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विकसित भारत और नेट जीरो लक्ष्यों के लिए स्पष्टता जरूरी

जब तक यह स्पष्ट नहीं होगा कि असल में कौन-सा लक्ष्य हासिल करना है और कैसे करना है तब तक विकसित भारत और शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्यों से भटक जाना आसान है। बता रहे हैं

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अजय त्यागी   
Last Updated- August 05, 2025 | 11:13 PM IST

आकांक्षाएं जब पक्के इरादों से जुड़ी होती हैं तब किसी भी व्यक्ति, कंपनी या देश को आगे बढ़ने और तरक्की करने के लिए प्रेरित करती हैं। कोई भी बड़ी कंपनी अपने लक्ष्यों और उद्देश्यों से जुड़े दस्तावेजों में अपनी आकांक्षाएं दिखाती है। अगर देशों की बात करें तो उनकी कई आकांक्षाएं अलग-अलग सरकारी दस्तावेजों में अंतर्निहित होती हैं जिनमें से कुछ मुख्य बातें उनके संविधान में ही शामिल होती हैं। इसके अलावा समय-समय पर देश का राजनीतिक नेतृत्व अपनी विचारधारा, तात्कालिक जरूरत और अन्य प्रतिबद्धताओं के हिसाब से कुछ बड़े लक्ष्य तय करता है।

यह लेख भारत के मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व द्वारा घोषित किए गए दो सबसे महत्त्वाकांक्षी दीर्घकालिक लक्ष्यों के बारे में है। ये दो लक्ष्य हैं, वर्ष2047 तक ‘विकसित भारत’ बनाना और वर्ष2070 तक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन शुद्ध शून्य करना। इन दोनों लक्ष्यों को हासिल करने के रास्ते कई मायने में एक-दूसरे से जुड़े हैं और इसके लिए एक सामंजस्यपूर्ण दृष्टिकोण आवश्यक है ताकि हम मंजिल तक पहुंच सकें। सवाल यह है कि क्या हमें इसको लेकर पर्याप्त स्पष्टता है कि वास्तव में क्या हासिल करने का लक्ष्य है और इसे कैसे हासिल किया जाएगा?

आइए सबसे पहले ‘विकसित भारत 2047’ के लक्ष्य को समझते हैं। ‘विकास’ शब्द थोड़ा अस्पष्ट है और अलग-अलग लोगों के लिए इसके अलग मायने हो सकते हैं। सवाल यह है कि असल में हम क्या हासिल करना चाहते हैं? सामान्य तौर पर जो जानकारी उपलब्ध है, उसके मुताबिक इस लक्ष्य के तहत भारत, निम्न मध्यम आय वाले देशों की सूची से निकलकर विश्व बैंक के अनुसार अपनी प्रति व्यक्ति आय को निम्न मध्यम से उच्च मध्यम स्तर तक ले जा सकता है।

निश्चित रूप से इसका लक्ष्य तय होना चाहिए लेकिन क्या यह पर्याप्त है? अन्य मापदंडों का क्या होगा जिनमें सामाजिक और पर्यावरणीय स्थितियों को बेहतर बनाने वाले मापदंड भी शामिल हैं, मसलन मानव विकास सूचकांक रैकिंग, आय की असमानता कम करना, शहरों सहित बुनियादी ढांचे में सुधार और पर्यावरणीय क्षति को रोकना आदि? क्या इन सभी बातों पर विचार करके किसी सही निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए पर्याप्त सार्वजनिक चर्चा की गई है?

सरकार को स्पष्ट तौर पर ‘विकसित भारत’ के लक्ष्य के तहत आने वाले सभी वांछित मापदंडों की एक सूची बनाने की जरूरत है जिसमें हर पहलू को पर्याप्त महत्त्व दिया जाए और जहां संभव हो वहां संख्यात्मक लक्ष्य भी तय हों। जब इन बातों पर स्पष्टता होगी तभी अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़ी सही नीतियां और रोडमैप बन पाएंगे। शुद्ध शून्य उत्सर्जन की बात करें तो संयुक्त राष्ट्र इसे कुछ इस तरह परिभाषित करता है, ‘कार्बन उत्सर्जन में इतनी कटौती करना कि बचे हुए उत्सर्जन को प्राकृतिक तरीके और कार्बन डाइऑक्साइड हटाने के अन्य उपायों द्वारा अवशोषित किया जाए और प्रकृति को सतत तरीके से संभाल सकने लायक रखा जा सके ताकि वायुमंडल में शून्य उत्सर्जन रह जाए।’

सबसे अधिक आशावादी लोग भी इस बात पर सहमत होंगे कि भारत के लिए 2070 तक ‘शून्य उत्सर्जन’ दर हासिल करना एक बड़ी और मुश्किल चुनौती है। फिलहाल, भारत दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक है।  अधिकतर विकसित देशों में ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन कुछ समय पहले ही चरम पर पहुंच गया था। खबरों के अनुसार, चीन में भी यह हाल ही में चरम पर पहुंचा है या इस साल पहुंच जाएगा। भारत की कहानी बिल्कुल अलग है। हमारी विकास की बड़ी जरूरतों को देखते हुए, जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता और मानवीय गतिविधियों के चलते होने वाले पर्यावरणीय बदलाव के स्तर को देखते हुए, यहां निकट भविष्य में उत्सर्जन चरम पर पहुंचने की संभावना नहीं है। वर्ष 2047 तक ‘विकसित भारत’ के रोडमैप और इसके मॉडल को वास्तव में पर्यावरणीय बाधाओं को ध्यान में रखना ही होगा, जिससे यह लक्ष्य और भी चुनौतीपूर्ण हो जाएगा।

वर्ष 2047 और 2070 काफी दूर हैं और इन लक्ष्यों से ध्यान भटकना कोई मुश्किल बात नहीं है। जैसा कि कीन्स की यह उक्ति बेहद चर्चित है, ‘…लंबे समय में हम सब मर जाएंगे।’ इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अब से 2047 और 2070 के बीच कई अलग-अलग सरकारें होंगी। मौजूदा सरकार को चाहिए कि वह इन लक्ष्यों में शामिल किए जाने वाले सभी मापदंडों पर सभी राजनीतिक दलों के बीच एक राष्ट्रीय स्तर की सहमति बनाए और आगे बढ़ने की राह क्या हो उसकी रूपरेखा ठीक से दस्तावेज के रूप में तैयार की जाए। अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने में गंभीरता दिखाने के लिए, सरकार को व्यावहारिक और भरोसेमंद योजनाएं बनानी होंगी, जो जनता के सामने उपलब्ध होना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है ताकि जरूरत पड़ने पर सुधारात्मक कदम उठाए जा सकें।

‘विकास’ शब्द भले ही थोड़ा अस्पष्ट हो, लेकिन अच्छी बात यह है कि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को शायद स्कोप 3 उत्सर्जन और कार्बन सोखने की क्षमता को छोड़कर, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किए गए मानदंडों और सही अनुमानों का उपयोग कर मापा जा सकता है। उत्सर्जन के स्तर की जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) पार्टियों के सम्मेलन (कॉप) की बैठकों में भी निगरानी की जाती है जहां विभिन्न देश समय-समय पर राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के रूप में कमी लाने की प्रतिबद्धताएं जताते हैं।

उदाहरण के तौर पर, फिलहाल भारत ने 2030 तक अपनी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के स्तर से 45 फीसदी तक कम करने की प्रतिबद्धता जताई है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह लक्ष्य समयसीमा से पहले ही आसानी से हासिल किया जा सकता है। अगर ऐसा है, तो 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन के अपने अंतिम लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, एनडीसी प्रतिबद्धता से आगे बढ़कर, अपने लिए ऊंचे लक्ष्य क्यों न निर्धारित किए जाएं?

सवाल यह भी है कि ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को मध्यम से लंबी अवधि में कम करने के लिए सरकार की वास्तविक कार्य योजना क्या है? इसमें से कितना कार्बन मूल्य निर्धारण तंत्र के माध्यम से हासिल किया जाएगा जैसे कि कार्बन कर और विभिन्न बाध्यकारी संस्थाओं के लिए ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन लक्ष्य तय करना, खासतौर पर एक मजबूत कार्बन क्रेडिट ट्रेडिंग तंत्र के साथ उन क्षेत्रों के लिए जहां इसमें कटौती करना मुश्किल है?

अनिवार्य आदेश के माध्यम से कितना लक्ष्य हासिल होने का अनुमान है, जो कार्बन मूल्य निर्धारण सिद्धांत द्वारा स्पष्ट रूप से निर्देशित हो भी सकते हैं और नहीं भी जैसे कि जीवाश्म ईंधन की जगह अक्षय ऊर्जा का उपयोग, ऊर्जा दक्षता में सुधार, इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग को प्रोत्साहन देना, कृषि पद्धतियों में सुधार, वनरोपण को बढ़ाना, कार्बन पृथक्करण और इसी तरह के अन्य उपाय? इन मामलों पर एक तर्कसंगत दृष्टिकोण अपनाने के लिए व्यापक स्तर पर सभी हितधारकों के साथ परामर्श करना, गहन डेटा विश्लेषण करना, तकनीकी उपकरणों का उपयोग करना और विशेषज्ञों की सलाह की आवश्यकता है।

आप वर्ष 2047 और 2070 की अवधि को पांच साल (अल्पकालिक) और 10 साल (मध्यम अवधि) के खंडों में विभाजित करें और दोनों लक्ष्यों के लिए सहमत मापदंडों के तहत, वास्तविक उपलब्धियों की तुलना लक्ष्यों से किसी तीसरे पक्ष (निगरानी, रिपोर्टिंग और सत्यापन) के विशेषज्ञों द्वारा समय-समय पर की जानी चाहिए, जिसकी रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए।

वर्ष 2047 तक ‘विकसित भारत’ और 2070 तक ‘शून्य उत्सर्जन’ की महत्त्वाकांक्षाएं वास्तव में वांछनीय लक्ष्य हैं और ये इस वक्त की जरूरत भी है। वास्तव में सबसे मुश्किल हिस्सा रोडमैप के बारे में स्पष्टता कायम करना है।

(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट फेलो हैं और सेबी चेयरमैन रह चुके हैं।)

First Published : August 5, 2025 | 10:52 PM IST