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Editorial: महामारी के बाद असमानता में आई कमी, परंतु राज्यवार अंतर बना बड़ी चुनौती

एचसीईएस 2022-23 के आंकड़े असमानता में कमी का संकेत देते हैं, लेकिन राज्यों के बीच खपत के अंतर को पाटना अब भी बड़ी चुनौती

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- June 10, 2024 | 10:28 PM IST

अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वाले और विषय के विद्वानों के बीच महामारी के बाद एक नजरिया खासतौर पर देखने को मिला है और वह यह है कि बीते वर्षों में देश में असमानता बढ़ी है। हाल के वर्षों के कई अध्ययन और रिपोर्ट इस बात पर जोर देते हैं।

बहरहाल, पारिवारिक खपत व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) 2022-23 के गत सप्ताह जारी किए गए आंकड़े दिखााते हैं कि वास्तव में असमानता में कमी आई है। यह आकलन गिनी गुणांक के आधार पर किया गया है। अखिल भारतीय स्तर पर देखा जाए तो खपत व्यय के मामले में गिनी गुणांक 2011-12 के 0.283 से घटकर 2022-23 में 0.266 रह गया। शहरी इलाकों की बात करें तो समान अवधि में यह 0.363 से कम होकर 0.314 रह गया। गिनी गुणांक 0 से 1 के पैमाने पर असमानता को मापता है जहां उच्च मूल्य का अर्थ होता है अधिक असमानता। कुछ राज्यों में इसमें इजाफा भी हुआ है।

हालांकि मुख्य आंकड़े यही बताते हैं कि उल्लिखित अवधि में असमानता में कमी आई है। आंकड़ों का सावधानीपूर्वक पाठ करने की आवश्यकता है। जैसा कि सांख्यिकी संबंधी स्थायी समिति के अध्यक्ष प्रणव सेन ने कहा भी कि प्रभावशाली वर्ग अपने व्यय के बारे में ठीक से जानकारी नहीं देता। यह आंकड़ा चुनिंदा आय समूहों के लिए संवेदनशील है और प्रभावशाली समूहों में आए बदलाव को ठीक से नहीं स्पष्ट करता। ऐसे में असमानता में कमी आने का निष्कर्ष शायद सही नहीं हो।

इसके अलावा देश में असमानता की वास्तविक समस्या स्थानीय है। कुछ राज्यों में ग्रामीण और शहरी इलाकों में खपत के स्तर में काफी अंतर है। कुछ राज्यों में शहरों और ग्रामीण इलाकों के औसत मासिक प्रति व्यक्ति खपत व्यय (एमपीसीई) में काफी अंतर है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में यह अंतर 82 फीसदी है। अखिल भारतीय स्तर पर यह अंतर करीब 71 फीसदी है।

इसके अलावा खपत का स्तर भी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग है। उदाहरण के लिए ग्रामीण तमिलनाडु का एमपीसीई झारखंड की तुलना में करीब दोगुना है। शहरी तेलंगाना का एमपीसीई बिहार से 70 फीसदी तक अधिक है। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि उन राज्यों में एमपीसीई अधिक है जो विकास के पथ पर आगे निकल चुके हैं। ऐसे में वास्तविक नीतिगत चुनौती है स्थानीय असमानता को दूर करना और यह सुनिश्चित करना कि वृद्धि एवं विकास एकांगी न होने पाएं। चूंकि बेहतर राज्य निवेश जुटाने के मामले में भी अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति में हैं और उनके पास संसाधन भी अधिक हैं इसलिए समय के साथ अंतर बढ़ता जाएगा जो देश की समग्र वृद्धि संभावनाओं पर असर डाल सकता है।

इन मसलों को हल करने के लिए यह अहम होगा कि केंद्र सरकार उन राज्यों को निरंतर नीतिगत और राजकोषीय समर्थन मुहैया कराए जो पिछड़े हुए हैं। कुछ गरीब राज्यों के पास विकास संबंधी नतीजों को सुधारने के लिए पर्याप्त राजस्व नहीं हैं। इन राज्यों को वित्त आयोग के माध्यम से या केंद्र सरकार की ओर से सीधे अधिक संसाधन मुहैया कराने होंगे।

निश्चित रूप से राजनीतिक दृष्टि से यह करना आसान नहीं होगा क्योंकि जो राज्य बेहतर स्थिति में हैं और जो ज्यादातर देश के दक्षिणी हिस्से में स्थित हैं, उन्होंने पहले ही यह शिकायत करनी शुरू कर दी है कि उनके कर संसाधन गरीब राज्यों पर खर्च किए जा रहे हैं जो ज्यादातर उत्तर भारत में स्थित हैं। परंतु इन राज्यों को उबारने का कोई अन्य तरीका शायद ही हो।

पिछड़े राज्यों को भी सही नीतिगत हस्तक्षेप करने तथा सही क्षेत्रों में निवेश की आवश्यकता है। व्यापक स्तर पर देखें तो विकास में इस अंतर की एक वजह यह है कि भारत कम कुशल विनिर्माण का व्यापक आधार नहीं बना सका। बड़े विनिर्माण क्षेत्रों कंपनियों को सस्ते श्रम वाले क्षेत्रों में स्थानांतरण के लिए प्रोत्साहन मिले तो गरीब क्षेत्रों का उद्धार संभव होगा।

First Published : June 10, 2024 | 10:28 PM IST