नेपाल में हर साल 19 फरवरी को लोकतंत्र दिवस मनाया जाता है। यह दिन 1950-51 की क्रांति की याद दिलाता है जब राणाओं का तख्तापलट हुआ था और देश में लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित पहली सरकार बनी थी। लेकिन राजा महेंद्र ने 1960 में संसद भंग कर दी और पंचायत व्यवस्था लागू कर दी, जिसमें राजनीतिक दल हिस्सा नहीं ले सकते थे। यह सिलसिला तीन दशक तक चला। पंचायत व्यवस्था में चुनाव तो कराए गए मगर राजा का नियंत्रण बना रहा।
इसके बाद 1980 के दशक में एक जनांदोलन हुआ और बहुदलीय सरकार बनी, लेकिन वह भी पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं थी। नेपाल में राजशाही 2008 में जाकर पूरी तरह खत्म हो पाई। लेकिन नेपाली संसद के निचले सदन का पांचवां सबसे बड़ा दल राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) अब भी राजशाही और उसकी सोच का प्रतीक है।
यह विडंबना हाल में एक बार फिर महसूस की गई, जब लोकतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर एक वीडियो जारी कर पूर्व राजा ज्ञानेंद्र ने देश को संबोधित किया। इस संबोधन में उन्होंने खुद को राजसी अंदाज में ‘हम’ कहा। उन्होंने कहा, ‘समय आ गया है कि हम देश की रक्षा करने और राष्ट्रीय एकता लाने की जिम्मेदारी उठाएं।’ आगे उन्होंने कहा, ‘राष्ट्रहित में हमने उदारता बरती है। लोगों की भलाई के लिए हमने अपने पद और अधिकार भी त्यागे हैं। यह बलिदान कभी छोटा नहीं होगा।’
यह पहला मौका नहीं है, जब राजा ज्ञानेंद्र ने नेपाल की राजनीति में सक्रिय भूमिका हासिल करने की कोशिश की है। पिछले कुछ सालों से वह देश भर में घूम रहे हैं और अपनी ‘जनता’ को याद दिला रहे हैं कि हालात बेहतर हो सकते हैं। लोगों के रुख में बदलाव भी नजर आ रहा है। इसी महीने नेपाली अर्थशास्त्री और नेपाल स्टॉक एक्सचेंज के पूर्व चेयरमैन लक्ष्मण न्यौपाने ने काठमांडू से फोन करके बताया कि राजा ज्ञानेंद्र के प्रयासों से देश में हलचल हो रही है। उनका कहना था कि राजा ज्ञानेंद्र नेपालगंज, भैरहवा, पोखरा, स्याग्जा, बागलुंग, म्याग्दी, बर्दिया, डांग और तौलिहवा (मुख्य रूप से पश्चिमी नेपाल) के तीन महीने के दौरे से जब लौटे तब काठमांडू के त्रिभुवन अतंरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उनके स्वागत के लिए करीब 50,000 लोग पहुंच गए। मगर पुलिस का कहना है कि संख्या केवल 10,000 थी।
नेपाल में पिछले कुछ समय से राजनीतिक और आर्थिक स्थितियां चुनौती भरी रही हैं। हालांकि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में बढ़ोतरी हो रही है (2024 के 4 फीसदी से बढ़कर 2925 में यह 4.6 फीसदी पर पहुंच गया), लेकिन कोविड-19 ने वृद्धि पर बुरी तरह असर डाला क्योंकि विदेश में बसने वाले नेपाली जो रकम भेजते हैं, वह जीडीपी में करीब 25 फीसदी योगदान करती है। महंगाई 5.5 फीसदी से नीचे आई है मगर अब भी 5 फीसदी है। अग्निवीर योजना के कारण भारतीय सेना में भर्ती भी रुकी हुई है, जिसके कारण बेरोजगारी परेशानी का बड़ा सबब बन गई है।
किंतु नेपाल में भ्रष्टाचार और अस्थिर सरकार के प्रति सर्वाधिक आक्रोश है। देश में 2008 से अभी तक 13 सरकारें बदल चुकी हैं और इन 17 साल में देश को 16 प्रधानमंत्री मिल चुके हैं। इस समय सरकार की कमान केपी शर्मा ओली के हाथ में हैं। ओली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी) से हैं और सत्ता में उनकी पार्टी का गठबंधन शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस के साथ है। वह अगले साल जुलाई में प्रधानमंत्री पद से हट सकते हैं, जिसके बाद देउबा प्रधानमंत्री बनेंगे। नेपाल में आम चुनाव 2027 में होने हैं।
ऐसी स्थिति में जब राजा ने हस्तक्षेप का प्रस्ताव रखा तो आपीपी के अलावा दूसरी पार्टियों के सांसदों का विरोध लाजिमी था। नेपाली कांग्रेस की सांसद ईश्वरी देवी न्यौपाने ने कहा, ‘गणतंत्र विरोधी बयान स्वीकार नहीं हैं और यदि आप सत्ता में लौटना चाहते हैं तो चुनाव लड़िए।’ पूर्व उप प्रधानमंत्री वामदेव गौतम ने राजा को ब्रिटेन और फ्रांस में राजशाही के हश्र की याद दिलाई। ओली की पार्टी के सांसद गोकुल बास्कोटा ने आरपीपी के सदस्यों का मखौल उड़ाते हुए कहा, ‘ज्यादा फिक्र करने की जरूरत नहीं है। बस, हवाई जहाज का टिकट खरीद दीजिए और वह रैली किए बगैर ही लौट आएंगे। काठमांडू लौटना मुमकिन है, सिंहासन पर लौटना नहीं।’ आरपीपी के ज्ञानेंद्र शाही ने राजशाही पर जनमत संग्रह कराने पर जोर डाला। उन्होंने 2015 के संविधान की वैधता पर सवाल उठाते हुए कहा कि ‘उसे विदेशियों ने अपने स्वार्थ के लिए थोपा था’।
ओली ने भी जवाब दिया। प्रदीप विक्रम राणा ने काठमांडू रैली में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का पोस्टर लगाया था। नेपाल के प्रधानमंत्री ने कहा, ‘हम अपनी रैलियों में विदेशी नेताओं की तस्वीरें नहीं लगाते।’ उनका बयान ज्ञानेंद्र और आदित्यनाथ की दो कथित मुलाकातों के सिलसिले में है। इनमें से एक इसी साल और दूसरी कई साल पहले हुई थी। गोरखनाथ पंथ नेपाली राजशाही और नेपाल में ‘हिंदू राष्ट्र’ का पुरजोर समर्थक है।
राजा ज्ञानेंद्र इस कुंठा को भांप सकते हैं और आरपीपी के जरिये वह अपने लिए बड़ी भूमिका तलाश रहे हैं। किंतु जनता के बीच राजशाही की स्वीकार्यता अब भी कम है, जो चुनाव में आरपीपी के खराब प्रदर्शन से पता भी चलती है। जातियों और स्त्रियों को साथ लेकर चलने पर आरपीपी का रुख अस्पष्ट है, जबकि वामपंथी दलों ने हाशिये पर रहने वाले समुदायों को राजनीति में लाने में योगदान किया है। इससे महत्त्वाकांक्षा बढ़ी है। लेकिन एक तथ्य निर्विवाद है: नेपाल का हालिया राजनीतिक इतिहास हमें बताता है कि रसूख चाहे जितना हो, वहां राजशाही की बहाली भारत के जरिये नहीं हो सकती।