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‘धुरंधर’ से बॉलीवुड में नई पीढ़ी की सॉफ्ट पावर का आगमन

पठान फिल्म ने रूढ़िवादियों और उदारवादियों, दोनों को छिपने की गुंजाइश दी थी लेकिन धुरंधर फिल्म ऐसा कोई मौका नहीं देती। आदित्य धर ने पाखंड को उजागर कर उस पर वार भी किया है

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शेखर गुप्ता   
Last Updated- December 21, 2025 | 9:47 PM IST

यह मान लेना सही नहीं होगा कि इस आलेख को पढ़ने वाले हर व्यक्ति ने आदित्य धर की फिल्म धुरंधर और सिद्धार्थ आनंद की 2023 में आई फिल्म पठान, दोनों को देखा होगा। दूसरी फिल्म शायद हिंदी की अभी तक की सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म है। पहली फिल्म भी तेजी से उस दिशा में बढ़ रही है। पहले ही यह घोषणा भी कर दी गई है कि 19 मार्च 2026 को इस फिल्म का दूसरा हिस्सा यानी सीक्वेल भी रिलीज किया जाएगा। मेरा मानना है कि हर कोई फिल्में नहीं देखता, फिर भी वे उनके इर्द-गिर्द होने वाली चर्चा, बहस और विवादों से परिचित हो सकते हैं।

पठान से जुड़ा विवाद दीपिका पदुकोणे तक सीमित था जिनकी फिल्म में पहली झलक ‘बेशरम रंग’ गाने में भगवा बिकिनी में दिखी थी। लोग बिकिनी के रंग और गीत के बोलों को लेकर नाराज हुए और उस दृश्य को फिल्म से हटाने की मांग की। या फिर शायद उन्हें बिकिनी से दिक्कत नहीं थी अगर केवल उसका रंग बदल दिया जाता। वह विरोध बहुत जल्द ठंडा पड़ गया।

रिलीज के करीब दो सप्ताह बाद भी धुरंधर देश भर के सिनेमाघरों में खूब चल रही है। कई लोग उसे दोबारा देख रहे हैं। परंतु अब यह एक नए विवाद में फंस गई है और केवल सोशल मीडिया पर नहीं बल्कि मुख्य धारा के मीडिया और अखबारों के विचार पन्नों पर भी इसे सरकार प्रायोजित, भाजपा का प्रोपगंडा, युद्धोन्माद भड़काने वाली, इस्लाम का डर दिखाने वाली आदि ठहराया गया।

मैं पूरी तरह उन दो फिल्मों पर ध्यान दे रहा हूं जो राजनीति, राष्ट्रवाद और धर्म के बीच झूलती हैं। शीघ्रता से तैयार एक सूची से हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि क्यों एक फिल्म को अधिकतर एक साफ सुथरी, मनोरंजक फिल्म माना गया जहां वीएफएक्स स्टंट और अच्छे बुरे लोग, जेट पैक पर आसमान में एक दूसरे का पीछा कर रहे थे। कोई प्रश्न करने की आवश्यकता नहीं है। या फिर जैसा कि हम होली के अवसर पर कहते हैं, बुरा न मानो- यह बस एक फिल्म है।
राजनीति, राष्ट्रवाद और धर्म जैसे तीन विभाजनकारी मुद्दों से पठान ने किनारा कर लिया। बहरहाल पहले बात करते हैं राजनीति की:

1. राजनीति की बात करें तो फिल्म भारत-पाकिस्तान की थीम पर केंद्रित जरूर थी लेकिन इसमें राजनीति नहीं थी। यह ऐसी फिल्म थी जिसमें दो प्रतिद्वंद्वी जासूसी एजेंसियों के लोग मिलकर दुनिया को या कहें दुनिया की आबादी के छठे हिस्से यानी भारत को बचा रहे थे। साफ कहें तो इस फिल्म में भारत बनाम पाकिस्तान जैसा कुछ नहीं था।

2. राष्ट्रवाद को पूरी तरह बाहर रखा गया था। इतना ही नहीं इस फिल्म में शाहरुख खान के किरदार की राष्ट्रीयता और उसके धर्म को भी अस्पष्ट रखा गया था। फिल्म में वह अमेरिकी बमबारी के बीच अफगानी मूल के मां-बाप द्वारा पाले-पोसे गए थे। ध्यान रहे इसमें शत्रु अमेरिकी थे और बाकी सभी उनकी प्रताड़ना सहन करने वाले। भारत के सामने एक आतंकी खतरा था जो उसकी बड़ी आबादी को खत्म कर सकता था। यह खतरा जिस बग से था वह इतना खतरनाक था कि उसे केवल रूस में ही सुरक्षित रखा जा सकता था। ऐसे में एक भारतीय और एक पाकिस्तानी जासूस ने इंसानियत को बचाने के लिए हाथ मिलाया। भारत के लिए खतरा न तो पाकिस्तान से था और न ही किसी काल्पनिक शत्रु से। यह खतरा एक गद्दार भारतीय से था। एक एजेंट जो रास्ता भटक गया था।

3. फिल्म में धर्म को लेकर इस तरह का नकार का भाव था कि हमें आज तक नहीं पता कि पठान कौन था या उसका असली नाम क्या था? पूरी फिल्म में कहीं भी किसी ने किसी धर्म के बारे में कठोर बात नहीं बोली। आतंकवादियों का इरादा भी व्यक्तिगत बदला था। धर्म, राष्ट्रवाद या विचारधारा की कोई भावना नहीं।
पठान में इन तीनों का मिश्रण था और फिल्म ने उदारवादियों और राष्ट्रवादियों, दोनों को छिपने की जगह दी। दोनों ही इसे एक अच्छी लेकिन अगंभीर मनोरंजक वाली पैसा वसूल फिल्म बताकर खारिज कर सकते थे। धुरंधर इसके एकदम विपरीत है।

आइए उपरोक्त तीन बिंदुओं पर ही धुरंधर की पड़ताल करते हैं। राजनीति के मामले में इसकी थीम बताती है कि 2014 के पहले और उसके बाद भारत ने आतंकवाद को लेकर किस तरह प्रतिक्रिया दी। जाहिर है आतंकवाद के पीछे हमेशा पाकिस्तान का हाथ होता है। वास्तव में सान्याल (पढ़ें अजीत डोभाल) का किरदार कहता है कि दुनिया में कहीं भी आतंक की कोई भी घटना होती है, उसका स्रोत पाकिस्तान होता है। धुरंधर की राजनीतिक थीम एकदम स्पष्ट है। यह मोदी-डोभाल युग का उत्सव मनाती हुई फिल्म है।

धुरंधर में राष्ट्रवाद की भावना प्रबल है। यह इतनी जबरदस्त है कि सजायाफ्ता कैदी जो आजीवन कारावास की सजा काट रहे या फांसी की सजा पाए हुए कैदी भी प्रशिक्षण लेने, घुसपैठ करने और पाकिस्तान में आईएसआई के साथ काम करने वाले गिरोह में काम करने को तैयार हो जाते हैं। पाकिस्तान शत्रु है, भारत पीड़ित है और यही स्थायी भाव है। फर्क बस यह है कि मोदी का भारत अब पीड़ित की भूमिका निभाने को तैयार नहीं है। यानी रगों में राष्ट्रवाद बह रहा है।

तीसरा धर्म। इसमें कोई शुबहा ही नहीं कि फिल्म के सभी आक्रांता मुस्लिम है जो अपनी आस्था के नाम पर और उसी बुनियाद पर बने देश के नाम पर काम कर रहे हैं। वे पीड़ितों को कायर कहते हैं जो हिंदू हैं और मोदी के पहले के दौर में डरे-सहमे से रहते थे। फिल्म में नेपाल से लगी सीमा वाले राज्य में नकली नोट चलाने वाले माफिया एक खास समुदाय के हैं और उनके विरुद्ध कोई भी कार्रवाई राजनीतिक हस्तक्षेप को दावत देती है। ऐसे में एक मजबूत नेता का इंतजार है। मेरा मानना है कि यहां योगी आदित्यनाथ का उल्लेख है।

यही बुनियादी अंतर धुरंधर को पठान की तुलना में अधिक विवादित और ध्रुवीकरण वाली फिल्म बनाते हैं। राष्ट्रवादी इसका उत्सव मना सकते हैं और उदारवादी पूछ सकते हैं कि आखिर हमारे सिनेमा को हो क्या गया है? धर ने पाखंड को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया है। मैं यह जानने को उत्सुक हूं कि क्या आईएसआई धुरंधर को कुछ निराशा के साथ नहीं देखेगी। ऐसा संकेत कि उसे हथियारों और विस्फोटकों के लिए ल्यारी के अंडरवर्ल्ड की जरूरत है, उस एजेंसी का अपमान है जो दुनिया की सबसे बेहतर, विध्वंसक और मजबूत जासूसी एजेंसियों में से एक है। उसके पास तो इतने हथियार मौजूद हैं कि वह किसी भी महीने में 26/11 जैसे 100 हमलों को अंजाम देने में सक्षम है। मैं आपको बॉम्बे (उस समय यही नाम था) में 1993 में हुए बम धमाकों की ओर वापस ले चलता हूं।

आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई करने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एमएन सिंह मुझे याद दिलाते हैं कि बम धमाकों के बाद की गई छापेमारी में 71 एके-47 बरामद हुई थीं। ये उन हथियारों के अलावा थीं जिन्हें संजय दत्त के ‘दोस्त’ केरसी अदाजानिया ने अपनी फाउंड्री में नष्ट कर दिया था। इसके अलावा 3.5 टन आरडीएक्स मिला। यह इतना अधिक था कि मुंबई की हर ऊंची इमारत को ध्वस्त कर सकता था। इनके अलावा करीब 500 ग्रेनेड मिले। उस समय पूरी महाराष्ट्र पुलिस के पास एक भी एक-47 नहीं थी। पश्चिमी तट पर और बड़ी खेप पकड़ी गई थी। अगर आईएसआई 1993 में इतना सब भेज सकती थी तो वह 26/11 के हमलों के लिए कराची अंडरवर्ल्ड पर निर्भर नहीं हो सकती। उन्होंने जिस अंडरवर्ल्ड पर भरोसा किया वह भारत में मौजूद था।

यही धुरंधर की राजनीति का सबसे दिलचस्प पहलू है। आईसी-814 अपहरण, संसद पर हमला और 26/11 जैसी साजिशें मुरीदके और बहावलपुर की मस्जिदों और मदरसों में रची गई थीं न कि ल्यारी के किसी गैंगस्टर के अड्डे पर। किसी बलोच नेता के इसमें शामिल होने का तो प्रश्न ही नहीं है। क्या आईएसआई कभी किसी बलोच सरदार पर भरोसा करेगी?

अगर धर मुस्लिम विरोधी भावना को भड़काना चाहते तो वह यह कहानी जैश या लश्कर-ए-तैयबा के मुख्यालय को केंद्र में रखकर गढ़ सकते थे। वह बात तथ्यात्मक भी होती। बहरहाल धुरंधर का रचनात्मक योगदान इस बात में निहित है कि उसने नाम नहीं लेने के पाखंड को उजागर कर दिया है। भारतीय सिनेमा आगे इससे सबक लेगा। क्या यह प्रोपगंडा है? जेम्स बॉन्ड, जॉन ली कैरे या टॉम क्लैंसी की हर फिल्म भी ऐसी ही थी। धुरंधर ने पाकिस्तान में भी उतनी ही चर्चा हासिल की है जितनी कि भारत में। अपने सीधे, हिंसक और अक्खड़ अंदाज में धुरंधर भारत की सॉफ्ट पावर की नई पीढ़ी के उदय को दर्शाती है।

First Published : December 21, 2025 | 9:47 PM IST