प्रिय पाठको, आपके मन में यह सवाल उठ सकता है कि भला प्रोग्रामिंग की नयी भाषाओं की क्या आवश्यकता है, इनका इस्तेमाल तो आईटी के लोग करते हैं जो हमारे आपके कार्यालयों में एक कोने में बैठते हैं और हम उन्हें तब याद करते हैं जब हमारा लैपटॉप काम नहीं कर रहा होता है या हमारी ईमेल नहीं चल रही होती। यह भी कि अगर भारत के लोगों को सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नौकरियां मिल रही हैं और भारतीय आईटी कंपनियां अच्छी खासी कमाई कर रही हैं तो इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि किसी प्रोग्रामिंग लैंग्वेज के विकास में भारत का कोई योगदान है या नहीं। ऐसा सोचने वाले बहुत गलत नहीं हैं: भारतीय मूल के या भारत में शिक्षित लोग दुनिया भर की अग्रणी कंपनियों का नेतृत्व कर रहे हैं। माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और ट्विटर इसका उदाहरण हैं। इसके अलावा ऐसी कई अन्य भारतीय कंपनियां मसलन टीसीएस, इन्फोसिस, एचसीएल तथा अनेक अन्य कंपनियों से भारत को 150 अरब डॉलर की निर्यात राशि मिलती है। इन कंपनियों में करीब 50 लाख भारतीय प्रोग्रामर के रूप में काम करते हैं। देश के जीडीपी में आईटी उद्योग का योगदान करीब 8 फीसदी का है। परंतु चौंकाने वाली बात यह है कि भारत ने दुनिया की किसी प्रोग्रामिंग भाषा के विकास में योगदान नहीं किया है।
इससे पहले कि आप दोबारा सवाल करें कि इससे क्या फर्क पड़ता है, एक मिनट के लिए मेरी बात सुनिए। प्रिय पाठको, मैं आपके सामने यह स्पष्ट करूंगा कि एक प्रोग्रामिंग भाषा समाज के लिए क्या करती है। प्रोग्रामिंग भाषाएं वे उपाय हैं जिनकी मदद से हम उन समस्याओं को हल करने का प्रयास करते हैं जो इतनी जटिल हैं कि उन्हें केवल कंप्यूटर की मदद से ही हल किया जा सकता है। याद करिये कि अपनी युवावस्था में जब आप अपने माता-पिता को अंतर्देशीय पत्र लिखा करते थे और उन्हें बताते थे कि गांव-घर से बहुत दूर बड़े शहर में आपकी नयी नौकरी कैसी चल रही है तो इस पत्र को उन तक पहुंचने में एक सप्ताह का वक्त लगता था और उनका जवाब आने में एक सप्ताह और लगता था। आप ध्यान दीजिए कि अब आप एक सेकंड से भी कम समय में उन्हें मेल भेज सकते हैं, व्हाट्सऐप पर संदेश भेज सकते हैं या फिर उन्हें वीडियो संदेश भी भेज सकते हैं।
मैं आपके अगले प्रश्न का अनुमान लगा सकता हूं: लोग ऐसी मनोरंजक/ उपयोगी सेवाओं के लिए कौन से उपकरण इस्तेमाल करते हैं तो पाठको इसका जवाब है कि वे एक प्रोग्रामिंग भाषा का इस्तेमाल करते हैं। मैं आपकी चढ़ी हुई भौंहों से अगले प्रश्न को भांप सकता हूं। आप कहेंगे, ‘मैंने पूछा कौन से उपकरण और आप मुझे भाषा के बारे में बता रहे हैं…भाषा का अर्थ है हिंदी, अंग्रेजी, तमिल आदि…आप कहना चाहते हैं कि लोग ऐसी एक और भाषा सीखें ताकि वे दूसरों से खासतौर पर विशेषज्ञों से बातचीत कर सकें और जो उसी भाषा में जवाब देकर बताएंगे कि कोई ऐप या वेबसाइट कैसे बनाई जाती है।’
मैं इस सवाल का जवाब तलाश ही रहा होऊंगा कि आपका अगला प्रश्न आ जाएगा, ‘ठीक है। मुझे प्रोग्रामिंग भाषा का एक उदाहरण दीजिए और बताइए कि मेरे जीवन में इसका क्या महत्त्व है।’
मैं कहूंगा, ‘दुनिया पर राज कर रही ऐसी ही एक भाषा है पाइथन।’
संभव है इसके उत्तर में आप कहें, ‘मैंने पाइथन के बारे में सुना है लेकिन यह तो एक तरह का बड़ा सांप है न…सांप कैसे ऐप या वेबसाइट बनाने में मदद कर सकता है।’
यह बात सही है कि यह एक सांप का नाम भी है। दरअसल पाइथन प्रोग्रामिंग भाषा के रचनाकार नीदरलैंड के गिडो वॉन रॉसम और उनके मित्र सन 1980 के दशक में बीबीसी के कार्यक्रम के भारी प्रशंसक थे जिसका शीर्षक था ‘मॉन्टी पाइथन ऐंड हिज फ्लाइंग सर्कस।’ यह वजह है कि उन्होंने अपनी प्रोग्रामिंग भाषा को पाइथन का नाम दिया। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि गूगल सर्च, इंस्टाग्राम, नेटफ्लिक्स, उबर, ड्रॉपबॉक्स, पिंटरेस्ट जैसी अनेक वेबसाइट का निर्माण इसी प्रोग्रामिंग भाषा पर हुआ है।
आपके मन में शायद अगला विचार यह होगा, ‘मैं शर्त लगा सकता हूं कि गिडो, वान रॉसम बहुत अमीर व्यक्ति होंगे…पाइथन से उन्होंने कितने अरब डॉलर की राशि बनाई?’
अपनी सांसें थाम लीजिए, ‘उन्होंने एक पैसा भी नहीं कमाया।’ दिसंबर 1989 में वान रॉसम एक शौकिया प्रोग्रामिंग परियोजना के लिए काम कर रहे थे जो उन्हें क्रिसमस के आसपास के दिनों में व्यस्त रखती क्योंकि उन दिनों उनका कार्यालय बंद रहने वाला था। उसी समय उन्होंने पाइथन लिखने का निर्णय लिया। इसके पश्चात उन्होंने इसे पूरी दुनिया के नि:शुल्क इस्तेमाल के लिए उपलब्ध करा दिया।
गिडो वान रॉसम और पाइथन जैसा उनका तोहफा कंप्यूटर भाषा तैयार करने वालों की उदारता का कोई इकलौता उदाहरण नहीं है। वल्र्ड वाइड वेब के रचयिता टिम बर्नर्स ली जो स्वयं एक ब्रिटिश वैज्ञानिक थे, ने सन 1989 में इसे तब बनाया था जब वह स्विटजरलैंड की एक सरकारी प्रयोगशाला सीईआरएन में काम कर रहे थे। उन्होंने भी इसे दुनिया को नि:शुल्क दिया।
ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जहां ऐसे निर्माताओं ने अपनी रचना दुनिया को भेंट कर दी लेकिन असल सवाल यह है कि जब भारत मे हजारों लोगों के पास वान रॉसम और बर्नर्स ली जैसी काबिलियत है और भारत में सीईआरएन से कई गुना बड़ी सरकारी प्रयोगशालाएं हैं तो भारत पाइथन या वल्र्ड वाइड वेब जैसा एक भी बड़ा विचार क्यों नहीं तैयार कर पाया?
इसका एक उत्तर इलिनॉय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और भारतीय मूल के शोधकर्ता राकेश कुमार की ओर से मिलता है। उनकी इस वर्ष आई पुस्तक का शीर्षक ही संभावित जवाब देता है: रेलक्टैंट टेक्रोफिलीज: इंडियाज कॉम्प्लिकेटेड रिलेशनशिप विद टेक्रॉलजी। भारतीयों में तकनीक के प्रति इस अनिच्छा के कारणों को समझने के अपने के क्रम में वह एक ध्यान देने लायक बात यह कहते हैं कि देश की टेक कंपनियों के शीर्ष प्रबंधन पर उच्च वर्ण के शहरी पुरुषों का कब्जा है जो व्यापक भारतीय बाजार की उत्पाद जरूरतों को नहीं समझते जो 70 प्रतिशत ग्रामीण है। वह कई संदर्भों के साथ यह बताते हैं कि शीर्ष प्रबंधन में किस प्रकार की विविधता के साथ दुनिया भर की कंपनियां आगे बढ़ रही हैं।
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि हजारों वर्ष पहले शून्य और बीजगणित का अविष्कार करने वाले भारतीयों को क्या हो गया है और आज की दुनिया में हम कोई प्रोग्रामिंग भाषा क्यों नहीं तैयार कर पा रहे हैं? अपने पुरखों के उलट हम दूसरों के अविष्कारों से पैसे कमाने में लगे हैं।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)