इलस्ट्रेशन - बिनय सिन्हा
गत माह 2023-24 के केंद्रीय बजट को संसद में जिस प्रकार बिना किसी चर्चा के पारित करना पड़ा उस पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने नाखुशी जाहिर की है। लोकसभा ने 23 मार्च को बजट को मंजूरी प्रदान की जिसमें सालाना 45 लाख करोड़ रुपये के व्यय का प्रावधान किया गया। इसे पारित करने के पहले कोई चर्चा नहीं की गई। चार दिन पहले राज्य सभा ने वित्त विधेयक को लोकसभा को वापस लौटा दिया। इस बार भी ऐसा बिना किसी चर्चा के किया गया।
बजट को पारित करने के पहले 23 मार्च को 102 अनुदान मांगों को एक झटके में पारित करना पड़ा। ये अनुदान बजट का हिस्सा थे और इन्हें चर्चा के लिए लोकसभा के समक्ष पेश किया गया था। परंतु चूंकि चर्चा संभव नहीं थी इसलिए इन्हें संसद के नियमों के अनुरूप ही पारित मान लिया गया।
विनियोग विधेयक जो सरकार को समेकित कोष से धनराशि निकालकर विभिन्न योजनाओं और परियोजनाओं पर व्यय करने की अनुमति देता है, उसे भी बिना किसी चर्चा के जल्दी से पारित कर दिया गया। मानो इतना ही काफी नहीं हो तो लोकसभा ने वित्त विधेयक में करीब 60 संशोधन पारित किए। सरकार द्वारा पेश किए गए इन संशोधनों में कराधान नियमों में बदलाव लाने वाले अहम बदलाव भी शामिल थे।
यह बात ध्यान देने लायक है कि इन बदलावों पर कोई बहस संभव नहीं थी और संशोधनों को ध्वनिमत से पारित किया गया। ये तमाम दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं इसलिए हुईं क्योंकि देश के सांसद ऐसे मुद्दों पर एक दूसरे के साथ हिसाब बराबर करने में लगे थे जिनके बारे में उन्हें लग रहा था कि वे मुद्दे सार्वजनिक वित्त की स्थिति, सरकार के सालाना वित्तीय वक्तव्य, केंद्र के विभिन्न व्यय आवंटन तथा नए कराधान प्रस्तावों की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
बजट सत्र में सदन की कार्यवाही का उत्तरार्द्ध अक्सर स्थगित होता रहा और दोनों सदनों की कार्यवाही बार-बार बाधित होने के कारण बजट पर कोई सार्थक चर्चा संभव ही नहीं थी। सत्ताधारी दल और विपक्षी दल दोनों के सांसद ही सदन की इस नाकामी के उत्तरदायी थे।
इस आलेख का उद्देश्य देश की विधायिका के सर्वोच्च स्तर के कामकाज को ठप करने वालों की आलोचना करना ही नहीं है बल्कि इरादा तो यह पता करने का भी है कि कैसे संसद में बजट को समयबद्ध तरीके से जन प्रतिनिधियों के विचारार्थ रखा जा सकता था, उस पर विचार किया जा सकता था। उन विकल्पों को तलाश करना अत्यधिक आवश्यक है क्योंकि बीते कुछ वर्षों में बजट और आर्थिक विधेयकों को बिना चर्चा पारित करने के मामले बढ़े हैं।
1999-2000 का बजट भी बिना किसी खास चर्चा के पारित हो गया था क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने अप्रैल 1999 के पहले ही लोकसभा में अपना बहुमत गंवा दिया था जबकि बजट 13 मई को पारित होना था। ऐसे में सत्ताधारी गठबंधन और विपक्षी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने मतभेद को भुलाकर बिना किसी बहस के बजट को जस का तस पारित हो जाने दिया।
कुछ वर्ष बाद यानी 2004-05, 2013-14 और 2018-19 में भी बजट अनुदान की मांगों को बिना किसी चर्चा के पारित हो जाने दिया गया। अब 2023-24 में भी बिना चर्चा के बजट को पारित किया गया। सवाल यह है कि आखिर केंद्रीय बजट पर समुचित चर्चा और संसद में बहस के लिए क्या किया जा सकता है? ध्यान रहे कि बजट पर चर्चा एक बुनियादी जरूरत है जो हर हाल में पूरी होनी चाहिए।
पहला कदम तो यही होना चाहिए कि यह स्वीकार किया जाए कि बिना किसी चर्चा के विधेयक और बजट आदि का पारित होने की अनुमति देना एक सक्रिय लोकतंत्र के लिए सही नहीं है। अब तक सरकार इस समस्या को लेकर गंभीर नहीं नजर आ रही है जबकि इसे हल करने के लिए ऐसा करना जरूरी है। कोविड संक्रमण के वर्षों में यह सिलसिला कृषि सुधार विधेयकों के साथ शुरू हुआ जिन्हें बिना समुचित बहस के पारित कर दिया गया था। अब यह आम चलन में आता दिख रहा है।
बात केवल इस वर्ष के बजट की नहीं है बल्कि प्रतिस्पर्धा अधिनियम में किए गए एक दर्जन सुधार भी बिना चर्चा के ध्वनि मत से पारित कर दिए गए थे। जाहिर है बिना बहस के बजट पारित करने को लेकर केवल चिंता या नाराजगी जाहिर करना पर्याप्त नहीं है। इस मोर्चे पर ठोस उपचारात्मक कदम उठाने की जरूरत है।
लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति को इस दिशा में पहल करनी चाहिए। अब वक्त आ गया है कि ये दोनों कार्यकारी जिन्हें विधायी कारोबार चलाने का काम सौंपा गया है, वे साथ आएं और इस गंभीर समस्या को हल करने के लिए कार्य योजना तैयार करें। ऐसी कार्य योजना को विश्वसनीय और प्रभावी बनाने के लिए क्या करना होगा? इसकी शुरुआत मौजूदा संसदीय समितियों को मजबूत करके की जा सकती है ताकि वे संसद के बाहर बजट और सभी विधायी बिलों की जांच कर सकें।
अगर सांसद दोनों सदनों में सत्रों को व्यवस्थित रूप से नहीं चलने देते हैं और सदन की कार्यवाही सही ढंग से नहीं चल पाती है तो लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति समितियां गठित करके बजट के अहम मुद्दों और प्रस्तावों की छानबीन कर सकते हैं। अन्य अहम विधेयकों के साथ भी ऐसा किया जा सकता है।
इन समितियों को निर्देश दिया जाना चाहिए कि वे एक तय समय में बजट तथा विधेयकों को लेकर अपनी चर्चा और आकलन सदन के बाहर पूरी कर लें ताकि इन्हें सरकार के साथ साझा किया जा सके। सरकार के लिए भी इन समितियों की अनुशंसाओं पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देना उतना ही अहम होगा। सरकार इन सुझावों की अनदेखी भी कर सकती है और बजट बिना परिवर्तन के भी पारित हो सकता है। परंतु इससे तीन सकारात्मक बातें होंगी।
पहला, इन समितियों की चर्चा सदन के सदस्यों के नजरिये के रूप में रिकॉर्ड होगी और अगर सरकार उन्हें स्वीकार नहीं करती अथवा अनदेखी करती है तो यह बात सार्वजनिक बहस का विषय बनेगी। दूसरा, संसदीय संस्थानों को गति मिलेगी और तीसरा, बजट की समीक्षा इन समितियों से कराने से कम से कम कुछ हद तक निगरानी सुनिश्चित होगी। ऐसे समय पर यह उपयोगी साबित होगा जब संसद सरकार के निर्णय पर बहस और चर्चा के अपने बुनियादी काम को अंजाम नहीं दे पा रही।