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Editorial: उत्पादकता बढ़ाने के लिए भारत को R&D खर्च बढ़ाने की जरूरत; बड़ी कंपनियों पर निर्भरता से कैसे बचें?

रकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बड़ी कंपनियां अपने दबदबे का इस्तेमाल प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए न करें। अल्पावधि से मध्यम अवधि में इनमें से कुछ को टाला नहीं जा सकता है।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- October 06, 2024 | 9:23 PM IST

अक्सर यह दलील दी जाती है कि भारत को अपनी उत्पादकता में इजाफा करने के लिए अनुसंधान एवं विकास (आरऐंडडी) क्षमता बढ़ाने की आवश्यकता है। वैश्विक बाजारों में प्रतिस्पर्धा के लिए उत्पादकता में बढ़ोतरी आवश्यक है। ऐसा करने से भारत का औद्योगिक आधार भी मजबूत होगा तथा रोजगार भी बढ़ेंगे।

यह निराशाजनक है कि भारत आरऐंडडी पर अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का केवल 0.7 फ़ीसदी हिस्सा ही खर्च करता है। यह अन्य समकक्ष देश की तुलना में बहुत कम है और आर्थिक वृद्धि बढ़ाने की राह में बड़ी बाधा भी है।

कुछ विशेषज्ञों के अनुसार भारत को आरऐंडडी पर होने वाला व्यय बढ़ाकर जीडीपी के तीन प्रतिशत के बराबर करने की आवश्यकता है। उद्योगपति नौशाद फोर्ब्स ने उचित ही कहा है कि बड़ी भारतीय कंपनियां आरऐंडडी पर बहुत कम खर्च करती हैं। इसमें दो राय नहीं कि भारत को आरऐंडडी पर खर्च बढ़ाने की आवश्यकता है लेकिन शायद केवल यह खर्च बढ़ा देने भर से बात नहीं बनेगी।

इस संदर्भ में शिकागो विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री उफुक अकजीत ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा प्रकाशित जर्नल फाइनैंस ऐंड डेवलपमेंट के ताजा अंक में लिखे आलेख में इस बात को रेखांकित किया है आरऐंडडी व्यय (खासकर अमेरिका) में इजाफा उत्पादकता में अपेक्षित सुधार की वजह नहीं बना है। इसके नतीजे अन्य देशों के नीति निर्माताओं के लिए मददगार साबित हो सकते हैं ताकि वे गलतियां नहीं करें।

1980 के दशक में अमेरिका का आरऐंडडी व्यय उसके जीडीपी का करीब 2.2 फीसदी था जो हाल के समय में बढ़कर 3.5 फीसदी हो चुका है। परंतु वहां 1960 से 1985 के बीच औसत उत्पादकता वृद्धि 1.3 फीसदी थी जो बाद के दशकों में और कम हो गई। केवल 2000 के दशक में अल्पावधि के लिए इसमें सुधार हुआ। हालांकि पेटेंट प्रोडक्शन पर काम कर रहे लोगों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ लेकिन उत्पादकता में कमी आई।

इस विरोधाभास को संसाधनों के आवंटन से समझा जा सकता है। आकार के संदर्भ में शोध बताता है कि छोटी कंपनियां अधिक नवाचारी होती हैं। दूसरी ओर बड़ी रसूखदार कंपनियां निगम नवाचार के बजाय रणनीतिक कदम को तवज्जो देती हैं। इसका असर संभावित उत्पादन पर पड़ता है।

इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि हाल के दशकों में कई अर्थव्यवस्थाओं में बाजार अधिक घना हुआ है। इटली से निकले प्रमाण दिखाते हैं कि जैसे-जैसे कारोबार में इजाफा होता है वे अधिक से अधिक राजनेताओं को अपने साथ जोड़ते हैं और नवाचार पर बुरा असर होता है। चूंकि बड़ी कंपनियां अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करती हैं इसलिए वे न केवल छोटे संभावित प्रतिद्वंद्वियों का अधिग्रहण करती हैं बल्कि छोटी कंपनियों के नवाचारियों को भी बेहतर भुगतान करके अपने साथ जोड़ती हैं, भले ही उन्हें उनकी आवश्यकता न हो।

उदाहरण के लिए इस सदी के आरंभ में अमेरिका के 48 फीसदी आविष्कारक उन बड़ी कंपनियों के लिए काम करते थे जो कम से कम 20 साल पुरानी थीं और जहां 1,000 से अधिक लोग रोजगारशुदा थे। 2015 तक यह आंकड़ा बढ़कर 58 फीसदी हो गया। कई शोधकर्ताओं को अक्सर ऐसी भूमिकाओं में रख दिया गया जहां वे अपने कौशल का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रहे थे।

इससे सबक मिलता है कि वृहद स्तर पर आरऐंडडी प्रभावित होता है जो वृद्धि और विकास दोनों पर असर डालता है। भारत जैसे विकासशील देशों को इस सबक से फायदा मिल सकता है। सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बड़ी कंपनियां अपने दबदबे का इस्तेमाल प्रतिस्पर्धा बढ़ाने के लिए न करें। अल्पावधि से मध्यम अवधि में इनमें से कुछ को टाला नहीं जा सकता है।

बहरहाल, सरकार को छोटे और उभरते उपक्रमों की कीमत पर बड़ी कंपनियों की मदद नहीं करनी चाहिए क्योंकि बड़ी कंपनियां ऐसी तकनीक विकसित कर सकती हैं जो उत्पादकता में भारी इजाफा कर सकें। आरऐंडडी में राजकोषीय समर्थन से छोटी कंपनियों को यथासंभव नुकसान नहीं होना चाहिए। चुनिंदा कंपनियों पर ध्यान देने से अल्पावधि में वृद्धि हासिल हो सकती है लेकिन उनका दबदबा दीर्घावधि में वृद्धि और उत्पादकता पर असर डाल सकता है।

First Published : October 6, 2024 | 9:23 PM IST