काफी अटकलों के बाद सोमवार को केंद्र सरकार ने राजस्व सचिव संजय मल्होत्रा को भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का गवर्नर नियुक्त कर दिया। वर्तमान गवर्नर शक्तिकांत दास का कार्यकाल मंगलवार को समाप्त हो रहा है। मल्होत्रा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर से इंजीनियरिंग में स्नातक हैं और उन्होंने प्रिंसटन विश्वविद्यालय से लोक नीति में स्नातकोत्तर की डिग्री ली है। वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1990 बैच के अधिकारी हैं। यह निर्णय दास के कार्यकाल के अनुभवों से प्रेरित हो सकता है। दास के कार्यकाल में सरकार और रिजर्व बैंक के बीच किसी तरह का मतभेद नजर नहीं आया। बहरहाल, बजट निर्माण की प्रक्रिया चल रही है और वित्त मंत्रालय को जल्दी ही मल्होत्रा के स्थान पर किसी को नियुक्त करना होगा।
विगत छह वर्षों का दास का कार्यकाल देश की अर्थव्यवस्था और रिजर्व बैंक दोनों के लिए चुनौतीपूर्ण रहा और इसकी प्रमुख वजह रही कोविड-19 महामारी। रिजर्व बैंक को आपातकालीन उपाय अपनाने पड़े और यह भी सुनिश्चित करना पड़ा कि वित्तीय व्यवस्था मजबूत बनी रहे। रिजर्व बैंक ने महामारी के दौरान और बाद में भी कई कदम उठाए लेकिन नीतिगत और वित्तीय स्थिरता के लिहाज से दो क्षेत्र ऐसे रहे जिन पर चर्चा की जा सकती है।
पहली बात तो यह कि रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को लक्षित करने वाला केंद्रीय बैंक है। हालांकि नीतिगत ब्याज दर तय करने की जिम्मेदारी अब छह सदस्यीय मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) की भी है लेकिन किसी भी गवर्नर का कार्यकाल आंशिक तौर पर इस आधार पर भी आंका जाएगा कि उसने मुद्रास्फीति का प्रबंधन किस प्रकार किया। इस संदर्भ में यह तर्क उचित है कि पिछले कुछ वर्षों में रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति को कम करके आंका। हालांकि एक बार जब उसने नीतिगत सख्ती आरंभ की तो उसे समय से पहले वापस न लेकर अच्छा किया। एमपीसी की इच्छा है कि इंतजार करके अवस्फीति की प्रक्रिया को पूरा होने दिया जाए।
दूसरा है बाहरी क्षेत्र का प्रबंधन। महामारी के दौरान आरंभिक स्थिरता के बाद जब बड़े वैश्विक केंद्रीय बैंकों ने व्यवस्था में नकदी डालना शुरू किया और नीतिगत दरों को शून्य के करीब ले गए तो भारत में भी पूंजी की भारी आवक हुई। रिजर्व बैंक ने अतिरिक्त प्रवाह की खपत करके अच्छा किया। भारी भरकम विदेशी मुद्रा भंडार ने 2022 में उस समय मदद की जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व सहित केंद्रीय बैंकों ने मुद्रास्फीति से निपटने के लिए नीतिगत ब्याज दर में इजाफा कर दिया। वैश्विक मुद्रा बाजारों में भी भारी अस्थिरता देखने को मिली। हालांकि भारतीय रुपये में इस अवधि में काफी गिरावट आई लेकिन उसका असर सीमित रहा क्योंकि रिजर्व बैंक ने समय से हस्तक्षेप किया।
बाहरी मोर्चे पर स्थिरता बनाए रखना बीते कुछ सालों में रिजर्व बैंक का एक प्रमुख काम रहा है। कुछ अर्थशास्त्री कह चुके हैं कि रुपया बहुत स्थिर है। यकीनन इसका अधिमूल्यन रहा है जो कारोबार योग्य क्षेत्रों में इसकी प्रतिस्पर्धी क्षमता पर असर डाल सकता है। इस संदर्भ में मल्होत्रा के सामने यह चुनौती होगी कि वह सुनिश्चित करें कि मुद्रा बाजार हस्तक्षेप अतिरिक्त अस्थिरता को नियंत्रित करते-करते कारोबार योग्य क्षेत्रों पर बोझ न बन जाए। इस पहलू पर उनके कार्यकाल के आरंभ से ही नजर रहेगी। अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने जो नीतिगत बदलाव करने की बात कही है वे मुद्रा बाजार पर असर डाल सकते हैं।
मुद्रास्फीति के मोर्चे पर जहां अनुमान बताते हैं कि मुद्रास्फीति की दर अगले वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में 4 फीसदी के तय लक्ष्य के करीब रहेगी, वहीं रिजर्व बैंक और एमपीसी को सावधान रहते हुए तय करना होगा कि गिरावट टिकाऊ हो। रिजर्व बैंक को जहां उम्मीद है कि आर्थिक वृद्धि आने वाली तिमाहियों में वापसी करेगी, वहीं निचले स्तर पर केंद्रीय बैंक पर यह दबाव बन सकता है कि वह वृद्धि का समर्थन करे। आधुनिक केंद्रीय बैंकों की टूलकिट में एक अहम उपाय है संचार। दास के कार्यकाल में इसमें सुधार हुआ। मल्होत्रा को भी इसे जारी रखना होगा। इसके अलावा देखना होगा कि रिजर्व बैंक क्रिप्टो मुद्राओं को लेकर अपना रुख बदलता है या नहीं?