संपादकीय

Editorial: वास्तविक आय की अनदेखी और उत्पादक रोजगार

Productive Employment: 2012 और 2022 के बीच के आंकड़े दर्शाते हैं कि नियमित वेतन वाले कर्मचारियों की औसत मासिक वास्तविक आय में हर वर्ष करीब एक फीसदी की गिरावट आई।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- April 08, 2024 | 9:54 PM IST

श्रम बाजार के हालात पर होने वाली बहस अक्सर बेरोजगारी और श्रम शक्ति भागीदारी दरों पर निर्भर रहती है। वास्तविक आय की अक्सर अनदेखी कर दी जाती है। श्रम शक्ति भागीदारी आंकड़ों में सुधार और बेरोजगारी दर में कमी के बीच अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और मानव विकास संस्थान की एक रिपोर्ट में आगाह किया गया है कि भारत के श्रम बाजार के नतीजों में सबकुछ अच्छा नहीं है।

रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में वास्तविक मेहनताने में कमी आई है। 2012 और 2022 के बीच के आंकड़े दर्शाते हैं कि नियमित वेतन वाले कर्मचारियों की औसत मासिक वास्तविक आय में हर वर्ष करीब एक फीसदी की गिरावट आई।

दस वर्ष की अवधि में यह 12,100 रुपये से कम होकर 10,925 रुपये रह गई। शहरी इलाकों का प्रदर्शन ग्रामीण भारत से खराब रहा। शहरी भारत में 2012 से 2022 के बीच वास्तविक वेतन औसतन 7.3 फीसदी गिरा जबकि समान अवधि में ग्रामीण क्षेत्र में वास्तविक वेतन 3.8 फीसदी कम हुआ।

यह बात इसलिए खासतौर पर चिंतित करने वाली है कि वेतनभोगी कर्मचारी बेहतर काम में लगे हैं, उनका कार्यकाल लंबा है, उन्हें किसी न किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा हासिल है और उन्हें नियमित अंतराल पर वेतन मिलता है। नियमित नौकरी करने वालों में भी सरकारी नौकरी करने वालों के वेतन में इजाफा हुआ जबकि निजी क्षेत्र में काम करने वालों के वास्तविक वेतन में कमी आई। निश्चित तौर पर इसकी वजह कम कौशल वाले श्रमिकों की आय में स्थिरता को ठहराया जा सकता है। स्वरोजगार श्रेणी में भी वास्तविक वेतन में ऐसा ही रुझान नजर आता है।

देश के कुल श्रमिकों में से करीब 55 फीसदी की आय महामारी के कारण लगने वाले झटकों और लॉकडाउन के दौरान आर्थिक गतिविधियों के ठप पड़ने से प्रभावित हुई। आश्चर्य की बात है कि आकस्मिक कामगारों की मासिक वास्तविक आय में 2022 तक हर वर्ष 2.4 फीसदी की वृद्धि हुई।

नियमित वेतन वाले कर्मचारियों और स्वरोजगार करने वालों की वास्तविक आय का रुझान और साथ ही आकस्मिक कामगारों के वास्तविक वेतन में मामूली वृद्धि को हाल के वर्षों में रोजगार निर्माण की गुणवत्ता में गिरावट के संकेतक के रूप में देखा जा सकता है। इसे महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के अंतर्गत रोजगार की मांग में भी देखा जा सकता है जो अभी भी महामारी के पहले की मांग से ऊंचे स्तर पर है।

बेरोजगारी के आंकड़े नीतिगत चर्चाओं में अक्सर जिक्र में आते हैं। भारत की आबादी के एक बड़े और गरीब तबके के लिए ये खास महत्त्व नहीं रखते। यह ध्यान देने वाली बात है कि अधिकांश गरीब लोग बहुत कम बेरोजगार होते हैं। वे घर पर खाली नहीं बैठ सकते। छोटे मोटे कामकाज करने वाले ऐसे लोगों को सर्वेक्षणों में रोजगारशुदा माना जाता है। यह भी मायने रखता है कि वे कितना कमाते हैं। देश में कामकाजी लोगों की गरीबी एक अहम समस्या है जिसे हल करने की आवश्यकता है।

हालिया आंकड़े दिखाते हैं कि लाखों लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाल लिया गया है और उनकी पहुंच स्वास्थ्य, शिक्षा, बैंक खातों आदि तक हुई है। इसके बावजूद वेतन और आय के स्तर में कमी से सवाल उठता है कि क्या सार्वजनिक सुविधाओं तक पहुंच आय की गरीबी दूर करने के लिए पर्याप्त है।

महामारी के बाद सरकारी व्यय की बदौलत वृद्धि में तेज वापसी के बावजूद देश में निजी निवेश कमजोर है। यह रोजगार निर्माण को क्षति पहुंचा रहा है। भारत को अपनी आबादी के लिए उत्पादक रोजगार तैयार करने की आवश्यकता है जो आय और बेहतरी बढ़ाएंगे। इससे मांग सुधारने में मदद मिलेगी और वृद्धि चक्र में बेहतरी आएगी।

First Published : April 8, 2024 | 9:54 PM IST