सरकार ने एक नई योजना की घोषणा की है जो निर्यातकों का कर बोझ कम करने पर केंद्रित है। इसे रेमिसन ऑफ ड्यूटीज ऐंड टैक्सेस ऑन एक्सपोर्टेड प्रॉडक्ट्स अथवा आरओडीटीईपी का नाम दिया गया है। वस्त्र क्षेत्र पर केंद्रित रिबेट ऑफ स्टेट ऐंड सेंट्रल लेवीज ऐंड टैक्सेस (आरओएससीटीएल) योजना के साथ यह निर्यात बाजार में हस्तक्षेप करने और भारतीय निर्यात की प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ाने का ताजा प्रयास है। ये योजनाएं पिछले प्रयासों की तुलना में बेहतर ढंग से गठित हैं लेकिन इन्हें अवधारणा और क्रियान्वयन के स्तर पर नाकामी हासिल हो सकती है। निर्यात प्रतिस्पर्धा के लिए देश में नियामकीय और कारोबारी माहौल में सुधार करना चाहिए तथा साथ ही कर व्यवस्था को भी सरल और एकीकृत बनाया जाना चाहिए। कर और छूट व्यवस्था की जटिलता में इजाफा करके इस दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
इन योजनाओं का लक्ष्य है निर्यातकों को स्थानीय तथा अन्य करों और शुल्कों में छूट देना जो उन्हें चुकानी पड़ती हैं तथा जो वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में शामिल नहीं हैं। निर्यातक पहले ही अपने जीएसटी भुगतान पर रिफंड ले सकते हैं। आरओडीटीईपी तथा संबंधित योजनाओं के अधीन हर क्षेत्र से मूल्य का एक तयशुदा हिस्सा साझा किया जाएगा जिसे वे सरकार से छूट के रूप में वसूल कर सकेंगे। इसके पीछे विचार यह है कि निर्यातक मालवहन में लगने वाले ईंधन, बिजली खपत या कृषि मंडियों में जो शुल्क आदि चुकाते हैं उसे भी रिफंड किया जाना चाहिए। इस इच्छा को समझा जा सकता है लेकिन तथ्य यही है कि इस प्रकार के हस्तक्षेप का प्रबंधन और निगरानी दोनों मुश्किल हैं। ध्यान रहे कि आरओडीटीईपी योजना में 8,555 उत्पाद शामिल हैं और विभिन्न छूटों के अलावा 0.3 फीसदी से 4.3 फीसदी के बीच की प्रतिपूर्ति दर भी हैं। यह निर्यात क्षेत्र द्वारा लॉबीइंग के दरवाजे भी खोलता है, इसका कुछ प्रमाण तो पहले ही मिल रहा है क्योंकि औद्योगिक संगठनों की शिकायत है कि आरओडीटीईपी की दरों के तहत मिलने वाली क्षतिपूर्ति पहले की मर्चंडाइज एक्सपोर्ट फ्रॉम इंडिया योजना से मिलने वाली क्षतिपूर्ति से कम है।
सरकार द्वारा एमईआईएस योजना के स्थान पर आरओडीटीईपी को अपनाने की एक और वजह यह है कि कर छूट, विश्व व्यापार संगठन के साथ भारत की प्रतिबद्धता के अनुरूप हैं जबकि निर्यात प्रोत्साहन नहीं। यह एक और अवसर है जब एक समस्या जिसे सहज बनाया जाना था उसे हल करने की कोशिश में सरकार ने हस्तक्षेप बढ़ा दिया और नई अफसरशाही प्रक्रियाएं जोड़ दीं। क्या उद्योग जगत का लागत ढांचा बदलने के बाद इन 8,555 उत्पादों में से प्रत्येक की प्रशासित दर में बदलाव आएगा? क्या सरकार में यह क्षमता है कि इन बदलावों को सहज, पारदर्शी और समुचित तरीके से आकार दे सके? आखिर में, क्या आरओडीटीईपी के लिए अलग की गई 12,544 करोड़ रुपये की राशि पर्याप्त साबित होगी या निर्यातक इसलिए छूट का दावा नहीं कर पाएंगे क्योंकि पैसे समाप्त हो जाएंगे?
अतीत में निर्यात प्रोत्साहन योजनाएं और मानक जीएसटी रिफंड भी इसलिए नाकाम रहे क्योंकि सरकार निर्यातकों को समय पर पैसे चुकाने में नाकाम रही। यदि रिफंड की गति तेज हो जाए तो देश की प्रतिस्पर्धात्मक कमी दूर करने में काफी मदद मिलेगी। परंतु निर्यात से जुड़े अप्रत्यक्ष करों के सवाल का सबसे समझदारी भरा हल यही है कि जीएसटी का दायरा बढ़ाया जाए। ईंधन शुल्क, बिजली शुल्क आदि जिनके लिए आरओडीटीईपी से भरपाई की आशा की जा रही है, वह भी जीएसटी शृंखला को भंग करेगा और व्यवस्था में गिरावट लाएगा। यदि वे व्यापक अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था का हिस्सा होते और निर्यातक मौजूदा प्रणाली के तहत ही आसानी से रिफंड का दावा कर पाते तो आरओडीटीईपी जैसे जटिल और खासी अनुत्पादक व्यवस्था की जरूरत ही न होती।