अगर आप मुल्क में 1960 से लेकर 1990 के शुरुआती सालों तक अपना कारोबार शुरू करना चाहते तो आपको कुछ मुहावरों की जानकारी रखनी ही पड़ती।
मिसाल के तौर पर ‘आपका काम हो जाएगा’ के इस मुहावरे को ही ले लीजिए। यह मुहावरा आपको अक्सर सरकारी अफसरों के मुंह से ही सुनना पड़ता। लेकिन एक बार सुन लिया तो फिर दिल को जो ठंडक मिलती, उसका कोई दूसरा अंदाजा तक नहीं लगा सकता।
भले ही इसके लिए आपको ‘मिठाई’ का कितना भी भारी डिब्बा क्यों न देना पड़ता, लेकिन इस मुहावरे को सुनने के बाद दिल को बड़ी राहत मिलती। आप दौड़े-दौड़े अपने दफ्तर पहुंच कर अपने बॉस को इसकी खुशखबरी देते और फिर शाम को बड़ी पार्टी होती, जिसमें स्कॉच और व्हिस्की की नदियां बहती।
हालांकि, यह सब कुछ इतनी आसानी से नहीं होता। कायदों और लाइसेंसों के मकड़जाल को सुलझाना इतना आसान काम नहीं होता था। ‘अपवाद’ आखिर इतनी आसानी से अस्तित्व में थोड़े ही न आते हैं। लेकिन वो कहते हैं न, हर मुश्किल से बाहर निकलने का एक रास्ता होता है। उस समय इस मकड़जाल से निकलने के लिए जरूरत होती थी, बस एक अदद ‘सही शख्स’ की। एक बार वह शख्स आपके साथ आ गया तो रास्ते खुद ब खुद खुलने लगते थे।
यह सब मुमकिन हो पाता उस ‘सही शख्स’ की बदौलत, जो हमेशा शांत और विनम्र होता था। इन खूबियों के बावजूद वह काम को बखूबी अंजाम दे देता था। कानून भले ही दिल्ली में बनते थे, उन कानूनों को बनाते थे मुंबई में बैठे लोग। ऐसा ही एक शख्स था, रजनी पटेल। एक ऐसा शख्स, जिसे शायद ही कोई नेता न पहचानता हो। उसके लिए राजनैतिक कामों के वास्ते पैसे जुटाना बाएं हाथ का खेल था। पटेल का एक युवा साथी भी था, जिसका नाम था मुरली देवड़ा।
उनकी पहुंच के बारे में आपको अंदाजा इसी बात से लग जाएगा कि 1970 के दशक में उद्योग जगत के दो बड़े नाम, रामनाथ गोयनका और धीरूभाई अंबानी उनके पक्के दोस्त थे। उन दोनों के बीच आपस में जितनी भी खटपट हो, लेकिन दोनों की देवड़ा के साथ खूब छनती थी। वे अक्सर शाम को देवड़ा के घर ताश खेलने के लिए पहुंच जाया करते। ताश के साथ-साथ उनके बीच कारोबारी, राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर भी खूब बातें हुआ करती थीं। वैसे देवड़ा को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कान के रूप में जाना जाता था। अब इंदिरा गांधी का क्या दबदबा था, इस बारे में बताने की जरूरत नहीं है।
राजनीतिक पार्टियों के लिए चंदे जुटाने वाला बनने के लिए सबसे बड़ी जरूरत अपने वादों पर 100 फीसदी खरा उतरने की होती है। देवड़ा ने अपनी जिंदगी में कभी कोई ऐसा वादा नहीं किया, जो वह पूरा नहीं कर पाए। वह अपने हरेक वादों पर 100 फीसदी खरे उतरे हैं। वह 18 सालों तक बंबई क्षेत्रीय कांग्रेस कमेटी (बीआरसीसी) के अध्यक्ष थे। उन इजाजत के बिना मुंबई में उस दौरान एक तिनका भी नहीं हिला करता था। वह एक बेहद अमीर निर्वाचन क्षेत्र से एक बार नहीं, पूरे चार बार लोकसभा के लिए चुने गए।
वह निर्वाचन क्षेत्र कोई दूसरा नहीं दक्षिण मुंबई का है, जहां औसतन हर वर्ग किलोमीटर में चार करोड़पति रहते हैं। अब आप ऐसे निर्वाचन क्षेत्र के लोगों को क्या दे सकते हैं, जिनके पास पहले से ही सब कुछ है। इसलिए देवड़ा ने तंबाकू के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया और इस जंग के लिए पैसे भी उन्होंने अपने ही पॉकेट से दिए। यह थी उनकी राजनीति। उन्होंने कुछ साल पहले कहा था,’मालबरो सिगरेट के पैकेट पर लिखा होता है कि सिगरेट पीने से कैंसर होता है, जबकि हमारे मुल्क के सिगरेट के पैकेट अब भी ‘धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’ वाला स्लोगन चिपका रहता है।
अब इससे मुझे क्या राजनीतिक फायदा मिलेगा? कुछ भी तो नहीं, लेकिन आपको लोगों की भलाई के लिए कुछ तो करना ही चाहिए।’ उन्होंने जिंदगी भर अलग तरह से राजनीति की। देवड़ा ने आंखों की चेकअप के मुफ्त कैंप लगवाए, एम्बुलेंस सेवा शुरू की, कंप्यूटर इंस्टीटयूट खोले और भी बहुत कुछ किया। यह थी उनकी राजनीति। उनका कोई दुश्मन नहीं है। इसलिए तो उन्हें आप डेल कार्नेजी की यह लाइन कहते सुन सकते हैं कि जिंदगी की सबसे बड़ी जीत लोगों पर अपनी छाप छोड़ना और ज्यादा से ज्यादा दोस्त बनाना होती है।
1990 के दशक में जब लाइसेंस राज के खात्मे की शुरुआत हुई, तो देवड़ा ने खुद को भी बदल डाला। इसी वजह से तो भाजपा नेता जसवंत सिंह ने उन्हें दक्षिण मुंबई का सांसद नहीं कहा। वह सदन में देवड़ा को हमेशा ‘मैनहट्टन के माननीय सांसद साहब’ कहा करते थे। इसका ताल्लुक असल में देवड़ा के अमेरिकी दोस्तों की तरफ हुआ करता था। 1990 के दशक में कितना अमेरिकी निवेश भारतीय बाजारों की छुपी हुई ताकत की वजह से हुआ और कितना मुरली देवड़ा की वजह से, इस अंदाजा लगाना मुश्किल है। इतनी अहमियत के बावजूद उन्हें केंद्र में तब सत्तारूढ कांग्रेसी सरकार में न तो जगह दी गई, न ही इसकी मांग उन्होंने की।
वह उन इने गिने नेताओं में शामिल हैं, जिन्हें पहली बार में ही कैबिनेट मंत्री बना दिया गया। उन्हें 2006 में जब पेट्रोलियम मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपी गई तो कई लोगों का कहना था कि उन्हें बेहद सही जगह बिठाया गया है। पेट्रोलियम सेक्टर को निजी निवेश की जबरदस्त दरकार थी, जबकि सरकारी तेल कंपनियों की भी हालत दुरुस्त करने की जरूरत थी। हालांकि, बतौर मंत्री उनका रिकॉर्ड उतना अच्छा नहीं रहा। उनके पेट्रोलियम मंत्री पद पर बने रहने के दौरान ही अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें आसमान छूने लगीं।
तीन बार पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में इजाफा हुआ। इसमें मुल्क में पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में हुआ सबसे ज्यादा इजाफा भी शामिल है। हालांकि, कई दंश सहने के बावजूद भी उन्होंने वह कर दिखाया, जिसके बारे में कोई दूसरा पेट्रोलियम मंत्री सोच भी नहीं सकता था। उन्होंने पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर टैक्स करने के लिए वित्त मंत्रालय को मजबूर कर दिया। इस छूट की वजह से सरकारी खजाने की हर साल कम से कम 5.27 अरब डॉलर यानी 22,660 करोड़ रुपये की कमाई मर जाएगी।
विदेशों में तेल कुओं को हासिल करने के मामले में देवड़ा की जबरदस्त निंदा होती है। आलोचकों का कहना है कि उनके मंत्री पद पर बने रहने के दौरान भारत की विदेशी तेल कुओं को हासिल करने की दर काफी कम हुई है। उनके पूववर्ती मणि शंकर अय्यर की इस बारे में काफी गंभीर प्रयास करने के लिए बहुत तारीफ की जाती है। लेकिन आलोचनाओं से देवड़ा को फर्क नहीं पड़ता। वह चतुर राजनेता हैं, जो आजकल विरले ही मिलते हैं।