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बजट का राजकोषीय रुख और उसके निहितार्थ

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 12, 2022 | 8:05 AM IST

वर्ष 2021-22 के बजट में घाटे के जो आंकड़े दर्शाए गए वे विश्लेषकों के अनुमान से बहुत अधिक थे। शायद ही किसी ने सोचा होगा कि सन 2020-21 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 9.5 फीसदी और 2021-22 में 6.8 फीसदी होगा।
महामारी के दौरान कम ही लोगों ने सोचा होगा कि सरकार वित्तीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम को निकट भविष्य के लिए स्थगित कर देगी। विवेकाधीन राजकोषीय प्रोत्साहन को जीडीपी के 2 फीसदी तक सीमित रखने के निर्णय से यह संकेत निकलता है कि महामारी का प्रभाव कम होते ही सरकार राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की राह पर लौटेगी। अब ऐसा लगता है कि प्रोत्साहन सीमित करने के बजाय सरकार ने इसे दो वर्ष और बढ़ाने का निश्चय किया है।
स्पष्ट है कि सरकार ने राजकोषीय रुझान में इसी के अनुरूप बदलाव का निर्णय लिया। शायद वित्त वर्ष 2021 में राजस्व में कमी के कारण ऐसा किया गया। राजस्व में 4.65 लाख करोड़ रुपये की भारी कमी आई। ऐसे में वित्त वर्ष 2022 में घाटे को 6.8 फीसदी से कम रखने के लिए करों में इजाफा और व्यय में कटौती करनी होती। परंतु ऐसा करना आर्थिक सुधार को प्रभावित कर सकता था।
बेहतर है कि सन 2025-26 तक एफआरबीएम अधिनियम को भुलाकर उच्च राजकोषीय घाटे के साथ रहा जाए। वित्त मंत्री के बजट भाषण तथा अन्य अधिकारियों के बयानों से लगता है कि सरकार राजकोषीय रुख बदलने के लिए तीन दलीलें दे रही है।
पहला, व्यय में बदलाव आया है और पूंजीगत व्यय बढ़ा है। वित्त वर्ष 2021 के संशोधित अनुमान में पूंजीगत व्यय वित्त वर्ष 2020 के वास्तविक की तुलना में 31 प्रतिशत बढ़ा। सन 2022 के बजट अनुमान में यह 2021 के संशोधित अनुमान की तुलना में 26 प्रतिशत अधिक रहा।
दोनों अनुमानों को लेकर शंकित होने की वजह हैं। आर्थिक मामलों के पूर्व सचिव सुभाष गर्ग सन 2021 में पूंजीगत व्यय में हुए इजाफे को भ्रम करार देते हैं। 79,398 करोड़ रुपये का एक विशेष ऋण रेलवे को नकद सहायता देने से संबंधित है। यह राजस्व व्यय है। 12,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि राज्यों के लिए ऋण है। यदि इन दोनों को हटा दिया जाए तो वित्त वर्ष 2020-21 का पूंजीगत व्यय 3.6 फीसदी बढ़ जाता है।
वित्त वर्ष 2022 की बात करें तो पूंजीगत व्यय में इजाफा कई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के चलते हुआ है। सरकारी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को पूरा होने में वक्त लगता है इसलिए बजट में आवंटित राशि को उसी वर्ष व्यय करना मुश्किल होता है।
राजकोषीय रुख में बदलाव की दूसरी दलील यह है कि उच्च पूंजीगत व्यय से हासिल वृद्धि राजकोषीय घाटे का ध्यान रखेगी। ताजा आर्थिक समीक्षा का एक हिस्सा इसी विषय पर है। इसमें कहा गया है कि भारत जैसे उच्च वृद्धि वाले देशों में प्राय: सार्वजनिक ऋण के स्थायित्व से जुड़ी आम दलीलें काम नहीं आतीं। खासतौर पर आर्थिक मंदी के समय सरकार के लिए उधार लेकर व्यय करना समझ आता है क्योंकि यह वृद्धि यह सुनिश्चित करेगी कि कर्ज नियंत्रण से बाहर न जाए। हमें निजी निवेश को लेकर चिंतित होने की भी जरूरत नहीं। खासतौर पर यदि सार्वजनिक निवेश बुनियादी ढांचा जैसे क्षेत्रों की ओर निर्देशित हो।
ऐसा नहीं है कि एक के बाद एक वित्त आयोग इससे अनजान थे। बहरहाल, वित्त आयोगों ने जोर दिया कि राजकोषीय घाटे और सार्वजनिक ऋण के रूढि़वादी लक्ष्यों का पालन किया जाए। उनके पास ऐसा करने की वजह थी। केंद्र और राज्य सरकारों के पास तमाम तरह की देनदारी होती है। व्यापक बाहरी झटके, तेल संबंधी झटके, वैश्विक वित्तीय संकट और अब महामारी लंबी अवधि में वृद्धि को प्रभावित कर सकती है। ऐसे में राजकोषीय मोर्चे पर बचाव समझदारी भरा होगा। सरकारी ऋण के मामले में रेटिंग एजेंसी भी उन्नत और उभरते बाजारों के साथ अलग व्यवहार करती हैं। आर्थिक समीक्षा मानती है कि यह उचित नहीं।
यदि देश में जीडीपी की वृद्धि 7 फीसदी है तो ऋण का स्थायित्व कोई मुद्दा नहीं रह जाएगा। आर्थिक समीक्षा में कहा गया है कि यदि अगले 10 वर्ष तक हमारी वास्तविक वृद्धि दर 4 फीसदी भी रही तो भी ऋण स्थायित्व की समस्या नहीं आएगी। ऐसे में सवाल उठ सकता है कि क्या हमें वाकई एफआरबीएम अधिनियम की आवश्यकता है?
तीसरी दलील के मुताबिक पुरानी राजकोषीय सीमा सुधारों वाली नई व्यवस्था में वैध नहीं है। बढ़ते कर/जीडीपी अनुपात को राजकोषीय स्थायित्व के लिए अहम माना जाता रहा है। पहले बजट का इस्तेमाल अनुपात में बढ़त दर्शाने के लिए किया जाता था लेकिन ताजा बजट में ऐसा कोई अनुमान नहीं है। वित्त वर्ष 2019 में केंद्र का कर/जीडीपी अनुपात 11.9 फीसदी था। वित्त वर्ष 2020 में यह घटकर 10.6 फीसदी रह गया और वित्त वर्ष 2021 और 2022 में उसके 9.8 और 9.9 फीसदी रहने की बात कही गई।
कर/जीडीपी अनुपात मेंं गिरावट के साथ सरकार को गैर कर राजस्व और वित्तीय व्यय पर ध्यान देना होगा। सरकार निजीकरण करेगी न कि विनिवेश। चार को छोड़कर शेष रणनीतिक क्षेत्रों में सरकारी उपक्रमों की बिक्री की जाएगी। आने वाले वर्ष में सरकार दो सरकारी बैंकों और एक बीमा कंपनी का भी निजीकरण करेगी। निजीकरण से जुटाए गए संशाधनों का इस्तेमाल बुनियादी परिसंपत्ति तैयार करने में किया जाएगा। इन परिसंपत्तियों को निजी पक्षों को बेचकर मुद्रीकरण किया जाएगा।
निजीकरण का लक्ष्य सरकार के लिए राजस्व जुटाना और परिसंपत्तियों को किफायती बनाना है। बजट घाटे की पूर्ति के लिए यदि आनन फानन मेंं परिसंपत्तियों की बिक्री की जाए तो दीर्घावधि में सरकारी वित्त का प्रभावित होना तय है। यह क्षमता को भी प्रभावित करता है। समुचित डिजाइन और क्रियान्वयन के अभाव में निजीकरण वांछित परिणाम नहीं दे पाता।
इसके अलावा सवाल यह भी है कि क्या भारत जैसे देश में बड़े पैमाने पर निजीकरण व्यवहार्य है। यदि साल दर साल हम विनिवेश लक्ष्य हासिल करने में नाकाम रहे तो व्यापक निजीकरण कैसे व्यावहारिक साबित होगा? सरकारी उपक्रमों की बिक्री को लेकर भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने वर्षों पहले नकारात्मक टिप्पणियां की थीं। सन 2002 मेंं ऐसी एक बिक्री की सीबीआई जांच हुई और तत्कालीन विनिवेश मंत्री अरुण शौरी के खिलाफ आरोप दायर करने को कहा गया। राजनीतिक दल और संगठन इन कदमों का विरोध करेंगे। बैंक संगठनों ने पहले ही मार्च में दो दिवसीय हड़ताल की घोषणा की है।
परिसंपत्तियों की बिक्री के जरिये उच्च सरकारी पूंजीगत व्यय की वित्त व्यवस्था को सीमित सफलता मिलने की संभावना है। हमें जल्दी ही कर/जीडीपी अनुपात सुधारने की राह तलाशनी होगी। हालांकि इस वर्ष की बजट कवायद से सुखद नतीजे मिल सकते हैं। सरकार और बाजार विश्लेषक दोनों यह मान रहे हैं कि भारत बिना ऋण स्थायित्व को बेपटरी किए अथवा रेटिंग में कमी के घाटे के लक्ष्यों को फिलहाल शिथिल कर सकता है।

First Published : February 19, 2021 | 11:30 PM IST