भारतीय संविधान को अंगीकृत करने की 75वीं वर्षगांठ पर आयोजित विशेष चर्चा में हिस्सा लेते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोक सभा में यह उचित ही कहा कि संविधान ने आजादी के बाद भारत के लिए सभी पूर्वानुमानित संभावनाओं को हासिल किया है। एक युवा गणतंत्र के जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही हैं, लेकिन भारतीय संविधान समय की कसौटी पर खरा उतरा है और उसने भारत की अच्छी सेवा की है। इसकी सफलता का सबसे बड़ा उदाहरण सत्ता का निरंतर शांतिपूर्ण हस्तांतरण है, जो जनाकांक्षाओं को प्रदर्शित करता है। यहां यह बताना जरूरी है कि भारत में हर स्तर पर राजनीति बेहद प्रतिस्पर्धी है।
पिछले दशकों में देश में कई तरह के राजनीतिक दलों और गठबंधनों ने शासन किया है। कुछ विफलताओं को छोड़ दें तो वे ज्यादातर समय देश को आगे ले गए हैं। साल 1975 में आपातकाल लागू करना ऐसा ही एक स्पष्ट उदाहरण है। भारत के संविधान को एक गतिशील और जीवंत दस्तावेज के रूप में पेश किया गया था जिसमें एक युवा राष्ट्र की बदलती जरूरतों के अनुकूल लचीलापन निहित था। इसका नतीजा यह हुआ कि हमारे संविधान में 100 से ज्यादा बार संशोधन किए गए। उदाहरण के लिए सबसे हाल का संशोधन संसद और विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने का था, हालांकि यह प्रावधान अगले परिसीमन के बाद ही लागू हो सकेगा।
अगर आर्थिक परिप्रेक्ष्य से देखें तो केंद्र और राज्य सरकारों, दोनों ने कराधान की अपनी साझा शक्ति का इस्तेमाल करते हुए वस्तु एवं सेवा कर को लागू करना संभव बनाया और इसके लिए संविधान में प्रासंगिक बदलाव किए गए। इस तरह संविधान ने पिछले वर्षों में भारत को सामाजिक और आर्थिक, दोनों तरह के हितों को आगे बढ़ाने का अवसर दिया है। वैसे तो पिछले हफ्ते संसद में आयोजित दो दिवसीय चर्चा में विभिन्न पहलुओं को छुआ गया, लेकिन कई स्तरों पर यह एकतरफा रही। हालांकि, यह पूरी तरह से अप्रत्याशित भी नहीं था, लेकिन सदस्य इस अवसर का इस्तेमाल इस पर चर्चा के लिए कर सकते थे कि संविधान में अंगीकृत किए गए विचारों पर आगे किस तरह से अमल हो।
भारत साल 2047 यानी स्वतंत्रता की शताब्दी तक एक विकसित राष्ट्र बनने की दिशा में काम कर रहा है, इसलिए यह उचित ही है कि इसका उद्देश्य आम नागरिकों के जीवन में परिवर्तन लाना और उन्हें सशक्त बनाना हो। इस संबंध में मौलिक अधिकारों की गारंटी देने वाले कुछ प्रावधानों की चर्चा करना मुनासिब होगा। उदाहरण के लिए अनुच्छेद 14 भारतीय क्षेत्र में कानून के समक्ष समानता या सभी को कानूनों के समान संरक्षण की गारंटी देता है। दूसरे शब्दों में कहें तो संविधान किसी भी तरह के भेदभाव को खारिज करता है।
हालांकि भारतीय राज्य सभी नागरिकों को यह गारंटी उपलब्ध कराने में अक्षम साबित हुआ है। उदाहरण के लिए हाल में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा रोक लगाए जाने तक, कई राज्यों में ‘बुलडोजर न्याय’ चल रहा था जो कि संविधान के शब्दों और भावनाओं, दोनों के खिलाफ था। देश को संस्थाओं, खास तौर पर न्यायपालिका को मजबूत करने की जरूरत है। बड़ी संख्या में लंबित मुकदमों की वजह से फैसले होने में काफी देरी होती है जिससे आम नागरिकों के हित और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा प्रभावित होते हैं।
इसके अलावा विशेषज्ञों में इसे लेकर आमराय है कि भारत को अगर विकसित देश बनाना है तो उसे बेहतर गुणवत्ता वाली मानव संपदा की जरूरत होगी। इस संदर्भ में संसद ने अनुच्छेद 21ए (86वां संशोधन) को अपनाकर अच्छा कदम उठाया है जिसके जरिये राज्य से यह अपेक्षा की जाती है कि वह 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य रूप से शिक्षा प्रदान करेगा। इसका नतीजा यह है कि पिछले वर्षों में स्कूलों में नामांकन बढ़ गया है जिसके लिए केंद्र और राज्य सरकारें दोनों ही श्रेय की हकदार हैं। हालांकि हाल के कई सर्वेक्षणों, खासकर वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (असर) में यह साफ हुआ है कि शिक्षा की गुणवत्ता खराब बनी हुई है।
अगर इस पहलू पर लंबे समय तक ध्यान नहीं दिया गया तो भारत अपेक्षित गति से आगे बढ़ने और विकास करने में सक्षम नहीं हो पाएगा। यह सुनिश्चित करना महत्त्वपूर्ण है कि देश में सामाजिक, आर्थिक और कानूनी परिणाम संविधान की मूल भावना के अनुरूप हों। लेकिन निष्पक्ष रूप से कहें तो पिछले 75 वर्षों में भारत ने जो कुछ भी हासिल किया है वह वाकई शानदार है। मूल संवैधानिक मूल्यों को कायम रखने से ही भारत अपने नागरिकों की आकांक्षाओं को पूरा करने में सक्षम होगा।