भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अब अपने इतिहास के पांच खंड प्रकाशित किए हैं। मैं आरबीआई का शुक्रगुजार हूं कि मुझे भी इसका नवीनतम खंड भेजा गया। लेकिन यह लेख पुस्तक की समीक्षा से संबंधित नहीं है। यह लेख इस संदर्भ में है कि देश के वित्तीय कोष की समृद्ध विरासत को संभालने वाला आरबीआई अपना इतिहास कैसे लिखता है।
पहले दो खंड के प्रकाशन में करीब 28 साल लगे जिसकी अवधि वर्ष 1970 से 1998 तक थी। अगले तीन खंड महज 17 वर्षों में प्रकाशित हुए हैं। प्रकाशन अवधि में ऐसी तेजी कुछ सोचने पर मजबूर करती है। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि किसी दौर के इतिहास को शुरू करने से पहले कुछ समय ऐसे ही गुजर देने दिया जाए?
पहले के खंड में करीब 14-17 वर्षों का जायजा लिया गया जबकि इसके विपरीत नवीनतम खंड संख्या 5 में केवल 10 वर्षों को कवर किया गया है। खंड 1 में वर्ष 1935-51 को कवर किया, खंड 2 में 1951-67 तक और खंड 3 में वर्ष 1967-81 की अवधि कवर की गई जिससे मैं भी जुड़ा था। इसके बाद फिर खंड 4 में वर्ष 1981-98 की अवधि शामिल की गई और अब खंड 5 में वर्ष 1998-2008 तक कवर किया गया।
खंड 1 को सम्मानित एस एल एन सिम्हा द्वारा तैयार किया गया था और खंड 2 लेखकों की एक टीम द्वारा तैयार की गई थी लेकिन मुख्य लेखन की जिम्मेदारी दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के जी बालचंद्रन को दी गई थी। उन्होंने इसे लिखने में मदद की थी। खंड 3 और खंड 4 के लिए आरबीआई ने किसी भी लेखक को लेखन का श्रेय नहीं देने का फैसला किया। खंड 5 भारत के अग्रणी प्रमुख आर्थिक इतिहासकारों में से एक तीर्थंकर रॉय द्वारा लिखा गया है जो लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के प्रोफेसर हैं। गौर करने वाली बात यह है कि शीर्षक वाले पृष्ठ पर ही लेखक के रूप में उनका नाम अंकित है लेकिन कवर पर उनका नाम नहीं है।
इसमें एक और बात अहम है। इतिहास पर नजर रखने वाली समिति के एक पूर्व अध्यक्ष द्वारा निर्धारित अकथनीय और अस्पष्ट नियम के कारण यह तय किया गया कि इन खंडों में किसी का नाम न जाए या चुनिंदा नामों का ही उल्लेख हो और केवल पदनामों को रिकॉर्ड में रखा जाएगा। इसमें किसी प्रक्रिया का भी जिक्र नहीं होगा बल्कि परिणामों का ही ब्योरा होगा। यही वजह है कि हमें कभी यह पता नहीं चलता कि घटनाक्रम का रुख किस तरह बदला और क्यों इस तरह की चीजें हुईं। लेकिन इस तरह की शैली खंड 1 से खंड 3 में नहीं देखी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि खंड 4 और खंड 5 आरबीआई की महज वार्षिक रिपोर्ट जैसी ही मालूम होती है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि आरबीआई में ही सारे घटनाक्रम चलते रहते हैं।
भविष्य में लिखे जाने वाले इतिहास के संबंध में मेरे दो सुझाव हैं। पहला, आरबीआई को खंड 1-3 की शैली ही अपनानी चाहिए। इसके साथ ही इसे वर्ष 2008-23 की अवधि पर काम शुरू करने से पहले कम से कम वर्ष 2027 तक इंतजार करना चाहिए जो खंड 6 की विषय वस्तु होनी चाहिए।
वर्ष 1998-2008 की अवधि भारत और वैश्विक मौद्रिक नीति में बड़े बदलावों की अवधि में से एक थी। अगर पिछले 15 वर्षों के दौरान आरबीआई ने धीरे-धीरे वित्तीय क्षेत्र को मुक्त करने की कोशिश की है तो इन 10 वर्षों में उस स्वतंत्रता से जुड़े जोखिम और उसके बेहतर परिणाम भी मिले हैं। इन बेहतर नतीजों में कई चीजें शामिल थीं जैसे कि कम ब्याज दरें, उच्च प्रतिस्पर्धा, तेज वृद्धि।
इसे आज आप वर्ष 2002 और 2013 के बीच भारतीय बैंकिंग का ‘अमृत काल’ भी कह सकते हैं। इसमें काफी सुधार भी हो रहे थे और इनका पूरा लाभ भी उठाया गया।
लेकिन कई जोखिम भी थे जैसे वित्त मंत्रालय द्वारा लगातार हस्तक्षेप के चलते गंभीर चुनौतियां पेश की गईं। खंड 5 में ऐसे दिखाया गया है जैसे कोई वित्त मंत्रालय हीं नहीं था और आरबीआई का अपने साझेदार से कोई मतभेद नहीं था। वर्ष 1998-2008 के दौरान, दो बेहद राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से कुशल गवर्नरों, बिमल जालान और वाई वी रेड्डी ने क्रमशः कम ब्याज दरें और बैंक की बेहतर स्थिति निर्धारित करने में सफलता पाई थी। दोनों ने ही वित्त मंत्रालय में काम किया था और उन्हें इस बात की जानकारी थी कि तंत्र कैसे काम करता है। लेकिन हमें इसकी जानकारी बिल्कुल नहीं मिलती है क्योंकि सभी विवादों की बातें हटा दी गईं हैं।
ऐसा तब हुआ जब केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता एक ज्वलंत विषय था। खंड 5 में इस विषय पर दो गर्वनरों के दो उद्धरणों की 10 पंक्तियां, पृष्ठ 3 के चार इंच के बॉक्स में लिखी गईं हैं। विडंबना यह है कि आरबीआई की फाइलें ऐसी सूचनाओं से भरी हुई हैं जो आरबीआई-सरकार के संबंधों पर रोशनी डालती हैं लेकिन यह जानकारी अब रोकी जा रही है। यह भी गौर करने लायक बात है कि खंड 3 (1967-81) में इस बात को किस तरह रखा गया हैः उदाहरण के तौर पर
‘… मनमोहन सिंह बंबई पहुंचे और उन्होंने बैंक के शीर्ष कार्यकारियों को दो टूक शब्दों में कह दिया कि सरकार को लगता है कि 8 मई को ऋण नीति की घोषणा करने से पहले उनके साथ ‘पहले परामर्श’ किया जा सकता था।’
‘… कृष्णास्वामी ने मनमोहन सिंह को फोन पर अवगत कराया कि बैंकरों के साथ 7 मई को गवर्नर की बैठक में किन उपायों की घोषणा की जानी है। मनमोहन सिंह ने बाद में कहा कि सचिव चाहते थे कि रिजर्व बैंक की ओर से इस तरह के मामले लिखित में बताए जाने चाहिए… यह
प्रकरण इस बात की याद दिलाता है कि बैंक की नीतियां केवल सरकार की सहमति से ही तैयार की जा सकती हैं।’
‘… मनमोहन सिंह ने कहा कि सरकार चाहेगी कि रिजर्व बैंक इस तरह की कार्रवाई के लिए इस मामले की तात्कालिक आधार पर जांच करे क्योंकि इसे कपास ऋण में सख्ती लाने की दिशा में उचित माना जाता है। ‘… बैंक ने 08 जुलाई, 1976 को बैंकों को एक निर्देश जारी किया, जिसमें कच्चे कपास पर मार्जिन बढ़ाया गया।’
‘… मनमोहन सिंह ने कृष्णास्वामी को लिखा था कि चूंकि एफसीआई सरकार को लगभग 250 करोड़ रुपये नहीं चुका सका और 1976-77 के बजट में इस राशि का श्रेय लिया गया था इसलिए बैंक एफसीआई को 250 करोड़ रुपये का अतिरिक्त ऋण प्रदान करने की व्यवस्था कर सकता है। इसके बाद जरूरी कदम उठाए गए।’