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पिछले दिनों उस घटना को दो दशक पूरे हो गए जब अमेरिकी टैंक बगदाद में घुसे थे और इराक की राजधानी को ‘आजाद’ कराया था। उससे एक दिन पहले सद्दाम हुसैन ने राष्ट्रपति भवन खाली कर दिया था और वह किसी भूमिगत स्थान पर छिप गए थे।
यह जगह उनके वफादार अल्बू नासिर के कबीले के लोगों ने उनके गृह नगर तिकरित में बनाई थी। वह दिसंबर 2003 में अमेरिकी सैनिकों द्वारा पकड़े जाने तक वहीं छिपे रहे। पकड़े जाने के तीन वर्ष बाद उन्हें फांसी पर लटका दिया गया।
जब अमेरिकी सैनिक बगदाद में फैल गए तो उनके साथ ही पत्रकार भी चारों ओर नजर आने लगे। दुनिया भर में एक तस्वीर प्रसारित हुई जहां अमेरिकी सैन्य वाहन की मदद से बगदाद की एक उन्मादी भीड़ फिरदौस चौराहे पर लगी सद्दाम हुसैन की कांस्य प्रतिमा को गिरा रही थी। हम पत्रकारों के एक हुजूम ने पैराडाइज होटल और शेरटन इश्तार होटल की खिड़कियों से यह नजारा कैमरों मे कैद किया।
चौदह अप्रैल को दोपहर के भोजन के समय मैं भी शेरटन होटल की छत पर पत्रकारों की उस भीड़ में शामिल हो गया जिन्हें ‘आउटर ब्रॉडकास्ट’ करना था। यह टेलीविजन समाचार चैनलों का एक अहम हिस्सा है जहां समाचार प्रस्तोता घटनास्थल पर मौजूद संवाददाताओं से बातचीत करते हैं और दिन की अहम घटनाओं के बारे में जानते हैं।
वहां दुनिया के शीर्ष युद्ध संवाददाताओं में से करीब 50-60 मौजूद थे। मैंने अपनी दाहिनी ओर रॉबर्ट फिस्क को अपना ब्रॉडकास्ट शुरू करते हुए देखा जो कह रहे थे, ‘बगदाद में ऐसी भावना है जैसे वहां पुनर्जन्म हुआ हो, एक युग का अंत हुआ। सद्दाम जा चुके हैं और अब अमेरिका यहां का नया सम्राट है।’
परंतु मेरा ध्यान तुरंत अपने कैमरापर्सन की ओर गया। फिस्क वहां से एक रूटीन समाचार प्रसारण कर रहे थे लेकिन मेरा काम अधिक महत्त्वपूर्ण था। अमेरिकी सेना द्वारा बगदाद पर कब्जा करने के बाद यह इराक से एनडीटीवी के लिए पहला प्रसारण था।
मुझे फिस्क की पंक्ति का अनुसरण करना लुभावना लग रहा था लेकिन मुझे सड़कों पर आम लोगों से बातचीत में यह अहसास हो चुका था कि आम इराकी अमेरिका के कब्जे के खिलाफ नाराज हैं और वे विरोध करेंगे। मैंने उसी हिसाब से रिपोर्टिंग की।
भारत में भी मैंने इराक के घटनाक्रम पर नजर रखी और पाया कि अमेरिका द्वारा इराक की राजधानी में कानून-व्यवस्था और बुनियादी ढांचा नहीं स्थापित कर पाने के कारण वहां के लोग नाराज हो रहे हैं। यह गुस्सा बढ़ा और एक धार्मिक पंथीय उपद्रव ने इराक के बहुसंख्यक शिया मुस्लिमों को सुन्नी अल्पसंख्यकों के खिलाफ कर दिया।
दिल्ली में मुझे पता चला कि अमेरिका ने भारत से करीब 18,000 सैनिकों की एक टुकड़ी भेजने का आग्रह किया है जो उत्तरी इराक के कुर्द बहुल इलाकों में कानून-व्यवस्था संभाल सके। यह खबर समाचार बुलेटिनों में छाई रही लेकिन सरकार ने खामोशी बरती। परंतु एनडीटीवी के प्रमुख प्रणव रॉय को खबर का अवसर भांपते वक्त नहीं लगा।
डॉ. रॉय ने प्रस्ताव रखा कि मैं और एक कैमरापर्सन उत्तरी इराक खासकर मोसुल और एरबिल शहरों में जाएं। हमसे कहा गया कि कम से कम एक हजार स्थानीय लोगों से बात करके उनसे पूछें कि क्या उत्तरी इलाके में भारतीय शांति रक्षक सैनिकों का स्वागत होगा या नहीं। 19 अगस्त, 2003 को हम बगदाद पहुंचे और बाद में हमने मोसुल में अपना सर्वेक्षण आरंभ कर दिया।
वह सर्वेक्षण बहुत घटनाप्रधान रहा और कुर्दिश मिलिशिया पेशमार्गा के हाथों हमारी गिरफ्तारी और रिहाई भी हुई। दरअसल उन्हें नागरिकों के मतों के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी। बहरहाल हमने जिन इराकियों से बात की उन्होंने भारतीय शांतिरक्षकों की मौजूदगी की बात को नकार दिया।
बल्कि वे संयुक्त राष्ट्र के मिशन के पक्ष में थे जिसमें अलग-अलग देशों के कर्मी हों। जब एनडीटीवी ने यह खबर चलाई तो प्रधानमंत्री कार्यालय ने इसे देखा और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
भारत-अमेरिका रिश्तों में उसी समय गर्माहट आनी शुरू हुई थी लेकिन हमारी घरेलू राजनीति ऐसी नहीं थी कि एकजुटता दिखाने के नाम पर अपने सैनिकों की जान गंवाने को तैयार हो। वाजपेयी इस बात को समझते थे कि इससे जहां अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते सुधरेंगे, वहीं देश के मतदाता इसे नकार देंगे।
इसके बावजूद दोनों देशों के रिश्ते को फलना-फूलना था। दिसंबर 2004 में सूनामी के समय भारतीय नौसेना ने जो नेतृत्वकारी भूमिका निभाई थी, 2005 का रक्षा फ्रेमवर्क समझौता और भारत-अमेरिका नाभिकीय समझौते ने दोनों देशों के रिश्ते को ऐसी राह पर डाल दिया जहां निरंतर विकास हुआ और 2016 में भारत उसका प्रमुख रक्षा साझेदार बन गया। उसके तत्काल बाद दोनों देशों ने ‘फाउंडेशनल डिफेंस समझौतों’ पर हस्ताक्षर किए।
बहरहाल, उन शुरुआती दिनों में भी भारत-अमेरिका के रिश्तों के पुष्पित पल्लवित होने के लिए पर्याप्त रणनीतिक तत्त्व मौजूद थे। दोनों देशों के नेताओं के बीच बहुत अच्छे रिश्ते थे। दोनों देशों की अफसरशाही रणनीतिक दृष्टि से आदान-प्रदान के लिए तैयार थी। दोनों देशों के साझा सैन्य लक्ष्यों और रक्षा उपकरणों की आवश्यकता ने भी उन्हें एक साथ लाने में मदद की।
आज यह सब नजर नहीं आता। दोनों पक्षों में साझा समझ है कि अमेरिका को चीन को नियंत्रित रखने के लिए भारत की आवश्यकता है। यह समझ भी है कि भारत अमेरिकी हथियार और रक्षा उपकरण खरीदेगा और दोनों देश साझा शत्रुओं से निपटने के लिए संयुक्त अभ्यास करेंगे। परंतु इसके अलावा इस रिश्ते को आगे ले जाने वाली कोई खास बात नहीं नजर आती।
अमेरिका के राष्ट्रपति और भारत के प्रधानमंत्री के बीच रिश्तों में वह गर्मजोशी नहीं दिखती जो कभी नजर आती थी। हकीकत यह है कि रिपब्लिकन पार्टी का भारत के प्रति झुकाव डेमोक्रेटों से कहीं अधिक था। कह सकते हैं कि डेमोक्रेटिक राजनेता शायद नरेंद्र मोदी के ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’ के नारे को नहीं भूले हैं।
वे भारत द्वारा मानवाधिकार हनन के मामलों को लेकर भी बहुत मुखर हैं। इन मामलों में से कई सच भी हैं। इस बीच भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिका के मानवाधिकार संबंधी प्रदर्शन की आलोचना करके अनावश्यक राजनीतिक लड़ाई खड़ी कर ली। जाहिर है उन्हें इस बारे में शीर्ष से संदेश मिल रहा होगा।
रक्षा क्षेत्र में भी सहयोग धीरे-धीरे कम हो रहा है। ऐसी कोई बड़ी खरीद नहीं हो रही है जो रिश्तों को आगे ले जाए। भारत ने 114 लड़ाकू विमान खरीदने की जो बात कही है, इस सौदे में भी अमेरिका शामिल नहीं है। वहीं जीई के एफ-414 लड़ाकू विमान इंजन के प्रस्तावित विनिर्माण की दिशा में भी ठोस प्रगति नहीं हो रही है।
भारत में निर्माण के लिए जीई को एक विनिर्माण लाइसेंस समझौते की आवश्यकता है जिसके लिए जीई को अमेरिका के विदेश, वाणिज्य और रक्षा विभागों से मंजूरी हासिल करनी होगी। फरवरी में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल की अमेरिका यात्रा के दौरा इसे पूरा करने पर जोर दिया गया था लेकिन अभी भी यह मामला अधर में लटका है।