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संपादकीय: एफएमसीजी कंपनियों का अलग-अलग अनुभव

कोविड-19 के पहले लॉकडाउन के बाद जैसा समझा गया था, देश के शहरों की बड़ी अस्थायी या प्रवासी आबादी सरकार की नजर से बाहर है।

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- October 28, 2024 | 10:25 PM IST

हाल के महीनों में दैनिक उपयोग की उपभोक्ता वस्तुओं (एफएमसीजी) की कई कंपनियों के वरिष्ठ प्रबंधन ने एक जटिल समस्या को सामने ला दिया है। वह यह कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था विचलन की ओर है?

दूसरे शब्दों में क्या दो अलग-अलग भारत दो अलग आर्थिक मार्गों पर बढ़ रहे हैं? एफएमसीजी कंपनियां आय वाले समय के बाद दो साझा बिंदुओं के साथ सामने आई हैं: अब मांग पहले जैसी जीवंत नहीं है, परंतु महंगे और उत्कृष्ट उत्पादों की मांग बनी रह सकती है। इन कंपनियों की वितरण और मार्केटिंग की पहुंच को देखते हुए व्यापक उपभोक्ता मांग के बारे में उनके निष्कर्षों पर अक्सर कड़ी नजर रखी जाती है।

महामारी के बाद अंग्रेजी के ‘के’ अक्षर की आकृति वाले सुधार की चर्चा लंबे समय से रही है लेकिन अब सवाल यह है कि क्या भारत की अर्थव्यवस्था भी वही आकार ले रही है? ‘के’ आकृति वाले सुधार से तात्पर्य आर्थिक विभाजन के बढ़ने से है, यानी अमीरी और गरीबी की खाई में इजाफा। क्या अर्थव्यवस्था के दो हिस्से अलग-अलग गति से और अलग-अलग तरीकों से विकसित हो रहे हैं?

यह बात ध्यान देने लायक है कि अगर यह कथानक सही है तो यह सामान्य से बहुत अधिक जटिल बात है। यह केवल उन ‘दो भारत’ की कहानी नहीं है जो नेता सुनाते हैं। अगर विभाजन मौजूद है और बढ़ रहा है तो यह शहरी समृद्धि और ग्रामीण संकट के बीच का विभाजन नहीं है। यह अंतर है प्रीमियम श्रेणियों और आय की श्रृंखला में काफी नीचे आने वाली श्रेणियों के बीच का। यानी भारतीय अर्थव्यवस्था के शीर्ष दशांश अथवा एकदम निचले छोर का।

यकीनन इस समय ऐसा प्रतीत हो रहा है कि शायद ग्रामीण मांग में सुधार हो रहा है क्योंकि मॉनसून काफी बेहतर रहा है। कमजोरी शहरी मांग में नजर आ रही है। कुछ कंपनियों के अनुसार कमजोरी दूसरे या तीसरे दर्जे के शहरों के बजाय महानगरों में नजर आ रही है। यह चिंता का विषय है।

कुछ मामलों में भारत के नीति निर्माता लंबे समय से यह मानते रहे हैं कि शहरी वृद्धि अपना ध्यान रख लेगी और ग्रामीण गरीबी की समस्या को हल करना होगा। परंतु यह सोच अगर सही भी थी तो वह देश की सबसे बड़ी कंपनियों के सामने आ रहे तथ्यों पर खरी नहीं उतर रही है।

हाल ही में एक बड़ी एफएमसीजी कंपनी के शीर्ष अधिकारी ने चेतावनी दी कि भारत का मध्य वर्ग खत्म हो रहा है। यह एक अप्रत्याशित और दिक्कतदेह दिशा है।

एक ऐसा देश जहां कुलीनों की तादाद बढ़ रही है और महंगे सामान की बिक्री में इजाफा हो रहा है, वह जाहिर है दिक्कत में नहीं है। दिक्कत की बात यह है कि ऐसा ऐसे मध्य वर्ग के साथ हो रहा है जो स्थिर है और जिसकी संख्या में कमी आ रही है।

एक चिंता जो इन कंपनियों की टिप्पणियों में मुखर होकर सामने आई है वह यह है कि शहरी मांग में कमजोरी पिछले कुछ समय से बरकरार है लेकिन अब यह नजर आ रही है क्योंकि सरकार द्वारा दिया गया विभिन्न प्रकार का प्रोत्साहन और समर्थन अब हटाया जा रहा है। यकीनन वृद्धि को सरकारी व्यय का समर्थन हाल की तिमाहियों में कमजोर पड़ा है।

यह बात उन व्यापक चिंताओं को बढ़ाती है कि देश की वृद्धि के इंजन में खामी है। शहरी समृद्धि सरकारी समर्थन पर निर्भर नहीं होनी चाहिए क्योंकि लंबी अवधि में यह टिकाऊ नहीं होता है। एक तथ्य यह भी है कि शहरी गरीबी को हमारे देश में पूरी तरह समझा नहीं जा सका है या यह नजर नहीं आती।

कोविड-19 के पहले लॉकडाउन के बाद जैसा समझा गया था, देश के शहरों की बड़ी अस्थायी या प्रवासी आबादी सरकार की नजर से बाहर है। उन्हें कल्याण योजनाओं का लाभ दिला पाना भी मुश्किल है। शहरी समृद्धि और गरीबी के अनुभव को समझने के लिए और अधिक आंकड़ों की आवश्यकता है।

First Published : October 28, 2024 | 10:18 PM IST