इस वर्ष नवंबर में जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (कॉप) की बैठक ब्राजील के एमेजॉन क्षेत्र में मौजूद शहर बेलेम में होगी। संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन अहम है क्योंकि जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न जोखिमों को कम करने का काम कोई एक देश अकेले अपने दम पर नहीं कर सकता है। कार्बन उत्सर्जन तथा अन्य ग्रीनहाउस गैसों का वातावरण में एकत्रित होना एक वैश्विक समस्या है और इससे निपटने के लिए वैश्विक सहयोग की आवश्यकता है।
मूलत: जिस रूप में यूएनएफसीसीसी की कल्पना की गई थी, उसमें जलवायु परिवर्तन को रोकने की प्राथमिक जिम्मेदारी विकसित देशों पर डाली गई थी, जिन्हें औपचारिक रूप से ‘एनेक्स 1 देश’ कहा जाता है। अब यह बदल चुका है। विकसित देश ‘साझा किंतु भिन्न जवाबदेही’ के विचार से दूर हो गए हैं जबकि यूएनएफसीसीसी के अनुच्छेद 3 भाग 1 में इसका स्पष्ट उल्लेख है। उन्होंने वार्ता में बनी औपचारिक सहमति से भी दूरी बना ली और अब वे सभी देशों के लिए स्वैच्छिक राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं की बात कर रहे हैं, फिर चाहे वे विकसित देश हों या विकासशील देश। यही बात 2015 में पेरिस में आयोजित कॉप की बैठक में हुए समझौते में नजर आती है। इस समझौते ने विकासशील देशों, विशेष रूप से चीन और भारत को जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के वैश्विक प्रयासों के केंद्र में ला दिया है।
चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों ने उन कदमों के लिए जवाबदेही स्वीकार की जो मूल यूएनएफसीसीसी में परिकल्पित नहीं थी। वे पहले ही अपने विकास लक्ष्यों को जीवाश्म ईंधन पर कम से कम निर्भर करने की सोच रहे हैं। लेकिन विकसित देश विपरीत दिशा में आगे बढ़े हैं और उन्होंने अपनी प्रतिबद्धताओं को कम कर दिया है। ये प्रतिबद्धताएं कार्बन उत्सर्जन की उनकी ऐतिहासिक गतिविधियों पर आधारित थीं। यह जलवायु परिवर्तन की प्रमुख वजह भी हैं।
2015 का पेरिस समझौता यह लक्ष्य तय करता है कि वैश्विक तापवृद्धि को औद्योगीकरण के पूर्व के युग से 2 डिग्री सेल्सियस तक नीचे रखा जाएगा। इसके साथ ही कोशिश की जाएगी कि ताप वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जाए। बदकिस्मती से हकीकत यह है कि विभिन्न देशों के प्रयास ताप वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिहाज से भी अपर्याप्त हैं। यूएनईपी उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट 2024 के मुताबिक विभिन्न देशों द्वारा जताई गई मौजूदा प्रतिबद्धताएं वैश्विक तापमान में 2.6 से 2.8 डिग्री सेल्सियस तक इजाफा करेंगी। रिपोर्ट यह भी कहती है कि वर्तमान नीतियां इन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए भी नाकाफी हैं और अगर कोई अतिरिक्त क्रियान्वयन नहीं किया जाता है तो दुनिया के तापमान में 3.1 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है।
वर्ष 2024 तक, उत्सर्जन में जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) द्वारा प्रस्तुत उच्च स्तरीय उत्सर्जन परिदृश्य से कोई विशेष फर्क नहीं हुआ है। इसी आधार पर, एशियाई विकास बैंक की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि यह उच्च स्तरीय परिदृश्य टाला नहीं गया, तो जलवायु परिवर्तन 2070 तक विकासशील एशिया और प्रशांत क्षेत्र के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को 17 फीसदी तक घटा सकता है, और भारत की जीडीपी में 24.7 फीसदी की गिरावट आ सकती है।
तापवृद्धि की आशंका का संबंध केवल दीर्घकालिक भविष्य से नहीं है। विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2024 से 2028 के बीच प्रत्येक वर्ष के लिए वैश्विक औसत सतह तापमान 1850-1900 के आधार स्तर की तुलना में 1.1 डिग्री सेल्सियस से 1.9 सेल्सियस तक अधिक रहने की आशंका है। औसत वैश्विक तापमान में उल्लेखनीय वृद्धि अब कोई दूर का खतरा नहीं रही, बल्कि एक तात्कालिक चुनौती बन गई है। इस वर्ष यूरोप और उत्तरी अमेरिका में लू के थपेड़ों की बाढ़ देखी गई है। अब जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली ऐसी घटनाओं को लेकर चिंता बढ़ रही है, जो तापमान, समुद्र स्तर में वृद्धि और मौसम की अनिश्चितताओं में बड़ा बदलाव ला सकती हैं।
हमें जलवायु जोखिम को लेकर कहीं अधिक प्रभावी सहयोग की आवश्यकता होगी। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है उन छह प्रमुख उत्सर्जकों की जलवायु परिवर्तन प्रबंधन रणनीति, जो 2023 तक के कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन का 74 फीसदी योगदान करते हैं। ये छह देश हैं- अमेरिका, यूरोपीय संघ (ब्रिटेन साहित), चीन, रूस, जापान और भारत।
विकसित देशों में संचयी उत्सर्जन के बजाय वर्तमान उत्सर्जन दर पर ध्यान केंद्रित करने की प्रवृत्ति है। 1995 के बाद से अमेरिका, यूरोप और जापान में उत्सर्जन दर में गिरावट आई है, जबकि चीन, रूस और भारत में यह बढ़ी है। हालांकि, यदि जनसंख्या के अनुपात में वर्तमान उत्सर्जन पर ध्यान दिया जाए, तो 2023 में विकसित देशों में प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन इस प्रकार था- अमेरिका में 14.3 टन, रूस में 12.5 टन, जापान में 7.9 टन और यूरोपीय संघ में 5.4 टन। इसके मुकाबले, चीन निश्चित रूप से एक बड़ा उत्सर्जक दिखाई देता है। वहां 2023 में प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 8.4 टन था, लेकिन भारत में 2023 में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन केवल 2.1 टन था।
अमेरिका सबसे गंभीर खतरा नजर आता है। वह तो 1990 के दशक में भी वार्ताओं को लेकर शंकालु था और अक्सर ताप वृद्धि को लेकर इंसानी जवाबदेही के प्रति शुबहा प्रकट करता था। इस नकारात्मक रुख में बाद में बदलाव आया। बराक ओबामा के शासन में अमेरिका ने पेरिस समझौते में शिरकत की और जो बाइडन ने जलवायु परिवर्तन से निपटने की दिशा में कई कदम उठाए।
परंतु डॉनल्ड ट्रंप के कदमों ने हालात बिगाड़ दिए हैं। उन्होंने पेरिस समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया और पिछली सरकारों द्वारा कार्बन उत्सर्जन कम करने संबंधी कदमों को वापस ले लिया। इसका असर अमेरिका द्वारा उत्सर्जन कम करने को लेकर जताए गए लक्ष्यों पर भी पड़ेगा। उसने 2030 तक 40 फीसदी उत्सर्जन कटौती करने का वादा किया था लेकिन अब वह 3 फीसदी तक ही संभव है। यानी वादे की तुलना में 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 2 अरब टन का इजाफा। जाहिर है जलवायु परिवर्तन को लेकर हालात बद से बदतर हो रहे हैं।
जलवायु परिवर्तन संभवत: तमाम समाजों और अर्थव्यवस्थाओं के भविष्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है। अधिकांश देशों में उचित नीतियों के अभाव में यह खतरा दिनोदिन बढ़ता ही जा रहा है। सरकारों की जलवायु परिवर्तन प्रबंधन के प्रति प्रतिबद्धताओं की यह बिगड़ती स्थिति नवंबर में होने वाले कॉप 30 सम्मेलन में अवश्य उठाई जानी चाहिए। अमेरिका का पेरिस समझौते से बाहर होना शायद उन समझौतों को कमजोर कर चुका है जो 10 साल पहले विकसित और विकासशील देशों के बीच हुए थे।
ब्राजील और भारत, जिनकी प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन दर 2023 में क्रमशः केवल 2.3 और 2.1 टन थी, इंडोनेशिया और मिस्र जैसे अन्य कम उत्सर्जन वाले विकासशील देशों के साथ मिलकर यूएनएफसीसीसी के ‘साझा लेकिन भिन्न जिम्मेदारियों’ के सिद्धांत की महत्ता को फिर से स्थापित कर सकते हैं। इसलिए, नवंबर में होने वाले कॉप 30 सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए कि विकसित देशों पर जलवायु परिवर्तन को कम करने के लिए तेज और विश्वसनीय कार्रवाई करने का दबाव बढ़ाया जाए।