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बिगड़ते माहौल में भारत के रक्षा क्षेत्र की दुविधाएं

‘ऑपरेशन सिंदूर’ रक्षा क्षेत्र में अपने दृष्टिकोण को बनाए रखने में भारत की प्राथमिकताओं के बारे में महत्त्वपूर्ण सवाल उठाता है। इस बारे में विस्तार से बता रहे हैं आर जगन्नाथन

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आर जगन्नाथन   
Last Updated- June 06, 2025 | 9:43 PM IST

कश्मीर के पहलगाम में निर्दोष लोगों की हत्या और ऑपरेशन सिंदूर के बाद, भारत को एक कठोर वास्तविकता का सामना करना पड़ रहा है। भले ही हमने वह हासिल कर लिया जो करने का लक्ष्य रखा था, यानी पाकिस्तान आतंकवाद की भारी कीमत चुकाए लेकिन हमारे नीचे की जमीन भी खिसकी है। चीन ने अब पाकिस्तान का समर्थन और बढ़ा दिया है, और उसे तुर्किये, अजरबैजान जैसे इस्लामी देशों का भी समर्थन मिल रहा है। कोई भी यह भरोसे से मान सकता है कि विश्व में आतंकवाद के गढ़ को चीन और अन्य सहयोगियों द्वारा फिर से हथियारबंद किया जाएगा और आर्थिक रूप से समर्थन दिया जाएगा। उधर, पूर्वी सीमा से घुसपैठ की आशंका बनी रहती है और पड़ोसी बांग्लादेश के सत्ता प्रतिष्ठान से दूरी बढ़ रही है।

डॉनल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका एक लचीली रीढ़ वाली महाशक्ति बन गया है। भारत को स्पष्ट समर्थन देने के बजाय उसने पाकिस्तान को भारत के साथ फिर से एक स्तर पर रख दिया है। दोनों महाशक्तियों अमेरिका और चीन का भारत को एक पायदान नीचे रखने में एक अघोषित साझा हित प्रतीत होता है।
स्पष्ट रूप से, हमें अपनी लड़ाइयों की तैयारी और प्रबंधन मुख्य रूप से अपने ही दम पर करना होगा, जिसमें केवल इजरायल और रूस जैसे सामरिक सहयोगियों की मदद होगी। लेकिन यूक्रेन युद्ध की वजह से रूस अब चीन के साथ घनिष्ठ संबंध बना रहा है, और गाजा में अपनी आक्रामक कार्रवाइयों की वजह से इजरायल पश्चिमी देशों से अलग-थलग होता जा रहा है। अगर वे खुद दबाव में रहते हैं तो हम उनके भरोसे नहीं रह सकते।

भारत को इन घटनाक्रम को ध्यान में रखते हुए पुनर्विचार करना होगा, नई रणनीति बनानी होगी और उचित तरीके से पुनः हथियारबंद होना होगा। कुछ सवाल तुरंत सामने आते हैं। पहला, भारत को अपने दम पर कितना निर्माण करना चाहिए, और उसे अपने सैन्य साजोसामान का कितना हिस्सा विदेशी विक्रेताओं से खरीदना चाहिए? दूसरा, संकट की स्थिति में कौन देश रक्षा और आर्थिक गठबंधन दोनों के मामले में अधिक विश्वसनीय भागीदार साबित होंगे? तीसरा, ऑपरेशन सिंदूर के सबक के संदर्भ में, जहां ड्रोन और मिसाइलों ने दोनों पक्षों के लिए सबसे बड़ी भूमिका निभाई और जहां हमारी वायु रक्षा और भूमि-आधारित तोपें पाकिस्तानी हमलों को विफल करने के लिए तुरुप के पत्ते साबित हुईं, क्या जमीनी, हवाई और समुद्री युद्ध के लिए महंगी सैन्य खरीद भविष्य में पैसे की बर्बादी होगी?

चौथी चुनौती अधिक तात्कालिक है। आने वाले महीनों में पाकिस्तान और अधिक आक्रामक हो सकता है। लेकिन सैन्य निर्माण में वर्षों लग सकते हैं, इसलिए हमें अल्पकालिक रक्षा विकल्पों की भी आवश्यकता है। निर्माण या खरीद? भारत का आत्मनिर्भर दृष्टिकोण (आत्मनिर्भरता) रक्षा में सबसे अधिक प्रासंगिक है, जहां आत्मनिर्भरता बहुत लाभदायक होती है।

राजनीतिक कारणों से और कई चल रहे युद्धों से मांग के नए उच्च स्तर पर पहुंचने के कारण उचित लागत पर सैन्य आपूर्ति प्राप्त करना अविश्वसनीय रूप से कठिन हो सकता है। रूस-यूक्रेन और पश्चिम एशिया इसके सिर्फ दो उदाहरण हैं। अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक परिसर अपनी और अपने सहयोगियों की सैन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए भी पहले से काफी दबाव में हैं। रूस, यूक्रेन में अपने युद्ध के कारण बहुत ज्यादा तनाव में है। भारत के तेजस मार्क 1ए लड़ाकू विमान के लिए जीई इंजन हासिल करने में काफी देरी हो चुकी है, और इसी तरह रूस से एस400 मिसाइल सिस्टम की आपूर्ति में भी देरी हो रही है। अगर ऐसा न भी हो, तो भी पश्चिमी या यहां तक कि रूसी आपूर्ति पर बहुत ज्यादा निर्भर रहने की राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी, खासकर तब जब यूरोप खुद फिर से हथियारबंद होने की कोशिश कर रहा हो।

ऑपरेशन सिंदूर के दौरान सबसे बड़ी सफलता स्वदेशी आकाश मिसाइल प्रणाली थी, जिसने न केवल पाकिस्तानी ड्रोन हमलों को नाकाम किया, बल्कि इसे विकसित करने और तैनात करने में बहुत कम लागत आई। अनुमान है कि आकाश मिसाइल की कीमत लगभग 5,00,000 डॉलर है, जबकि ऐसे पश्चिमी सिस्टम की कीमत इससे दोगुनी या तीन गुनी है। ड्रोन के मामले में भी, जहां मात्रा गुणवत्ता जितनी ही मायने रखती है – उन्हें स्थानीय स्तर पर विकसित करना कहीं ज्यादा सस्ता होगा, खासकर तब जब 25,000 डॉलर के ड्रोन को गिराने के लिए 5,00,000 डॉलर की मिसाइल की ज़रूरत हो। हमें बड़ी संख्या में सस्ते, छोटे और ज्यादा चुस्त ड्रोन विकसित करने चाहिए।

हालांकि स्वदेश में निर्मित आक्रामक और रक्षात्मक हार्डवेयर को प्राथमिकता दी जानी चाहिए, लेकिन यह अल्पावधि से मध्यम अवधि में पर्याप्त नहीं होगा। चीन अब पाकिस्तान को स्टेल्थ क्षमताओं (जे35ए) के साथ और भी अधिक परिष्कृत पांचवीं पीढ़ी के लड़ाकू विमानों की बिक्री का संकेत दे रहा है, भारत को कम से कम समय में इस क्षमता का मुकाबला करना होगा। राफेल के बारे में कहा जा रहा है कि उसे ऑपरेशन सिंदूर में कुछ नुकसान हुआ, उसमें सुधार किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए फ्रांस को सोर्स कोड साझा करने के लिए तैयार करना होगा। फिलहाल वह ऐसा करने के लिए अनिच्छुक रहा है।

प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के वादे के साथ, संभवतः रूस से स्टेल्थ विमानों के कुछ स्क्वाड्रन खरीदने पर विचार करने की आवश्यकता हो सकती है, खासकर इसलिए कि रूसी साजोसामान के लिए पारिस्थितिकी तंत्र पहले से मौजूद है। हमें अपने साझेदार देशों के साथ मिलकर विमानों के इंजन, युद्धपोत और पनडुब्बियों के संयुक्त निर्माण-विकास की संभावना तलाशनी चाहिए। एक बात पर तो आम सहमति है कि रक्षा उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ानी होगी। हमें ऐसे छोटे और चुस्त प्लेटफॉर्म की जरूरत है जो तेज हों और जिनकी दुश्मन को भनक न लग पाए।

जब भारत और चीन के बीच प्रौद्योगिकी खाई काफी ज्यादा है,  निकट भविष्य के लिए हमारी प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि ऐसे किफायती सैन्य साजोसामान तैयार किए जाएं जिन्होंने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान अपनी ताकत दिखाई है। हमें रक्षा पर खर्च तेजी से बढ़ाने की जरूरत है और यह समझ कायम कर कि किन जगहों पर हमारे आक्रामक और रक्षात्मक साजोसामान की वास्तव में जरूरत है, लक्षित व्यय करना होगा। इसी के साथ यह भी सुनिश्चित करना होगा कि प्रतिरक्षा पर यह खर्च हमारे विकास लक्ष्यों की कीमत पर न हों।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

First Published : June 6, 2025 | 9:43 PM IST