भारतीय कंपनियों के निदेशकमंडल (बोर्ड) कई बदलाव से होकर गुजरे हैं। नए नियमों, बाजार की गतिविधियों, नए अनुभव एवं वैश्विक संचालन मानकों के कारण बोर्ड में ये बदलाव दिख रहे हैं। स्वयं हमारे एवं अपने प्रतिस्पर्धियों के तजुर्बे के आधार पर अब हम एक ऐसे पहलू की तरफ ध्यान खींचना चाहते हैं जिसे लेकर भारतीय बोर्ड को अधिक जागरूक, सतर्क और सावधान रहने की जरूरत है। यह पहलू है वह लक्ष्मण रेखा जो निदेशकमंडल को प्रबंधन से अलग करती है।
यह विभाजन क्यों महत्त्वपूर्ण है? इसका मुख्य कारण कहीं न कहीं बुनियादी रूप से संचालन से जुड़ी खामी है। इसे और व्यापक रूप में समझने की कोशिश करें तो बोर्ड कारोबार पर नजर रखता है और प्रबंधन कारोबार का संचालन करते हैं और दोनों ही अपनी भूमिका को लेकर जिम्मेदार होते हैं। इस विभाजन रेखा को कमजोर बनाने से जवाबदेही में घालमेल हो जाता है। दिलचस्प है कि भारत में चेयरमैन को ‘बोर्ड का चेयरमैन’ कहने के बजाय ‘कंपनी का चेयरमैन’ पुकारा जाता है।
वास्तव में यह महीन एवं जटिल रेखा होती है क्योंकि बोर्ड के संचालन के लिए परिस्थितिजन्य निर्णय की जरूरत होती है न कि पुराने तौर-तरीके या विधियां काम आते हैं। यह निश्चित है कि ऐसी कठिन परिस्थिति सामने आएगी जिसमें बोर्ड को अपनी सामान्य भूमिका का दायरा बढ़ाने की जरूरत पेश आएगी और ऐसे समय में बोर्ड के कुछ सदस्यों के अनुभव, उनकी विशेषज्ञता एवं सूझबूझ इस्तेमाल में लाए जाते हैं। मगर ये सभी और तमाम कई दूसरे कारण हैं जिनसे भूमिकाओं को लेकर स्पष्टता एवं विभाजन रेखा की समझ काफी महत्त्वपूर्ण हो जाती है।
आइए, पहले बोर्ड सदस्यों की उस भूमिका की चर्चा करते हैं जिसमें वे वरिष्ठ प्रबंधन को ‘औपचारिक राह’ पर ले जाने की कोशिश करने लगते हैं। यह भूमिका उतनी असामान्य भी नहीं कही जा सकती। किसी को नुकसान नहीं पहुंचाने वाला और अच्छा दिखने वाला यह व्यवहार एक सीमा का उल्लंघन जरूर करता है खासकर तथ्यात्मक, प्रदर्शन एवं लोगों निर्णयों के संदर्भ में। इसके बाद मसला आता है मुख्य कार्याधिकारी के चयन का। सीईओ का चयन बोर्ड की एक प्रमुख जिम्मेदारी है जिसे उसे ही पूरा करनी होती है मगर इसके लिए बोर्ड के सदस्यों को प्रबंधन स्तर के वरिष्ठ दावेदारों की बखूबी समझ होनी चाहिए। यह समझ औपचारिक प्रक्रियाओं से हासिल की जा सकती है। अगर बोर्ड के सदस्यों को लगता है कि अनौपचारिक बैठकों से वास्तविक समझ हासिल हो रही है तो उनके लिए एक प्रक्रिया निर्धारित होनी चाहिए।
एक और बात यह देखने में आती है कि प्रबंधन सलाह के लिए बोर्ड के सदस्यों के पास जाता है। क्या यह विभाजन रेखा एक बार फिर पार करने का उदाहरण है? अगर निदेशकमंडल के सदस्य अपनी भूमिकाओं को लेकर पूरी समझ बूझ रखते हैं तब तो रेखा पार नहीं होती है क्योंकि इस मुद्दे पर गहराई से चिंतन करना दोनों ही पक्षों के हक में होता है। यह रेखा तब पार होती है जब समाधान दोनों पक्ष मिलकर तैयार करते हैं मगर इससे बोर्ड सदस्यों की उस समाधान में जरूरत से अधिक भागीदारी रखने की आशंका बढ़ जाती है। कारोबार एवं उससे जुड़े जोखिमों को समझना मगर अनावश्यक हस्तक्षेप से दूर रहने की नीति बोर्ड की उप-समितियों पर भी लागू होती है।
विलय एवं अधिग्रहण से संबंधित उप-समिति को सौदे करने की प्रक्रिया या बातचीत में हिस्सा नहीं लेना चाहिए। इसका काम दिशानिर्देश एवं सुरक्षात्मक उपाय करना, प्रबंधन के सिद्धांतों को कसौटी पर कसना और अस्पष्ट पहलुओं की पहचान करना है।
दूसरी तरफ, अति सक्रिय शेयरधारकों के साथ बातचीत को आगे बढ़ाना बोर्ड की जिम्मेदारी है और इसमें बोर्ड द्वारा प्रबंधन की भागीदारी आवश्यक समझी जाती है। यह बात भारत से बाहर काफी सामान्य है। बोर्ड के पास इतनी विशेषज्ञता एवं अनुभव का क्या महत्त्व रह जाएगा अगर यह प्रबंधन के साथ उसे साझा नहीं करता है? यहां आशय यह है कि बोर्ड को अपने कार्य बेहतर तरीके से करना चाहिए न कि प्रबंधन के कार्य बेहतर तरीके से करने के लिए प्रबंधन के साथ साझेदारी करना या उसके साथ तर्क वितर्क करना चाहिए। अगर प्रबंधन में सुधार की जरूरत है या उसके साथ साझेदारी की जरूरत है तो उस स्थिति में बोर्ड का काम यह सुनिश्चित करना है कि प्रबंधन स्वयं ऐसा करें। इसमें बोर्ड को कमान अपने हाथ में लेने की जरूरत कतई नहीं है।
बेशक ऐसी परिस्थितियां हैं जहां बोर्ड को आगे कदम बढ़ाने और निगरानी रखने की अपनी भूमिका से दूरी बनाने की नौबत आ सकती है। उदाहरण के लिए एक ऐसी स्थिति आती है जब कंपनी में सीईओ नहीं होता है और बोर्ड की उत्तराधिकार की योजना कारगर नहीं रहती है। हालांकि, वहां भी हमने देखा है कि पैनी निगरानी रखने के लिए परिपक्व बोर्ड एक बोर्ड उप-समिति गठित करते हैं। जब बोर्ड और कारोबार अनिवार्य रूप से स्पष्ट तरीके से आपस में सहयोग करते हैं तो इस बात को लेकर उलझन की स्थिति नहीं होनी चाहिए कि कौन किस बात के लिए उत्तरदायी है।
जब बोर्ड के सदस्य प्रबंधन की एक टीम की तरह कार्य करने में अधिक समय देते हैं तो स्वयं उनके पास बोर्ड के काम करने का काफी कम समय बचता है। इससे धीरे-धीरे बोर्ड के कार्यों पर असर होने लगता है और जवाबदेही के साथ समझौता करने की नौबत पैदा हो जाती है।
इसका एक उदाहरण बोर्ड का रणनीति सत्र है जहां बोर्ड के सदस्य एक तय प्रारूप के तहत साथ मिलकर रणनीति बनाने के लिए प्रबंधन टीम का हिस्सा बनते हैं। यह ठीक नहीं है। प्रबंधन की भूमिका कारोबार के लिए रणनीति तैयार करना, उसे नियंत्रित एवं क्रियान्वित करना है। बोर्ड की भूमिका रणनीति से जुड़े सिद्धांतों को समझना एवं जांचना-परखना और उनके क्रियान्वयन के लिए जरूरी नीति को मंजूरी देना है। इसके अलावा रणनीति में निहित जोखिमों की समीक्षा और प्रमुख प्रदर्शन मानक तैयार करना भी उसकी जिम्मेदारी है। अगर प्रबंधन के पास कारोबार की गहरी समझ हो और बोर्ड के पास दूरदर्शी सोच हो तो यह स्थिति श्रेष्ठ होती है जिससे कोई इकाई एक सुदृढ़ दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ती है।
हमारे अनुभव यह रहे हैं कि उत्तरी अमेरिका और यूरोप में बोर्ड भारतीय बोर्ड की तुलना में इस सूक्ष्म रेखा का प्रबंधन कहीं अधिक स्पष्टता के साथ करते हैं। वास्तव में बोर्ड की प्रभावशीलता प्रशिक्षण कार्यक्रम का एजेंडा इसमें शरीक होने वाले लोगों को बोर्ड की भूमिका और कारोबार को बेहतर तरीके से समझाने पर केंद्रित होना चाहिए। इन कार्यक्रमों से खासकर चेयरपर्सन और बोर्ड के सभी सदस्यों को वे प्रक्रियाएं तैयार करने में मदद मिलनी चाहिए जो यह कार्य आसान बना सकती हैं और उलझन पैदा करने वाली स्थितियों को दूर कर सकती है। इसके बाद संचालन अपनी पूरी लय में काम करता है।
(लेखिकाओं के पास बोर्ड के साथ काम करने का व्यापक अनुभव है।)