड़ा है। इकट्ठा हुए कुल राजस्व में टीडीएस की हिस्सेदारी 2013-14 में 32 फीसदी थी, जो 2022-23 में बढ़कर 41 फीसदी हो गई।
अनुपालन पर ऐसी कटौतियों का क्या असर पड़ता है यह समझने के लिए हम देखते हैं कि कितने फीसदी करदाताओं ने रिटर्न दाखिल नहीं किया है। 2013-14 से 2023-24 के दौरान करदाताओं के तीनों वर्गों में इस श्रेणी का हिस्सा कम हुआ है। व्यक्तिगत करदाताओं में ऐसे लोगों की हिस्सेदारी 32 फीसदी से घटकर 23 फीसदी रह गई। फर्मों के मामले में भी ऐसी ही गिरावट दिखती है और हिस्सेदारी 15 फीसदी से घटकर 9 फीसदी रह गई। कंपनियों में इस जमात की हिस्सेदारी 2013-14 में 11 फीसदी थी मगर बाद के वर्षों में यह घटकर 6 फीसदी के आसपास घूमती रही। ये रुझान हौसला बढ़ाते हैं मगर इनके स्तर पर कुछ ध्यान देने की जरूरत पड़ सकती है।
दूसरी दोनों श्रेणियों पर ध्यान दें तो पहली बात यह नजर आती है कि फर्मों के मामले में शून्य रिटर्न कुल दाखिल किए गए रिटर्न के केवल 28 फीसदी यानी बहुत छोटा हिस्सा रहे हैं। इसके उलट व्यक्तियों और कंपनियों के मामले में शून्य रिटर्न की हिस्सेदारी काफी अधिक है। नीचे दिए गए आंकड़े तीनों वर्गों में करदाताओं की विभिन्न श्रेणियों को दर्शाते हैं। फर्मों की बात करें तो ऐसे रिटर्न की अधिकता साफ नजर आती है, जिनमें कर चुकाया गया है।
व्यक्तिगत श्रेणी में रुझान काफी नाटकीय हैं। औसतन 2 करोड़ के करीब करदाता आयकर तो चुकाते हैं मगर रिटर्न नहीं भरते। पिछले कुछ वर्षों में यह आंकड़ा बदला नहीं है। शून्य रिटर्न में 2016-17 के बाद तेजी से इजाफा हुआ है और आंकड़ा ऊंचा ही बना रहा है, जिसमें 2023-24 में कुछ और तेजी आई है। अनुपालन की जरूरत में आए बदलाव भी कुछ हद तक इसकी वजह हो सकते हैं, जिनके तहत नियम है कि ऊंची रकम वाले कुछ लेनदेन करने पर रिटर्न दाखिल करना अनिवार्य होता है।
इसके विपरीत कर चुकाने वालों के रिटर्न की संख्या कर निर्धारण वर्ष 2019-20 यानी वित्त वर्ष 2018-19 में सबसे अधिक रही और उसके बाद इसमें तेज गिरावट आती रही। बाद के वर्षों में धीरे-धीरे इजाफा होने से इसका आंकड़ा नोटबंदी से पहले के स्तर तक पहुंच गया। ये बदलाव कर नीति के भीतर छूट की सीमा और रियायत की व्यवस्था जैसे परिवर्तन की वजह से आए नहीं लगते हैं। इस तरह के अलग-अलग रुझानों पर भी ध्यान देना होगा। अनिवार्य अनुपालन के प्रावधान से भी कर भुगतान में इजाफा होता नहीं दिख रहा है।
कंपनियों की बात करें तो रुझान काफी अलग हैं। नोटबंदी यानी विमुद्रीकरण और माल एवं सेवा कर (जीएसटी) के कारण ऐसे रिटर्न बढ़ते दिख रहे हैं, जिनमें कर भी चुकाया गया है और शून्य रिटर्न की संख्या में कमी आई है। कोविड संकट ने अनुमानों को सही ठहराते हुए इस रुझान को उलट दिया। इसके बाद कर चुकाने वालों के रिटर्न की हिस्सेदारी 2023-24 में ही हावी होनी शुरू हुई।
ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों श्रृंखलाएं बढ़ रही हैं और शून्य रिटर्न का स्तर 50 फीसदी से कम ही है। कर दरों में कमी के साथ नई आयकर व्यवस्था जैसे नीतिगत बदलावों से भी इसमें बदलाव आता नहीं दिखा है। यह भी देखना होगा कि कर व्यवस्थाएं क्या इसी तरह आगे बढ़ती हैं। यह देखना खास तौर पर रोचक होगा कि शून्य रिटर्न दाखिल करने वाली कंपनियां क्या बदलती आर्थिक स्थितियों के साथ खुद को ढालते हुए धीरे-धीरे कर चुकाने वाली कंपनियां बन जाती हैं। इससे यह भी पता चल सकता है कि बेहद प्रोत्साहन देने वाली व्यवस्था जब बहुत कम प्रोत्साहन देने लगती है तब भी शून्य रिटर्न वाली कंपनियां किन कारणों से बनी रहती हैं और आगे बढ़ती रहती हैं।
(लेखिका राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान, नई दिल्ली की निदेशक हैं। लेख में उनके निजी विचार हैं)