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कोविड नियंत्रण को लेकर नीति कितनी कारगर?

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 15, 2022 | 7:54 PM IST

यह अप्रैल की शुरुआत की बात है जब वृहद आर्थिक रुझानों के आधार पर कारोबार करने वाले न्यूयॉर्क के एक निवेशक ने कहा था कि देशों का आकलन उनकी सरकार की क्षमता के आधार पर किया जाना चाहिए। उस समय हम यह चर्चा कर रहे थे कि विकसित और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए बढ़ती महामारी के बीच क्या संभावनाएं हैं। सरकार की क्षमता से उनका तात्पर्य केंद्र्र, राज्य और नगर निकायों की वायरस को नियंत्रित करने की क्षमता और उसकी आर्थिक लागत से था। उन्हें आशंका थी कि ब्राजील, भारत और इंडोनेशिया जैसे उभरते बाजारों में लॉकडाउन लागू करने और उसके बाद उसे नियंत्रित ढंग से खोलने के मामले में राज्य की क्षमता बहुत सीमित है। साथ ही स्वास्थ्य सुविधा का प्रबंधन और मध्यम अवधि के आर्थिक नुकसान का प्रबंधन भी मुश्किल होगा।
इसका आकलन मोटे तौर पर जीडीपी और सरकारी व्यय के अनुपात के आधार पर होता है। लॉकडाउन का प्रवर्तन नागरिकों के आत्मानुशासन पर निर्भर करता है लेकिन इसके लिए पुलिस बल की आवश्यकता भी होती है। परंतु देश में प्रति हजार लोगों पर 1.5 से भी कम पुलिस वाले हैं। जापान और अमेरिका में ये दो और जर्मनी में तीन हैं। उपकरणों और बुनियादी ढांचा क्षेत्र में अंतर और भी अधिक है। उल्लेखनीय है कि पुलिस बल में संक्रमण की दर अन्य की तुलना में अधिक है और इससे सक्रिय पुलिसकर्मियों की तादाद और कम हुई है।
कुछ हिस्सों में अप्रैल में सीमेंट की खपत 60 फीसदी कम हुई। देशव्यापी स्तर पर यह कमी 80 फीसदी थी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंंकि विनिर्माण की इजाजत नहीं थी। जब यह शुरू हुआ तब भी गति बहुत धीमी थी। ग्रामीण इलाकों में पहले लॉकडाउन के दौरान भी कुछ हद तक काम चलता रहा क्योंकि वहां निगरानी के लिए पर्याप्त पुलिस बल नहीं है।
राज्य की सीमित क्षमता का दूसरा उदाहरण है राज्य की स्वास्थ्य सेवा क्षमता। हमारे देश में इसका अधिकांश बोझ लोग स्वयं उठाते हैं। केवल एक तिहाई बेड सरकारी अस्पतालों में हैं जबकि कुल चिकित्सकों का चौथा हिस्सा ही शासकीय है। महामारी बहुत जल्दी इस क्षमता को सीमित कर सकती है। कई अस्पतालों को कोविड-19 के नाम पर अधिग्रहीत किए जाने के बाद अन्य बीमारियों का जोखिम बढ़ गया है।
शायद मामलों का दबाव झेल पाने की अक्षमता के चलते ही कई प्रशासकों ने संक्रमण सीमित करने के प्रयास ही शिथिल कर दिए और वे केवल उन लोगों को चिकित्सा मुहैया कराने पर जोर दे रहे हैं जो गंभीर रूप से बीमार हैं। कुछ अध्ययन से पता चलता है कि केवल 5 फीसदी कोरोना संक्रमितों को चिकित्सा की आवश्यकता है। बाकियों में लक्षण नहीं आते या वे बुखार के बाद स्वयं ठीक हो जाते हैं। जांच ज्यादा न होने के कारण मामले भी पूरी तरह सामने नहीं आ रहे। हर क्षेत्र में यही होता है कि संसाधनों की कमी में लोग ऐसी राह चुनते हैं जो प्राय: खतरनाक साबित है।
हर रोज 5 फीसदी की दर से मामलों में बढ़ोतरी के बीच अर्थव्यवस्था खोलते हुए सरकार को अपनी सीमाओं का भी पता है। इसलिए अब वह वायरस का प्रसार थामने के लिए लोगों के व्यवहार में बदलाव पर जोर दे रही है। उदाहरण के लिए विभिन्न राज्यों में लौट रहे लाखों श्रमिकों के कारण उनके गांवों में क्वारंटीन करने की जरूरत पड़ रही है और शहरों में आवासीय कॉलोनियां या आरडब्ल्यूए अब नए नियम बना रहे हैं। यह समझदारी भरा हो सकता है लेकिन महामारी नियंत्रण में इससे क्या लाभ होगा वह देखना होगा।
यह सही है कि संसाधनों की कमी के कारण हम संक्रमितों की तादाद को बीमारी के प्रसार का मानक नहीं बना पा रहे हैं इसके अलावा अनेक मामलों में कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहा है लेकिन बीमारी से होने वाली मौतों को तो नहीं छिपाया जा सकता है। इस समय हमारे देश में रोज 200 से 250 लोगों की मौत इस महामारी से हो रही है जो कुल औसत मौतों के एक फीसदी से भी कम है। देश में रोज अलग-अलग वजहों से 27,000 लोगों की मौत हो जाती है। बहरहाल आशंका है कि जुलाई के अंत तक रोज होने वाली मौतें 3,000-4,000 के स्तर तक पहुंच सकती हैं। इसकी अनदेखी करना संभव नहीं रहेगा। कुछ शहरों में ऐसा जल्दी भी हो सकता है। मुंबई में कुल मौतों में वायरस से होने वाली मौतों की हिस्सेदारी पहले ही 22 फीसदी हो चुकी है जबकि दिल्ली और अहमदाबाद में यह 13 फीसदी है।
इस समय बीमारी का बोझ 20 बड़े जिलों में है जहां कुल मामलों  में 70 फीसदी घटित हुए हैं। मुंबई में प्रति 10 लाख 2,500 लोग संक्रमित हैं। 20 बड़े जिलों के बाद यह अनुपात महज 38 है जो 2,500 की तुलना में काफी कम है। लेकिन 5 फीसदी की दर से हमें वहां पहुंचने में मात्र तीन महीने लगेंगे। 2.5 से 3 करोड़ प्रवासी श्रमिकों के गांवों में जाने के बाद आशंका और बढ़ गई है।
बहुत संभव है कि शहरों में भीड़भाड़ कम होने से वायरस का प्रसार बहुत बुरी स्थिति में न पहुंचे। मुंबई की करीब 10 फीसदी आबादी जा चुकी है। गांवों में सामाजिक दूरी के मानकों का पालन करना अधिक आसान है क्योंकि वहां जगह ज्यादा है और लोग एक दूसरे के परिवार को सदियों से जानते हैं। फिलहाल तो यह बस एक आशा है।
लॉकडाउन स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए काफी महंगा साबित हुआ। अनुमान है कि 14 अप्रैल तक चले पहले लॉकडाउन ने जीडीपी के दोतिहाई हिस्से को क्षति पहुंचाई। 3 मई को समाप्त दूसरे लॉकडाउन की तीव्रता इससे आधी थी। 17 मई को समाप्त तीसरे लॉकडाउन ने जीडीपी के 18 फीसदी और 31 मई को समाप्त चौथे लॉकडाउन ने उसे 9 फीसदी तक सीमित किया। पांचवें लॉकडाउन को अनलॉक 1 का नाम दिया गया है। इसमें केवल कंटेनमेंट एरिया में रोकथाम है। यह जीडीपी के 5 फीसदी के बराबर क्षति पहुंचाएगा। एक बार शिक्षण संस्थान खुल जाने के बाद लगभग हर चीज की इजाजत मिल जाएगी।
जीडीपी पर असर का आकलन करते हुए हमें इस बात को भी ध्यान में रखना चाहिए कि क्या राज्य भविष्य में और प्रतिबंध लागू करते हैं और क्या बीमारी के प्रसार के साथ कंटेनमेंट जोन में इजाफा होता है। इस दौरान कमजोर वैश्विक और स्थानीय मांग, वैश्विक आपूर्ति शृंखला में बाधा, और अल्पावधि में श्रम की आपूर्ति के मसले भी सामने आएंगे। हमारा मानना है कि अर्थव्यवस्था तेजी से 80 से 85 फीसदी तक सामान्य हो जाएगी। इसके बाद का सुधार जरूर धीमा होगा। इतना ही नहीं मौत के बढ़ते वास्तविक जोखिम और इसके सामाजिक रूप से अस्वीकार्य स्तर पर पहुंचने के साथ ही बहुत संभव है कि सुधार की प्रक्रिया एकदम सीधी सपाट न रहे।
(लेखक क्रेडिट स्विस में एशिया पैसिफिक स्ट्रैटजी के को-हेड एवं इंडिया स्ट्रैटजिस्ट हैं)

First Published : June 10, 2020 | 11:14 PM IST