गत सप्ताह नई दिल्ली में एक औद्योगिक संस्था के मंच से बोलते हुए सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग के मुख्य कार्याधिकारी (CEO) बीवीआर सुब्रमण्यम ने इस बात की हिमायत की कि भारत को बहुपक्षीय व्यापार समझौतों में शामिल होने पर विचार करना चाहिए। वह क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसेप) और प्रशांत पार साझेदारी के लिए व्यापक एवं प्रगतिशील समझौते (सीपीटीपीपी) का जिक्र कर रहे थे।
यह बात अतिरिक्त महत्त्व की है क्योंकि सुब्रमण्यम पहले वाणिज्य सचिव रह चुके हैं। यह उम्मीद की जा सकती है कि इस वक्तव्य का संदेश यह है कि देश आरसेप और सीपीटीपीपी जैसे बड़े व्यापारिक समझौतों के लाभ को लेकर नए सिरे से विचार कर रहा है।
सुब्रमण्यम की दलील एकदम साधारण है। ऐसे बड़े कारोबारी धड़े का हिस्सा बनना महत्त्वपूर्ण है। सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों के लिए तो यह खास महत्त्व रखता है जो देश के निर्यात में 40 फीसदी की हिस्सेदारी रखते हैं। उन्होंने संकेत किया कि भारत में स्थित बड़े कॉरपोरेट हाउस निर्यात के मोर्चे पर कमजोर प्रदर्शन कर रहे हैं।
ऐतिहासिक रूप से यह देखा गया है कि छोटी कंपनियों का सामना जब बड़े बाजार से होता है तो उनका प्रदर्शन बेहतर रहता है। ऐसा इसलिए कि वे नए प्रकार की मांग से समायोजन को लेकर बेहतर स्थिति में होती हैं। वास्तव में ऐसा व्यापार खुलापन अक्सर जरूरी होता है ताकि उनका विकास हो और वे स्थिर कारोबारी ढांचे में प्रवेश कर सकें जहां बड़ी घरेलू कंपनियों का दबदबा है। जब घरेलू बाजार भारत जैसा बड़ा और मुनाफे वाला हो तो प्रभाव काफी बढ़ जाता है।
कंपनियां अपने बाजार तक पहुंच कम करने के लिए प्रतिस्पर्धा करती हैं, बजाय कि विदेशों में बाजार हिस्सेदारी बढ़ाने के। यह उनके निजी हित में हो सकता है लेकिन इससे व्यापक कल्याण में इजाफा नहीं होता है और न ही घरेलू मूल्यवर्धन और वृद्धि होती है। वैश्विक मूल्य श्रृंखला में शामिल होने के लिए ऐसे व्यापार समझौतों का हिस्सा बनना जरूरी हो चला है। भारतीय कंपनियों के लिए अवसरों का दायरा बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है।
आरसेप और सीपीटीपीपी में प्रवेश की दो बाधाएं क्रमश: चीन और घरेलू सुधार हैं। आरसेप में कई ऐसे देश शामिल हैं जिनके साथ भारत पहले ही मुक्त व्यापार समझौता कर चुका है, इनके अलावा चीन भी इसमें शामिल है। भारतीय नीति निर्माताओं के मन में उचित ही यह भय है कि इससे भारतीय बाजार चीन के निर्यात से पट जाएंगे। परंतु नीति निर्णय के इससे भयभीत नहीं होने की दो वजह हैं।
पहली, आरसेप पहले से मौजूद है और आरसेप में शामिल देशों से भारत में होने वाले आयात में बड़ी संख्या में चीनी वस्तुएं भारत आती हैं। फिर चाहे वे दक्षिण पूर्वी एशिया के देश हों या कोरिया। दूसरी वजह यह है कि आरसेप के देश भी अन्य सदस्य देशों के खिलाफ कार्रवाई करने में सक्षम हैं। हाल के वर्षों में व्यापक भूराजनीतिक विवाद के रूप में ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध चीन की एकपक्षीय कार्रवाई इसका उदाहरण है।
सीपीटीपीपी का प्रश्न ज्यादा जटिल हो सकता है। यह व्यापार समझौता एक ‘स्वर्णिम मानक’ है क्योंकि इसमें ‘सीमा से परे’ नियामकीय सुसंगतता बतौर सिद्धांत शामिल है। दूसरे शब्दों में यह मामला न केवल टैरिफ का है बल्कि गैर टैरिफ गतिरोधों में कमी का भी है। ऐसे में शुरुआती काम अधिक होगा लेकिन उस हिसाब से देखें तो एफटीए के बारे में अतीत में भारत की शिकायतें अक्सर इस तथ्य पर आधारित थीं कि भारत के निर्यात को लेकर गैर टैरिफ बैरियर अभी भी लागू हैं। यहां तक कि मुक्त व्यापार समझौते वाले देशों में भी।
सीपीटीपीपी की जरूरतों को पूरा करना यह सुनिश्चित करने का एक अच्छा तरीका है कि ऐसे गतिरोध समाप्त हों। व्यापार को लेकर माहौल में बदलाव को देखते हुए और खास कर भारत-चीन रिश्तों को देखते हुए सुब्रमण्यम का हस्तक्षेप सही समय पर आया है। उनके सुझावों को सरकार के सर्वोच्च स्तर पर उठाया जाना चाहिए।