पांच साल पहले 24 मार्च को ही केंद्र सरकार ने पूरे देश में 21 दिन का लॉकडाउन लगा दिया था। नए कोरोनावायरस (कोविड-19) को फैलने से रोकने के लिए यह कदम उठाया गया था। उसके बाद के दो साल की यादें सार्वजनिक चर्चा से शायद धूमिल हो चुकी हैं। किंतु दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इस पहली वैश्विक जन स्वास्थ्य आपदा को संभालते समय ऐसे सबक मिले, जिन्हें भविष्य में आने वाली महामारियों के लिए मानक प्रक्रिया के तौर पर सहेज लेना सही होगा। महामारी विज्ञानी कह ही रहे हैं कि तेजी से वैश्विक होते संसार में ऐसी महामारियां बढ़ेंगी। ऐसा करने के लिए हमें अपनी सफलताओं और चूकों को ईमानदारी से स्वीकार करना होगा। किसी भी देश के पास महामारी से निपटने की तैयारी नहीं थी। उन देशों के पास भी नहीं, जिनमें बेहतर जन स्वास्थ्य व्यवस्था थीं। लेकिन टीका बनते ही भारत ने तेजी से व्यापक स्तर पर लोगों को टीके लगवा दिए, जिससे कोरोना को फैलने से रोक लिया गया और मौतें बहुत कम हुईं।
भारत में कोविड का पहला आधिकारिक मामला 30 जनवरी 2020 को मिला, जिसके बाद कोविड के मामले तेजी से बढ़ने लगे। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 11 मार्च को इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया। आज हम कह सकते हैं कि भारत को जल्दी कदम उठाने चाहिए थे। लॉकडाउन से कुछ और हुआ हो या न हुआ हो हाशिये पर पड़े भारतीयों यानी प्रवासी मजदूरों को इसकी सबसे ज्यादा त्रासदी झेलनी पड़ी, जिन्हें कामकाज से हटा दिया गया। सार्वजनिक परिवहन बंद होने के कारण उन्हें और उनके परिवार पैदल ही घर के लिए निकल पड़े। कई लोगों की जान रास्ते में ही चली गई। देर से ही सही जब सरकार ने श्रमिक स्पेशल ट्रेन और बस चलाईं तो उनमे सवार मजदूर वायरस को अपने गांवों तक ले गए, जहां बुनियादी चिकित्सा भी नहीं होने के कारण बड़ी तादाद में लोगों को जान गंवानी पड़ीं। ये यादें इतनी खौफनाक हैं कि कई मजदूर अब भी अपने गांव से बाहर नहीं निकलते। इससे निर्माण और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में कामगारों की कमी हो रही है।
कोविड-19 की दूसरी लहर और भी घातक थी और उसने हमारे देश में स्वास्थ्य ढांचे पर हो रहे बेहद कम निवेश की पोल खोल दी। सरकार ने जल्दबाजी में घोषणा कर दी कि भारत ने कोविड-19 को ‘हरा’ दिया है और हरिद्वार में अर्द्ध कुंभ के आयोजन को हरी झंडी भी दे दी। इसके बाद वायरस फैलने से नए मामले एकाएक बढ़ गए और अस्पतालों में बिस्तर और ऑक्सीजन सिलिंडर कम होने के कारण मौतों का आंकड़ा भी बढ़ने लगा। भारत के लिए यह बहुत मुश्किल घड़ी थी। मौत इतनी ज्यादा हो रही थीं कि अंतिम संस्कार की सुविधा कम पड़ने लगीं। मगर सेना और अर्द्धसैनिक बलों की दाद देनी पड़ेगी, जिन्होंने आपदा की इस घड़ी में कई शहरों में बेहतरीन चिकित्सा सुविधाएं खड़ी कर दीं।
उन्होंने हमें सिखाया कि चिकित्सा आपदा कैसे संभाली जाती हैं। आर्थिक गतिविधियां ठप होने के कारण आजीविका पर आया संकट कम करने के लिए सरकार फौरन हरकत में आई। उसने राजकोषीय घाटे की चिंता को कुछ समय के लिए परे रखकर मुफ्त खाद्य बंटवाया, छोटे कारोबारियों और किसानों को आपात ऋण दिलाए और राज्यों के लिए भी कर्ज की सीमा बढ़ा दी ताकि महामारी की मार से उबरा जा सके। सरकार ने पूंजीगत व्यय बढ़ा दिया, जिससे देश की अर्थव्यवस्था को तेजी से पटरी पर आने में मदद मिली। सरकार ने प्रवासी मजदूरों की मुश्किलें कम करने के लिए वन नेशन वन राशन कार्ड योजना जैसे कई उपाय भी किए। फिर भी भारतीय श्रम बाजार की प्रकृति और नाकाफी चिकित्सा ढांचा भारत की कमजोरी बनी हुई हैं, जिन्हें जल्दी दूर किया जाना चाहिए।