यह बात बार-बार दोहराई जाती रही है कि निवेशक दीर्घावधि में भारत की वृद्धि के पूर्वानुमान को लेकर चिंतित हैं। प्रश्न यह है कि भारत की वास्तविक ढांचागत वृद्धि दर क्या है? महामारी के झटके के बाद वित्त वर्ष 2022 में वृद्धि दर कितनी तेजी से और किस स्तर तक वापसी करेगी? जैसा कि अरविंद सुब्रमण्यन कहना चाहते हैं क्या भारतीय वृद्धि वाकई बढ़ाचढ़ाकर पेश की गई है?
वृद्धि को लेकर होने वाली बहस अहम है और इस बहस का नतीजा ही तय करेगा कि भारतीय बाजार आकर्षक है या नहीं। वृद्धि का गणित दीर्घावधि के अधिकांश चरों को प्रभावित करता है। ऋण का स्थायित्व सबसे अहम है। यदि भारत वर्तमान कीमतों पर 10-11 फीसदी वृद्धि दर की ओर वापसी नहीं करता तो सरकारी ऋण अनुपात को स्थिर करने में दिक्कत आएगी।
इसी तरह बिना मजबूत वृद्धि के कर राजस्व की स्थिति बेहतर कैसे होगी और सार्वजनिक निवेश और राजकोषीय स्थिरता कैसे बरकरार होगी। शेयर बाजार के सीमित दृष्टिकोण से भी देखें तो आर्थिक वृद्धि दरों और कारोबारी मुनाफे में संबंध है। आने वाले वर्षों में जब तक वृद्धि दर मजबूत नहीं होती कारोबारी आय में सुधार मुश्किल है। आय में तेजी के अभाव में बाजार प्रतिफल की संभावना भी कमजोर रहेगी। वित्त वर्ष 15 से वित्त वर्ष 20 के बीच निफ्टी की समेकित वार्षिक वृद्धि दर (सीएजीआर) केवल 1.7 फीसदी रही। यह आंकड़ा 2.7 फीसदी की आय सीएजीआर, 1.4 फीसदी लाभांश और 2.4 फीसदी मूल्यांकन (स्रोत: मोतीलाल ओसवाल) से निकला। यदि आने वाले वर्षों में आर्थिक वृद्धि और आय में सुधार नहीं होता है तो बाजार प्रतिफल कमजोर बना रहेगा। अब इस बात पर लगभग आम सहमति है कि देश में वृद्धि के मजबूत होने के लिए वित्तीय तंत्र को बेहतर बनाना होगा। हमें सभी क्षेत्रों में लगातार झटके लगे हैं। परिसंपत्ति गुणवत्ता समीक्षा ने बैंकों को मजबूर किया कि वे तमाम फंसे कर्ज की जानकारी सार्वजनिक करें। इसके पश्चात आईएलऐंडएफएस संकट सामने आया जिससे गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और आवास वित्त कंपनियों के कारोबारी मॉडल नाकाम हो गए। अब ऋण बाजार तक उनकी पहुंच नहीं है, उनकी ढांचागत फंडिंग कमजोर है और परिसंपत्ति जवाबदेही में विसंगति है। येस बैंक प्रकरण के बाद छोटे निजी बैंक घबरा गए हैं। उन्हें जमा पर ज्यादा जोखिम प्रीमियम चुकाना पड़ रहा है।
खेद की बात है कि बाजार जिस तरह व्यवहार कर रहे हैं उसे देखते हुए निवेशकों ने कोविड-19 के असर से जल्द उबरने की आशा छोड़ दी है। निवेशकों को आर्थिक गिरावट से बाहर आने की कोई सूरत नहीं नजर आती। मौजूदा मूल्यांकन बताते हैं कि व्यापक अर्थव्यवस्था में परिसंपत्ति गुणवत्ता और आय दोनों कमजोर बने हुए हैं। यह अच्छी बात नहीं है। बिना वित्तीय स्थितियों में सुधार के अर्थव्यवस्था की वापसी मुश्किल है। यही वजह है कि इस वर्ष वित्तीय क्षेत्र सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला क्षेत्र रहा है। अधिकांश बड़े बैंक 30 से 45 फीसदी नीचे हैं और बीएसई-200 में सभी पिछड़ी कंपनियां वित्तीय क्षेत्र की हैं।
इस वर्ष कोई वित्तीय शेयर तेजी पर नहीं है। कोविड से जुड़ी बिकवाली में वित्तीय कंपनियां इसीलिए आगे रहीं। इस क्षेत्र में विदेशियों का स्वामित्व अधिक था और उन्होंने बाजार में गिरावट के दौर में बिकवाली करना बेहतर समझा।
यह बिकवाली तो होनी ही थी क्योंकि उनका फायदा इसी मेंं था। निफ्टी में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी 42 फीसदी थी और ऐसे में यह उपयुक्त समय था। चिंता की बात यह रही कि बड़े बैंक अपने घाटे की भरपाई नहीं कर पा रहे।
निवेशक पूंजी आवंटन को लेकर भी भयभीत हैं। हर बड़ा वित्तीय संस्थान 10,000 से 15,000 करोड़ रुपये की पूंजी जुटा रहा है। इन बैंकों को ऐसा क्या मालूम है जो हमें नहीं मालूम? क्या ऋण नुकसान इतना अधिक होने वाला है कि उन सभी को एक साथ पूंजी की आवश्यकता है? ऐसा भी नहीं कि पूंजी जुटाने का काम बेहतर दरों पर हो रहा हो।
एक बार ऋण स्थगन समाप्त होने के बाद क्या फंसे हुए कर्ज मेंं इजाफा होगा? धन जुटाने की कोशिश निवेशकों को आश्वस्त करने के बजाय कई को चिंतित कर रही हैं। एक और चिंता सामने आ रहे आंकड़ों की प्रासंगिकता की है। अगर हमारा अधिकांश ऋण स्थगन के अधीन रहेगा तो आय के आंकड़ों की प्रासंगिकता क्या है? अगर परिसंपत्ति गुणवत्ता और मुनाफे के बारे में कोई जानकारी न हो तो किसी बैंक का मूल्यांकन कैसे किया जाए?
बाजार को नहीं लगता कि बैंकों की हालत में जल्दी सुधार होगा। उनकी वृद्धि और मुनाफा अस्पष्ट है जिसे समझ पाना काफी कठिन है। इसका असर आर्थिक स्थितियों में सुधार को लेकर बाजार के नजरिये पर भी पड़ेगा। बल्कि बाजार के मूल्य संबंधी निर्णय कमजोर अर्थव्यवस्था के साथ निरंतरता वाले हैं और उसे मजबूत सुधार की गुंजाइश नहीं दिख रही। इस वर्ष अब तक सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले क्षेत्र हैं औषधि और सूचना प्रौद्योगिकी सेवाएं। दोनों निर्यात आधारित क्षेत्र हैं। वित्तीय क्षेत्र के अलावा सबसे खराब क्षेत्र हैं अचल संपत्ति, वाहन और पूंजीगत वस्तु। समस्त घरेलू चक्रों की बात करें तो क्षेत्रवार बदलाव में भविष्य केे वृद्धि अनुमानों को लेकर भरोसे की कमी नजर आती है।
सरकार ने वित्तीय क्षेत्र को स्थिर करने और जोखिम कम करने के लिए कई कदम उठाए हैं। उसने काफी नकदी डाली है और छोटे एवं मझोले उपक्रमों को ऋण गारंटी दी है ताकि लंबी अवधि के लिए पुनर्वित्तीकरण किया जा सके। अब वक्त आ गया है कि समस्या को हल किया जाए। सरकारी बैंकों का मॉडल कारगर नहीं है। अधिकांश बैंक या तो प्रतिस्पर्धा में सक्षम नहीं हैं या उसके लायक नहीं हैं। हमें उनके संचालन में बुनियादी सुधार लाना होगा और उनकी प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में सुधार करना होगा। एनबीएफसी कारोबारी मॉडल ध्वस्त हो चुका है और उसकी जल्द वापसी संभव नहीं। केवल पांच या छह बैंकों की बदौलत हमारी वृद्धि की आकांक्षा पूरी नहीं हो सकती। व्यवस्था को मजबूत और गहराई भरा बनाना होगा। सरकारी बैंक अहम हैं और अर्थव्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया में उन्हें भागीदार बनाना होगा। वे हमेशा सरकार पर बोझ नहीं बने रह सकते।
हां, हमें उनमेंं दोबारा पूंजी डालनी होगी। बहरहाल, इस बार पूंजी के साथ जरूरी सुधारों को भी अंजाम देना होगा। मसलन बैंकों के संचालन से जुड़े मसले। निजीकरण राजनीतिक रूप से भी कठिन हो सकता है लेकिन बिना निजीकरण के भी उनके संचालन में सुधार किया जा सकता है। बाजार को यकीन है कि सरकारी बैंकों में सुधार की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। व्यापक तौर पर देखेंं तो बाजार समूचे वित्तीय तंत्र को लेकर नकारात्मक हैं। सरकार को उन्हें गलत साबित करना होगा।
(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)
