गत 20 सितंबर को समाप्त सप्ताह में बेरोजगारी दर गिरकर 6.4 फीसदी पर आ गई। यह लंबे समय में दर्ज सबसे कम बेरोजगारी दर है। लेकिन यह खुशियां मनाने की वजह नहीं है।
सितंबर महीने के दूसरे साप्ताहिक श्रम बाजार आंकड़े अगस्त की तुलना में हालात बिगडऩे के ही संकेत देते हैं। इसी तरह रिकवरी के बाद के महीनों की भी तुलना में सितंबर में हालात बिगड़े हैं। खुद अगस्त में भी लॉकडाउन से बुरी तरह प्रभावित अप्रैल के बाद से शुरू हुई रिकवरी प्रक्रिया में ठहराव देखा गया था। अगस्त की ठहराव वाली स्थिति से भी गिरने का मतलब है कि कुछ समय पहले तक नजर आ रही रिकवरी प्रक्रिया से शायद स्थिति फिसल रही है। श्रम भागीदारी दर और रोजगार दर में दर्ज रुझानों से यही नजर आ रहा है।
सितंबर के पहले तीन हफ्तों में औसत श्रम भागीदारी दर (एलपीआर) 40.7 फीसदी रही है। 20 सितंबर को 30 दिनों का गतिमान माध्य 40.3 फीसदी था। अगस्त में दर्ज 40.96 फीसदी गतिमान माध्य की तुलना में एलपीआर का यह आंकड़ा खराब है। एलपीआर शायद एक महीना पहले 16 अगस्त को समाप्त सप्ताह में शीर्ष पर रहा था। उसके बाद से यह निचले स्तर की ही तरफ गिरता गया है। जून से मध्य अगस्त तक औसत एलपीआर करीब 40.9 फीसदी था। यह औसत मध्य अगस्त से मध्य सितंबर की अवधि में गिरकर 40.45 फीसदी पर आ गया है। ह्रासोन्मुख श्रम भागीदारी दर दर्शाती है कि कामकाजी उम्र वाली आबादी का एक छोटा सा हिस्सा ही रोजगार में लगा है या बेरोजगारी की हालत में भी रोजगार की तलाश में लगा है। रोजगार में लगे या रोजगार की तलाश में शिद्दत से लगे हुए बेरोजगार लोग मिलकर श्रम-शक्ति का निर्माण करते हैं। कामकाजी उम्र वाली कुल आबादी की तुलना में एक संकुचित होती श्रम-शक्ति श्रम बाजार की गिरती हालत को बयां करती है। यह संकेत है कि लोग हालात से इतने मायूस हो चुके हैं कि वे रोजगार पाने की होड़ में भी शामिल नहीं हो रहे हैं और घर पर बैठना पसंद कर रहे हैं।
श्रम भागीदारी दर में गिरावट के अलावा हमें रोजगार दर में भी गिरावट देखने को मिल रही है। यह कामकाजी उम्र वाली आबादी में रोजगार में लगे लोगों का अनुपात है। वित्त वर्ष 2019-20 में रोजगार दर 39-40 फीसदी के बीच घूम रही थी। इस वित्त वर्ष में औसत रोजगार 39.4 फीसदी रही। जून 2020 में यह घटकर 27.2 फीसदी पर आ गई थी लेकिन जुलाई में हालात सुधरकर 37.6 फीसदी पर जा पहुंचे। फिर अगस्त में यह मामूली गिरावट के साथ 37.5 फीसदी रही।
सितंबर में देखा जा रहा रुझान काफी हद तक मिश्रित है। इस महीने के पहले तीन हफ्तों की औसत रोजगार दर 37.9 फीसदी के साथ हाल के महीनों में काफी बेहतर है। लेकिन आर्थिक बहाली के नकारात्मक रहने से ढलान भी नकारात्मक ही है। अप्रैल के पतन के बाद से रोजगार दर 21 जून को समाप्त सप्ताह में 38.4 फीसदी के उच्चतम स्तर पर रही थी। उसके बाद से यह एक टेढ़ी-मेढ़ी ढलान पर ही रही है। रोजगार दर एक-दो हफ्ते तक गिरावट पर रहने के बाद थोड़ी सुधरती है और फिर उसमें फिसलन आ जाती है। लेकिन हरेक सुधार पिछले सुधार से कम रहा है जबकि गिरावट कहीं अधिक तीव्र रही है।
21 जून के बाद से रोजगार दर में बना यह नकारात्मक रुझान घबराहट का सबब है। इस समय 37.5 फीसदी की रोजगार दर 2019-20 के औसत से करीब 2 फीसदी कम है। और नकारात्मक रुझान से यह भी पता चलता है कि अभी इसमें आगे चलकर और गिरावट आ सकती है। भारत की रोजगार दर में वर्ष 2016-17 से ही सालाना एक फीसदी से थोड़ी अधिक गिरावट आती रही है। ऐसे में इस साल अभी तक 2 फीसदी की गिरावट रहने और आगे इसमें और गिरावट की आशंका को देखते हुए यही लगता है कि लॉकडाउन के असर से उबरने की प्रक्रिया अभी अधूरी है और भारत को इस आघात से उबरने के दौरान हुए फायदे गंवाने पड़ सकते हैं।
रोजगार दर में आगे चलकर और गिरावट आने के दो प्रमुख कारण हो सकते हैं। पहला, सरकार का अपना झुकाव और दूसरा, निजी क्षेत्र में उत्साह की कमी। सरकार आज के असामान्य समय में भी राजकोषीय समझदारी कायम रखने को लेकर आग्रही लगती है। आक्रामक तरीके से खर्च करने या खर्च की मंशा तक दिखाने में सरकार के झिझकने से निजी क्षेत्र को मौजूदा कारोबारी माहौल निवेश या विस्तार के लिहाज से मुफीद नहीं लग रहा है। ऐसी स्थिति में न तो क्षमता बढ़ेगी और न ही रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे। लॉकडाउन के चलते मांग में आई तीव्र कमी के बीच निजी कंपनियां खर्च के बजट में कटौती के हरसंभव तरीके आजमाएंगी। इसका असर केवल निजी फर्मों में कार्यरत लोगों पर ही नहीं पड़ेगा बल्कि इन फर्मों को सेवाएं देने वाले कारोबारों में भी रोजगार परिदृश्य इससे प्रभावित होगा। मान लीजिए कि एक बड़ी कंपनी यात्रा मद में व्यय में बड़ी कटौती करने का फैसला करती है तो न केवल इसका यात्रा इंतजाम करने वाली कंपनी के कर्मचारियों पर इसकी सीधी मार पड़ेगी बल्कि यात्रा संबंधी सेवाएं देने वाली कंपनियों की नौकरियां भी प्रभावित होंगी। इस तरह निजी कंपनियों के कामकाज में संकुचन का असर उनके वेतन बिल या कर्मचारियों की संख्या में आई गिरावट से कहीं अधिक होता है। ऐसे में लॉकडाउन की पृष्ठभूमि में कंपनियों से यह अपेक्षा करना कि वे छंटनी न करें, थोड़ा अधिक ही सरल था।
हालांकि तमाम इलाकों से लॉकडाउन को कई तरह से हटाया जा चुका है लेकिन अर्थव्यवस्था अब भी लॉकडाउन से पहले की तुलना में कमतर स्थिति में ही है। रोजगार संबंधी हालिया आंकड़े बताते हैं कि सरकार एक सोची-समझी रिकवरी योजना न लेकर आई तो भारत लॉकडाउन से उबरने के रास्ते से फिसल भी सकता है।
श्रम भागीदारी की गिरती दर और रोजगार दर में ह्रासोन्मुख रुझान के बीच पिछले कुछ हफ्तों में बेरोजगारी दर में आई यह गिरावट निरर्थक एवं भ्रामक ही है।
(लेखक सीएमआईई के प्रबंध निदेशक हैं)