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मनी है, तो हनी है…

Last Updated- December 05, 2022 | 6:58 PM IST

कॉरपोरेट हलकों में यह धारणा आम है कि कर्मचारी पलायन रोकने और अच्छी प्रतिभाओं को खींचने के मामले में पैसा बहुत अहमियत नहीं रखता है।


इस सिध्दांत के पैरोकार उस वक्त तब और भी मुखर हो जाते हैं, जब कर्मचारी कंपनी या करियर बदल लेते हैं और इस वजह से कंपनियों की लाभदायकता पर बुरा असर पड़ता है।


मानव संसाधन (एचआर) सलाहकार लगातार यह नसीहत देते हैं कि कर्मचारियों को ‘क्षमतावान’ बनाए जाने और नौकरियों को ‘चुनौतीपूर्ण’ बनाए जाने पर जोर दिया जाना चाहिए और कंपनियों को सिर्फ कर्मचारियों की तनख्वाह बढ़ाए जाने पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए, बल्कि इस तरह के इंतजाम करने चाहिए जिससे कर्मचारी पलायन को रोका जा सके।पर यदि कंपनियां यदि इस सिध्दांत को अमल में लाती हैं, तो इसे बचपना ही कहा जाएगा।


एक बड़ी ब्रिटिश कंपनी के भारत स्थित बैक-ऑफिस में एचआर विभाग द्वारा कुछ इसी तरह का नुस्खा अपनाया गया। कर्मचारियों को रिझाने के लिए तमाम तरह के गैर-मुद्रा उपाय आजमाए गए। मसलन, कंपनी ने अपने कर्मचारियों को एक इन-हाउस पत्रिका देनी शुरू की, जो कर्मचारी भाईचारा की अवधारणा पर केंद्रित पत्रिका थी। हालांकि कंपनी अपने कर्मचारी पलायन पर काबू पाने में तभी कामयाब हो पाई, जब उसने कर्मचारियों को उनके प्रदर्शन के आधार पर दी जाने वाली राशि में इजाफा किया।


हालांकि इस बारे में अभी तक कोई सर्वे तो नहीं है, पर इस बात के कुछ उदाहरण जरूर हैं जब अच्छा प्रदर्शन करने वाले कर्मचारी या कई दफा औसत दर्जे के कर्मचारी भी पुरानी तनख्वाह या उससे कम तनख्वाह पर नौकरी बदल देते हैं, क्योंकि उन्हें नई नौकरी ज्यादा चुनौतीपूर्ण नजर आती है।


यदि बात बिजनेस स्कूलों की करें, तो वहां के बेहतरीन छात्र भी उन्हीं नौकरियों को ज्यादा तवाो देते हैं, जहां ज्यादा वेतन मिलता है। बी-स्कूलों के छात्रों के लिए चुनौती, संस्कृति या इस तरह की कोई चीज बहुत मायने नहीं रखती। मिसाल के तौर पर, बी-स्कूलों के छात्र अब तक यदि इन्वेस्टमेंट बैंकों में नौकरी को ज्यादा तरजीह देते रहे हैं, तो उसकी वजह कार्य संस्कृति या चुनौती नहीं, बल्कि मोटी तनख्वाह ही रही है।


इसी तरह 90 के दशक के आखिर में प्रचलित डॉटकॉम उन्माद भी मोटे पे पैकेट का ही नतीजा था। उस वक्त भारत की कुलीन कंपनियों और जानीमानी बहुराष्ट्रीय कंपनियों में काम करने वाले कर्मचारियों ने डॉटकॉम कंपनियों में नौकरियां जॉइन कर ली थीं (हालांकि यह चलन स्थायी नहीं हो पाया), जबकि इन कंपनियों की कार्यसंस्कृति अजीब थी। मैंने युवा पेशेवरों पर एक ऐसा ही सर्वे करवाया था, जिसमें ज्यादातर का यही कहना था कि नौकरी बदले जाने के लिए आखिरकार पैसा ही मायने रखता है।


सर्वे में शामिल एक युवा महिला ने बड़ी ताजगी के साथ बेबाकी से अपनी राय रखी। महिला ने कहा – ‘सिर्फ पैसे और स्टॉक ऑप्शन दो ऐसी वजहें हैं, जिन पर हम सभी का ध्यान रहता है।’हालांकि यह भी सही है कि कुछ लोग चुनौतीपूर्ण नौकरियां करना पसंद करते हैं और उनके लिए यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती कि उन्हें कितने पैसे मिलते हैं। पर सवाल यह उठता है कि डेविड और विक्टोरिया बेखम के बच्चों की आया ने नौकरी इसलिए छोड़ दी थी कि उसके मालिकान (बेखम दंपत्ति) का व्यवहार अच्छा नहीं था।


बड़े पदों पर काम करने वाले लोगों (जिनकी मोबिलिटी अमूमन ज्यादा होती है) के लिए भी नौकरी से संतुष्टि मायने रखती है, जिसमें कई बातें शामिल जरूर हैं, पर उनके मामले में भी पैसा ही सबसे ज्यादा अहमियत रखता है। नौकरी का चुनौतीपूर्ण होना, कामकाज का सुखद माहौल, भेदभाव का कम से कम होना, ये सारी चीजें उनके लिए महत्व रखती हैं, पर बड़े ओहदों पर काम करने वालों के जहन में इन सबका ख्याल तभी आता है, जब ऊंचे वेतन और भत्ते की बात हो।


एचआर विभाग के लोग कई सर्वेक्षणों के हवाले से अक्सर इस बात की दुहाई देते हैं कि वैसी कंपनियां, जो कर्मचारियों के काम करने के लिए बेहतर जगह मानी जाती हैं, कोई जरूरी नहीं कि वहां कर्मचारियों के वेतन अच्छे हों। पर ऐसे लोग सर्वे से सामने आए उन पहलुओं की अक्सर अनदेखी कर देते हैं कि इस तरह के संस्थान सैलरी के मामले में किसी भी लिहाज से बुरे या कम सैलरी देने वाले नहीं होते।


सच्चाई यह है कि ऐसे संस्थानों ने अपना रिम्यूनरेशन पैकेज इस तरह से तैयार किया है कि कर्मचारियों को तनख्वाह के अलावा दूसरे जरियों से पैसे दिए जाते हैं। इसका एक मशहूर तरीका एंप्लॉयीज स्टॉक ऑप्शन (ईसॉप्श) है। ईसॉप्श के तहत कर्मचारियों को कंपनी के शेयर दिए जाते हैं। आखिर कौन-सी ऐसी वजह है कि सर्च इंजन गूगल में नौकरी करने की कर्मचारियों की हसरत ज्यादा होती है, जबकि गूगल अपने कर्मचारियों को इंडस्ट्री में प्रचलित औसत मानकों से कम सैलरी देती है?


वहां कर्मचारियों को सालाना स्कीइंग ट्रिप से लेकर डॉग-फ्रेंडली ऑफिस तक मुहैया कराए जाते हैं और इनके अलावा कर्मचारियों के लिए कैफेटेरिया में मुफ्त खाने का इंतजाम और चाइल्ड केयर सेंटर आदि के इंतजाम भी होते हैं। पर इन सबसे इतर गूगल की मुख्य पहचान इस बात के लिए है कि वह अपने कर्मचारियों को स्टॉक ऑप्शन देती है, जिस वजह से पिछले कई वर्षों में कई युवा लखपति पैदा हुए हैं।


स्टॉक ऑप्शन दिए जाने से कर्मचारियों के मन में हमेशा यह बात रहती है कि कंपनी के बेहतर प्रदर्शन से उनके धन में इजाफा होगा। कर्मचारी पलायन बचाने के मामले में गूगल की कामयाबी का एक और राज यह है कि कंपनी अच्छा प्रदर्शन करने वाले कर्मचारियों को समय-समय पर पुरस्कृत भी करती है।


इस बात में कोई दो राय नहीं कि कॉरपोरेट कंपनियों की कामयाबी और कर्मचारियों के टिके रहने की बात एक-दूसरे की पूरक है। दुनिया भर की आईटी कंपनियां इस बात को बखूबी समझ चुकी हैं। यही वजह है कि वे नियुक्तियों और कर्मचारी पलायन रोकने के मामले में काफी व्यावहारिक रुख अपनाती हैं। पर ज्यादातर कंपनियों को (जिनमें भारतीय कंपनियां भी शामिल हैं) आज भी अव्यावहारिक और सैध्दांतिक बातें करने से फुर्सत नहीं मिल रही।

First Published - April 2, 2008 | 11:16 PM IST

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