सरकार के लिए नागरिक एवं सैन्य अंग दोनों ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। इन दोनों अंगों के बीच आपसी जुड़ाव और सहयोग जैसे पहलू काफी अहम हैं। विभिन्न राजनीतिक प्रणालियों में नागरिक-सैन्य सहयोग अलग-अलग रूपों में दिखते हैं।
स्वेच्छाचारी या अधिनायकवादी शासन में सेना का दबदबा दिखता है जबकि लोकतांत्रिक प्रणाली में नियंत्रण लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के हाथ में होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में नागरिक-सैन्य संबंधों का विकास शुरू हुआ और कमांड आधारित ढांचे से लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संस्थागत तालमेल आधारित प्रणाली की तरफ कदम बढ़ाया गया। 1957 में आई नागरिक-सैन्य संबंधों पर सैमुअल हंटिंगटन की चर्चित किताब में लोकतांत्रिक प्रणाली में सैन्य स्वायत्तता की वकालत की गई थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में पहले संयुक्त कमांडर सम्मेलन में इसी बात का जिक्र किया था और नागरिकों के नियंत्रण वाली प्रणाली में पेशेवर सेना की भूमिका पर जोर दिया था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 100 से अधिक देश स्वतंत्र हो चुके है मगर उनमें 70 से अधिक देश सैन्य शासन के अनुभव से गुजर चुके हैं। इसके उलट भारत में चुनौतियों के बावजूद लोकतांत्रिक सरकार एवं नागरिक नियंत्रण के साथ नागरिक-सैन्य संबंधों में संयोजन स्थापित करने में सफलता हासिल हुई है। किसी प्राकृतिक आपदा के समय या कानून एवं व्यवस्था के पालन के उद्देश्य से नागरिक प्राधिकरणों को मदद करने में नागरिक-सैन्य नागरिक तालमेल भारत में उल्लेखनीय रूप से सफल रहा है।
नागरिक-सैन्य के मिले-जुले प्रयास पूरी रफ्तार से होते हैं और उनमें , अनुशासन के साथ ही सीबीआरएन (रासायनिक, जैविक, रेडियोलॉजिकल और परमाणु) से जुड़ी आपात स्थितियों जैसी क्षमताओं में गजब का सामंजस्य नजर आता है। आपदा के समय मदद पहुंचाने और बचाव कार्यों में यह बात विशेष रूप से नजर आती है। उनकी भूमिका सीमा से परे भी दिखती है जब वे संकट के समय अपने लोगों को बाहर निकालते हैं और क्षेत्रीय मानवीय प्रयासों में सबसे पहले मदद का हाथ बढ़ाते हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर साझा प्रतिबद्धता के बावजूद नागरिक और सैन्य अंगों के बीच अंतर साफ दिख रहा है। सेना के अधिकारी व्यक्तिगत विचारों से अलग कमांड एवं नियंत्रण प्रणाली, मूल्य पदानुक्रम, रफ्तार और एकरूपता के लिहाज से प्रशिक्षित होते हैं। यह बात सिविल सेवाओं में नहीं दिखती है। सेना में कार्यकाल कम होने से निरंतरता सीमित हो जाती है जबकि नागरिक सेवाओं में कार्यकाल अधिक लंबे होते हैं। खरीद सौदों से जुड़े क्षेत्रों में भी नागरिक और सैन्य अंगों के बीच मतभेद साफ नजर आता है। सेना संचालन एवं ठोस प्रदर्शन को अधिक तवज्जो देती है जबकि जबकि रक्षा मंत्रालय कम बोली देने वाली इकाइयों का चयन करता है। जब रक्षा प्रतिष्ठानों एवं उपकरणों के आधुनिकीकरण की बात आती है तो वहां भी आपसी तालमेल का अभाव दिखता है।
जमीन, स्पेक्ट्रम और एयरस्पेस को लेकर भी मतभेद दिखते हैं। सेना उन्हें अपनी तैयारियों के लिए अहम मानती हैं जबकि नागरिक प्राधिकरण उन्हें वृहद विकास के लिए राष्ट्रीय संसाधनों के रूप में देखते हैं। तीनों सेनाओं में लॉजिस्टिक, प्रशिक्षण एवं बुनियादी ढांचे के दोहराव को संयुक्त योजना के अभाव के रूप में देखा जा सकता है। इसे सरकार अक्षमता के रूप में देखती है। इन सभी कारणों से नागरिक-सैन्य संबंधों में पिछले कुछ वर्षों से विश्वास का अभाव बढ़ गया है।
वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान आपस में संयोजन का गंभीर अभाव दिखा था। इस युद्ध के बाद संयुक्त योजना तैयार करने के उद्देश्य से एकीकृत रक्षा कर्मचारी मुख्यालय (आईडीएस) स्थापित किया गया। इसके साथ ही खुफिया जानकारियां साझा करने के लिए रक्षा खुफिया एजेंसी (डीआईए) की स्थापना भी की गई। कारगिल युद्ध के बाद पहली बार तीनों सेवाओं का अंडमान निकोबार कमांड स्थापित किया गया। उसी समय चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) का नया पद सृजित करने का प्रस्ताव दिया गया था मगर उस समय इसका क्रियान्वयन नहीं हो सका।
राष्ट्रीय सलाहकार की नियुक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद को अधिक ताकत दिए जाने के बाद रणनीतिक नीति निर्धारण में तेजी आई। इसके अलावा राष्ट्रीय तकनीकी शोध संगठन ने तकनीकी खुफिया क्षमताओं को मजबूत बनाया। सीमावर्ती इलाकों के विकास पर पहले अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था मगर यह रवैया बदल कर सीमा प्रबंधन विभाग की शुरुआत की गई। इसके साथ ही सशस्त्र सेनाओं की विशिष्ट जरूरतें पूरी करने के लिए एक नई रक्षा खरीद प्रक्रिया (डीपीपी) की शुरुआत की गई।
इन सुधारों से सुरक्षा को लेकर भारत का दृष्टिकोण बदल गया। इन सुधारों के माध्यम से आधुनिकीकरण, तकनीक के इस्तेमाल पर जोर और सीमा के विकास पर अधिक ध्यान दिया। मगर इन सुधारों में नागरिक-सेना के बीच आपसी विश्वास में कमी दूर करने की कोशिश नहीं की गई। हालांकि, आईडीएस, डीआईए और अंडमान निकोबार कमांड कमजोर संवैधानिक समर्थन और सीमित परिचालन प्रभावों के कारण अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरे नहीं उतर पाए हैं। डीपीपी भी रक्षा उपकरणों की खरीदारी में तेजी लाने में सफल नहीं हो पाई। वर्ष 2019 में सीडीएस और सैन्य मामलों के विभाग (डीएमए) के गठन के बाद नागरिक-सैन्य संबंधों में सुधारों के दूसरे चरण की शुरुआत हो गई। सीडीएस, डीएमए के सचिव और रक्षा मंत्रालय के प्रधान सैन्य सलाहकार के रूप में काम करते हैं और तीनों सशस्त्र सेनाओं के काम-काज पर नजर रखते हैं। इनके अलावा संचालन, लॉजिस्टिक्स, प्रशिक्षण एवं मदद में तालमेल को भी बढ़ावा देते हैं।
डीएमए के गठन के बाद रक्षा विभाग से कुछ कार्य दूसरे विभागों को सौंपने की शुरुआत आसान हो गई। वर्ष 2023 में इस जुड़ाव को अंतर-सेवा संगठन अधिनियम के माध्यम से संवैधानिक समर्थन भी मिल गया। 2019 में किए गए सुधारों से प्रशिक्षण एवं लॉजिस्टिक में जुड़ाव में काफी मदद मिली। थिएटर कमांड स्थापित करने पर भी बात चल रही है जो आगे होने वाले सुधारों की तरफ इशारा कर रहा है।
वर्ष 2021 में भू-स्थैतिक सूचनाओं और ड्रोन से संबंधित नीतियों से रक्षा पाबंदियों में काफी कमी आ गई। तेल की खोज के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्र खोले गए। सीमा से सटे इलाकों में बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देने का काम तेज हो गया और सेना नियंत्रित हवाई क्षेत्र नागरिक इस्तेमाल में लाए जाने लगे। अब जमीन स्थानांतरण के कार्य अधिक आसानी से हो जाते हैं। पूंजीगत व्यय में भी तेजी आई है जिससे आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने में मदद मिल रही है। अग्निवीर योजना के जरिये भर्ती एवं प्रशिक्षण को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। ये सभी सुधार अभी अपने मुकाम तक नहीं पहुंच पाए हैं मगर उनके दूरगामी प्रभाव अभी से दिखने लगे हैं।
आधुनिक युद्ध कौशल के कारण के बदलते स्वरूप को देखते हुए नागरिक-सैन्य संबंधों में आपसी जुड़ाव को बढ़ावा देना और अहम हो गया है। इसे ध्यान में रखते हुए तीसरे चरण के सुधारों का उद्देश्य और अधिक एकीकरण है। साइबर हमले, भ्रामक सूचनाएं और छद्म युद्ध के कारण नागरिक-सैन्य उपायों की जरूरत और बढ़ गई है। दोहरे इस्तेमाल यानी नागरिक और सैन्य दोनों उद्देश्यों के लिए बन रही तकनीक जैसे आर्टिफिशल इंटेलिजेंस, ड्रोन और अंतरिक्ष प्रणाली के क्षेत्र में त्वरित विकास के बाद असैन्य उद्यमियों के साथ सहयोग करने की जरूरत बढ़ गई है।
मौजूदा समय में चीन का बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव, चीन और रूस के बीच बढ़ते आपसी संबंध, वैश्वीकरण के घटते प्रभाव, अति महत्त्वपूर्ण खनिजों पर सभी देशों के ध्यान, साइबर हमले जैसी चुनौतियां काफी बढ़ गई हैं। इन सभी चुनौतियों से निपटने के लिए किए जा रहे प्रयास नाकाफी साबित हो रहे हैं। 21वीं शताब्दी के इन पेचीदा जोखिमों से निपटने में असैनिक और सैन्य दोनों अंगों के बीच आपसी सहयोग और हरेक मोर्चे पर उनके बीच तालमेल स्थापित करने की जरूरत काफी बढ़ गई है। इसे देखते हुए नागरिक-सैन्य संबंधों में सुधारों को और प्राथमिकता देना होगी।
(लेखक पूर्व रक्षा सचिव और आईआईटी कानपुर में अतिथि प्राध्यापक हैं।)