फुटबॉल के नियम तो स्कूली बच्चों तक को पता होते हैं: केवल गोलकीपर ही बॉल को हाथ लगा सकता है और वह भी केवल पेनल्टी क्षेत्र के भीतर। परंतु अगर गोलकीपर की टीम का कोई साथी थ्रो-इन करता है, तब गोलकीपर उसे सीधे हाथ नहीं लगा सकता है। यदि गोल के 12 गज के भीतर फाउल होता है तो पेनल्टी किक प्रदान की जाती है वगैरह। इसके बाद अचानक क्रिकेट की धुन सवार हो जाती है। इस नए खेल में स्कूली बच्चों को चेतावनी दी जाती है कि गेंद को केवल हाथों से ही पकडऩा है। अगर कोई क्रिकेट गेंद को पैरों से मारता पाया जाता है तो जुर्माना लगेगा!
अर्थव्यवस्था में डिजिटल प्लेटफॉर्म के अपनी जगह बनाने की कोशिश के बीच भारत के प्रतिस्पर्धा कानून जल्दी ही ऐसी स्थिति में पहुंच सकते हैं जहां उनकी तुलना फुटबॉल और क्रिकेट के उदाहरण से हो सकती है। जैसा कि होता है हमारी मौजूदा परिभाषा जो तय करती है कि किन कारोबारी निर्णयों की सराहना करनी है और किन पर जुर्माना लगाने की जरूरत है, वह परिभाषा बदल सकती है।
बीती आधी सदी की औद्योगीकृत अर्थव्यवस्था में हमने यह सीखा है कि प्रतिस्पर्धा ही किफायत का सबसे अहम कारक है। प्रबंधन विज्ञान और अर्थशास्त्र में दखल रखने वाले हम सभी लोगों के मन में प्रतिस्पर्धा को लेकर वैसी ही धारणा है जैसी एक ईसाई के मन में गिरिजाघर को लेकर, सिख के मन में गुरुद्वारा के प्रति और हिंदू के मन में मंदिर को लेकर रहती है। एक समकालीन विचारक या आधुनिक व्यक्ति की यही पहचान है।
प्रतिस्पर्धा और अर्थव्यवस्था में उसकी पवित्र भूमिका को लेकर हम सब जो उत्साहवर्धक विचार रखते हैं उनकी जड़ें प्रसिद्घ अमेरिकी ज्यूरिस्ट रिचर्ड पोजनर जैसे लोगों के काम में तलाश की जा सकती हैं जिन्होंने अमेरिकी प्रतिस्पर्धा कानून को लेकर कही बातों में दलील दी थी कि ऐसे कानून का बुनियादी लक्ष्य प्रतिस्पर्धा और क्षमता को बचाना है।
एक औद्योगिक अर्थव्यवस्था में किसी कारोबार के लिए सबसे बड़ा फाउल (फुटबॉल की भाषा में गैर गोलकीपर खिलाड़ी का गेंद को अपने हाथों से छूना) होता है किसी कार्टेल का हिस्सा बन जाना। कार्टेल ऐसे विक्रेताओं का समूह होता है जो षडयंत्र करके कीमतों को सामान्य से अधिक रखते हैं। इसे इतनी गंभीरता से लिया जाता है कि अमेरिका और यूरोप में कार्टेल बनाना और चलाना अपराध है और अक्सर ऐसा करने पर भारी जुर्माना लगाया जाता है। अमेरिका में चार बैंकों पर विदेशी विनिमय दर के साथ छेड़छाड़ का कार्टेल चलाने के लिए लगा 2.5 अरब डॉलर का जुर्माना और यूरोपीय परिषद द्वारा एक ऑटोमोटिव बियरिंग्स (वाहनों में इस्तेमाल होने वाली) कार्टेल पर 95.3 करोड़ यूरो का जुर्माना लगाया। भारत में भी ड्राई सेल बनाने वाली तथा स्वास्थ्य सेवा कंपनियों के खिलाफ ऐसे कई मामले सामने आए हैं।
औद्योगिक युग में एक और कदम जिसे गलत माना जाता है वह है आक्रामक ढंग से मूल्य निर्धारण करना। जैसा कि विकीपीडिया कहता है: आक्रामक मूल्य निर्धारण एक नीति है जिसके तहत किसी उद्योग में दबदबा रखने वाली कंपनी जान बूझकर किसी उत्पाद या सेवा की कीमत अल्पावधि में अत्यधिक कम कर देती है और घाटा तक सहन करने को तैयार हो जाती है।
डिजिटल प्लेटफॉर्म के बढऩे के साथ ही कार्टेल बनाने और आक्रामक मूल्य निर्धारण आदि उतना सरल नहीं रहा जितना वह पहले हुआ करता था। डिजिटल प्लेटफॉर्र्म के आगमन के साथ तीन नई प्रक्रियाएं चलन में हैं (इस ओर ध्यान दिलाने के लिए मैकिंजी का धन्यवाद): डिजिटलीकरण, मध्यस्थहीनता और विभक्तीकरण।
इसका एक आरंभिक उदाहरण है समाचार पत्र उद्योग। डिजिटलीकरण के साथ पाठकों ने समाचारों को ऑनलाइन पढऩा शुरू कर दिया। मध्यस्थहीनता के साथ समाचारपत्रों के वितरकों, डीलरों और समाचारपत्र वेंडरों की तादाद में भारी कमी आई क्योंकि पाठकों ने ऑनलाइन खबरों को तरजीह देना शुरू कर दिया। विभक्तीकरण के साथ एक समय जो समाचार पत्र वैवाहिक विज्ञापनों, अचल संपत्ति के विज्ञापनों और रोजगार के विज्ञापनों से भरा रहता था वह बंट गया और वैवाहिक, अचल संपत्ति तथा रोजगार के विज्ञापनों के लिए अलग-अलग वेबसाइट बन गईं। इससे समाचार पत्रों का विज्ञापन राजस्व काफी हद तक प्रभावित हुआ। ऐसे डिजिटलीकरण-मध्यस्थहीनता और विभक्तीकरण ने मीडिया उद्योग के कई हिस्सों में जगह बनाई। मिसाल के तौर पर फिल्म उद्योग और रेडियो प्रसारण उद्योग भी इससे परे नहीं हैं।
वित्तीय सेवा उद्योग में भी ऐसी ही प्रक्रिया चल रही है। वहां बैंकों को भुगतान सेवा प्रदाताओं, ऋण प्रदाताओं और शेयर कारोबारियों में विभक्त किया जा रहा है। इसके अलावा ई-कॉमर्स, थोक विक्रेताओं की शृंखलाओं, क्षेत्रीय वितरकों और स्थानीय खुदरा कारोबारियों के बीच से भी बिचौलियों को हटाया जा रहा है।
क्या ये सारी बातें निष्पक्ष प्रतिस्पर्धा की ओर ले जा रही हैं? क्या मौजूदा प्रतिस्पर्धा कानून उनसे निपटने में सक्षम हैं? इन नए डिजिटल कारोबारों का मूल्य पारंपरिक कारोबारों की तुलना में काफी कम है लेकिन आक्रामक मूल्य निर्धारण की मौजूदा परिभाषा इन कम कीमत और रियायत वाले कारोबारियों के खिलाफ समुचित हथियार नहीं है।
औद्योगिक युग में अक्सर बढ़ी हुई बिक्री उत्पादों की गुणवत्ता के लिए चुनौती बन जाती है। डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए इसका उलट सही है। उदाहरण के लिए यदि कई डेवलपर किसी दिए गए मंच मसलन ऐंड्रॉयड मोबाइल प्लेटफॉर्म पर बेहतरीन ऐप पेश कर रहे हैं तो अधिक तादाद में उपभोक्ता उस मंच की ओर आकर्षित होंगे। जब यह होता है तो और अधिक तादाद में डेवलपर उसकी ओर आकर्षित होते हैं। यह सकारात्मक प्रतिपुष्टि व्यवस्था ही सफल डिजिटल प्लेटफॉर्म के बहुचर्चित नेटवर्क प्रभाव के मूल में हैं। खेद की बात है कि ऐसी सकारात्मक प्रतिपुष्टि की तलाश में कई प्लेटफॉर्म वेंचर कैपिटल और निजी निजी निवेशकों की मदद से उपभोक्ताओं को शुरुआती दौर में रियायत देते हैं ताकि नेटवर्क प्रभाव के लिए जरूरी पैमाने पर काम किया जा सके। उदाहरण के लिए ई-कॉमर्स में सामान को नि:शुल्क उपभोक्ता तक पहुंचाने की व्यवस्था।
प्रतिस्पर्धा कानून इसे कैसे और कहां सकारात्मक या नकारात्मक रूप से देखे इसके लिए दुनिया भर में विचार विमर्श चल रहा है। डिजिटल प्लेटफॉर्म का काम संभवत: औद्योगिक तौर तरीकों से अलग है। जिस तरह क्रिकेट को फुटबॉल के नियमों से नहीं खेला जा सकता है वैसे ही क्या एक नये प्रतिस्पर्धा कानून की जरूरत नहीं है?
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)