आजकल हर तरफ कृषि संकट का राग अलापा जा रहा है। यहां सवाल यह उठता है कि अब तक लोग इस पर चुप क्यों बैठे थे?
इससे भी अहम यह है कि जब इस संकट का भाव खत्म हो जाएगा, तो क्या होगा? क्या सब लोगों का ध्यान फिर से अपेक्षाकृत ज्यादा प्यारे-दुलारे वित्तीय क्षेत्र की ओर चला जाएगा?
सबसे पहले यह बताना उचित है कि अंग्रेजी संस्करण में छपने वाले इस कॉलम के जरिये 2002 में मैंने आगाह किया था कि भारत जल्द ही खाद्यान्नों का अहम आयातक बनने जा रहा है और इसके मद्देनजर उसे विकसित देशों द्वारा कृषि पर दी जाने वाली सब्सिडी का विरोध बंद कर देना चाहिए, ताकि हमारा आयात सस्ता हो सके। उस वक्त वाणिज्य मंत्री ने इस सलाह को खारिज कर दिया था। हाल में मैंने इसका जिक्र कृषि सचिव और वाणिज्य मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी से किया था।
हालांकि आयात सिक्के का सिर्फ एक पहलू है और यह अपेक्षाकृत कम अहम है। खाद्य मामले का घरेलू पहलू ज्यादा मायने रखता है और हम इस बाबत काफी लापरवाह रहे हैं। लापरवाही न सिर्फ इस पर होने वाली चर्चा से संबंधित है, बल्कि खेती योग्य जमीन को टुकड़ों में बंटने नहीं देने का मामला इससे कहीं ज्यादा अहम है।
इस स्तंभकार ने अपने कॉलम के जरिये कई बार समर सेनी कमिटी की सिफारिशों की ओर इशारा किया है। यह कमिटी भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा बनाई गई थी और इसका मकसद हरित क्रांति को पूर्वी भारत की ओर ले जाने के लिए सलाह देना था। स्वर्गीय सेन ने जमीन के टुकड़ों में बंटने की समस्या की ओर ध्यान आकृष्ट किया था और इसे एक प्रमुख समस्या करार दिया था।
उनके मुताबिक, इसकी वजह भारत में बड़ी संतान को संपत्ति का वारिस नहीं मानने की परंपरा है। उत्तराधिकार की इसी परंपरा की वजह से यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद भी स्थिति खराब नहीं हुई। उत्तराधिकार के इस नियम की वजह से यूरोप में जमीन टुकड़ों में नहीं बंटे और नतीजतन बडे पैमाने पर खेती की परंपरा जारी रही।
इसके मद्देनजर सेन ने भारतीय उत्तराधिकार संबंधी नियमों की फिर से समीक्षा करने की सिफारिश की थी। लेकिन जैसा कि हर मामले में होता है, इस सिफारिश पर भी बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। यहां तक कि इस आइडिया पर एक बार भी चर्चा नहीं की गई। ठीक इसके उलट वित्तीय क्षेत्र में सुधारों पर बहस और चर्चा में कोई कमी नहीं होती है। इस पूरे मामले की तह में जाएं तो जमीन की चकबंदी के मामले में कोई पहल शुरू नहीं होने के लिए अमर्त्य सेन भी कुछ हद तक दोषी हैं।
1962 में उन्होंने एक शोधपत्र पेश किया था, जिसमें कहा गया था कि होल्डिंग का आकार बढ़ने से प्रति एकड़ उत्पादकता में कमी आती है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा था कि इसमें थोड़ी सी लापरवाही भी बरती गई है और खेतों के छोटे-छोटे टुकड़ों का एक इकनॉमिक जोन होना चाहिए।
मार्क्सवादी अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन से सहमत नहीं थे और उन्होंने उनकी अवधारणा को गलत साबित करने के लिए कई प्रमाण भी पेश किए। लेकिन समीर सेन के अलावा कोई भी समस्या की तह में नहीं गया। उन्होंने उत्तराधिकार संबंधी नियम का मसला उठाया, जो लंबे समय में औसत होल्डिंग के आकार का भविष्य तय करेगा।
यह बात समझने के लिए बहुत तीक्ष्ण बुध्दि का होना जरूरी नहीं है कि अगर जमीन का प्लॉट एक तय सीमा से छोटा हो जाता है, तो उत्पादकता पर प्रतिकूल असर पड़ना तय है। तमाम उत्तराधिकार नियम के मद्देनजर दो पीढ़ियों के बाद जमीन के काफी छोटे टुकड़े हो जाने की वजह से इनकी उत्पादकता प्रभावित होने लगती है। इसके मद्देनजर जमीन के मालिक को अपनी आय को बरकरार रखने के लिए अपनी लागत खर्चों में बढ़ोतरी करनी पड़ रही है या फिर वे अन्य उपायों का सहारा ले रहे हैं।
हालांकि नतीजे बताते हैं कि ये उपाय कारगर साबित नहीं हो रहे हैं। उत्पादकता में बिल्कुल भी बढ़ोतरी नहीं हो रही है। हालत यह है कि बढ़ोतरी के बजाय इसमें कमी देखने को मिल रही है। इस वजह से शहरों के आसपास के लोग अपनी जमीन को प्रॉपर्टी डेवलपर्स और फार्म हाउस बनाने वालों को बेच रहे हैं। यह ट्रेंड आगे भी जारी रह सकता है।
अहम बात यह है कि अगर हम अपना उत्तराधिकार संबंधी नियम नहीं बदलते हैं, तो खेतों के आकार के घटने की प्रक्रिया जारी रहेगी। यह भले ही फूल और सब्जियां उगाने के लिए ठीक है, जैसा चीन की सरकार अपने किसानो को करने के लिए (एक्सपोर्ट के मद्देनजर) कह रही है। लेकिन देश की भूख कैसे मिटेगी? खाद्यान्नों के लिए हमें बड़े पैमाने पर आयात पर निर्भर होना पड़ेगा।
खेतों के घटते आकार की वजह से खाद्य सामग्री खरीदने वालों की तादाद में भी बढ़ेगी, क्योंकि जमीन के छोटे टुकड़ों के मालिक किसानों की उपज उनके परिवार के लिए जरूरी खाद्यान्न के लिए पर्याप्त नहीं होगी। यह समस्या पहले से ही शुरू हो चुकी है। इसके अलावा शहरीकरण की प्रक्रिया भी काफी तेजी से जारी है, जिससे खाद्यान्न की समस्या और विकराल हो जाएगी।
आप चाहें किसानों को 100 फीसदी कर्जमाफी दे दें या सब्सिडी को भी इतना ही कर दें, जब तक उत्तराधिकार नियमों में संशोधन कर खेती के आकार की समस्या हल नहीं की जाती, खाद्यान्न की समस्या हमें परेशान करती रहेगी।
बहरहाल यह लेख एक सकारात्मक रुख के साथ खत्म हो, इसके लिए एक सलाह है : सिंचाई योग्य जमीन के लिए 10 एकड़ और गैरसिंचाई योग्य जमीन के लिए 25 एकड़ की सीमा कैसे तय हो? इसे कैसे अंजाम दिया जाए? मुझे इस बारे में कोई आइडिया नहीं है। मुमकिन है कि राज्य छोटे उत्तराधिकारियों को भरपाई नकदी रकम देकर करे? लेकिन राष्ट्रहित में कुछ न कुछ तो कदम उठाना ही पड़ेगा।