कोविड-19 संकट ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नीतिगत परिवेश को बेहद जटिल बना दिया है। अगली कुछ तिमाहियों में मौद्रिक नीति, वित्तीय क्षेत्र नियमन और राजकोषीय नीति से संबंधित निर्णयों का अर्थव्यवस्था पर स्थायी प्रभाव देखने को मिलेगा। जहां तक मौद्रिक नीति का सवाल है तो कुल मुद्रास्फीति कई महीनों से निर्धारित लक्ष्य के ऊपरी दायरे में रही है जिससे खासी नीतिगत अनिश्चितता पैदा हुई है। अगर यह तेजी से नीचे नहीं आती है तो मौद्र्रिक नीति समिति (एमपीसी) को उपचारात्मक कदम उठाने होंगे।
हालांकि उत्पादन में हो रही कमी के बीच ब्याज दरों को बढ़ा पाना आसान नहीं होगा। नीतिगत दर पर फैसला लेने वाली समिति संभवत: निकट समय में ब्याज दरों को स्थिर बनाए रखेगी। ऐसा होने पर मौद्रिक नीति वास्तविक अर्थव्यवस्था को अधिक समर्थन नहीं दे पाएगी। अगर केंद्रीय बैंक दरों में कटौती करने का फैसला करता है तब भी इसका मनचाहा असर नहीं हो पाएगा क्योंकि बाजार इसकी सीमा को कम करने और एक त्वरित बहाली की संभावना की राह में आएंगे।
इसके अलावा नीति-निर्माण में निकट अवधि की जटिलताओं से परे मुद्रास्फीति लक्ष्य की कुछ महीनों में ही समीक्षा की जाएगी। भले ही मुद्रास्फीति पिछले महीनों में लक्षित दायरे से अधिक रही है लेकिन मुद्रास्फीति निर्धारण ढांचे के लचीला होने से यह कारगर साबित हुआ है। फिर भी कुछ टिप्पणीकारों ने सलाह दी है कि ऊंची मुद्रास्फीति को जगह देने के लिए मुद्रास्फीति लक्ष्य को संशोधित किया जाना चाहिए या फिर मौद्रिक नीति ही प्रमुख मुद्रास्फीति पर केंद्रित की जाए। ऊर्जित पटेल समिति ने इन सभी मुद्दों पर विचार कर रुख साफ कर दिया था।
भले ही मूलभूत तर्क में कोई परिवर्तन नहीं आया है लेकिन सरकार समूचे ढांचे की समीक्षा के लिए एक विशेषज्ञ पैनल का गठन कर सकती है। हालांकि यह सुनिश्चित करना होगा कि अगर कोई परिवर्तन किए जाते हैं तो उनके पीछे वाजिब कारण हों। अगर ऐसी धारणा बनती है कि नीतिगत प्रतिष्ठान केवल ऊंची मुद्रास्फीति को आत्मसात करने के लिए ऐसा कर रहा है तो उससे नीतिगत विश्वसनीयता प्रभावित होगी और वित्तीय स्थायित्व के बारे में जोखिम भी बढ़ेगा। वास्तव में, इसके पीछे सोच मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारण ढांचे को सशक्त करने की होनी चाहिए। विगत अतीत में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने रिवर्स रीपो दर में कटौती करने का फैसला किया है। हालांकि रिवर्स रीपो पर फैसला करना एमपीसी के अधिकार-क्षेत्र के बाहर रखा गया है लेकिन इसे नीतिगत रीपो दर से जोड़ा गया है और आर्थिक प्रणाली में तरलता बढऩे पर रीपो दर तय करने वाली समिति व्यावहारिक रूप से फालतू हो जाती है। इस तरह तरलता अधिशेष की स्थिति में रिवर्स रीपो दर ही प्रभावी दर हो जाती है और आरबीआई तकनीकी रूप से एमपीसी के बाहर भी ब्याज दर में कटौती कर सकता है। लेकिन एमपीसी को दरकिनार किए जाने के किसी भी संकेत से परहेज करना चाहिए। अगर ब्याज दरों में कटौती करने की जरूरत है तो यह काम केवल एमपीसी के माध्यम से ही किया जाना चाहिए।
खास तवज्जो की मांग करने वाला एक अन्य मुद्दा वित्तीय क्षेत्र की हालत है। कर्ज भुगतान पर दी गई छूट जल्द ही खत्म होने वाली है और आरबीआई ने कर्ज के एकबारगी पुनर्गठन की मंजूरी दे दी है। जहां इस पुनर्गठन कार्यक्रम के ब्योरे को अनुभवी बैंकर के वी कामत की अगुआई वाला एक पैनल अंतिम रूप दे रहा है, वहीं यह सुनिश्चित करना भी जरूरी होगा कि बैंक इस व्यवस्था का इस्तेमाल अपने फंसे कर्ज को छिपाने के लिए न करें। बैंकिंग नियामक आरबीआई को बैंकों एवं गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) के बहीखाते की जांच करते समय अधिक सजग रहने की जरूरत होगी। किसी बैंक के बहीखाते की वास्तविक स्थिति लंबे समय तक छिपे रहने की स्थिति से बचा जाना चाहिए।
वित्तीय प्रणाली में फंसे कर्ज की समस्या गहराने की बढ़ती आशंका वित्तीय स्थायित्व एवं आर्थिक प्रगति दोनों के लिए खतरा पैदा कर सकती है। आरबीआई को यह सुनिश्चित करने की जरूरत होगी कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पर्याप्त पूंजी डाले और वह ऋण वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए नियमों को शिथिल न करने लगे। रिजर्व बैंक के पूर्व डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने भी अपनी किताब ‘क्वेेस्ट फॉर रीस्टोरिंग फाइनैंशियल स्टेबिलिटी इन इंडिया’ में कहा है कि आरबीआई को नियामकीय सहिष्णुता पर सरकार के साथ संवाद में खींच लिया जाता है क्योंकि नुकसान को समय पर स्वीकार कर लेने से सार्वजनिक बैंकों के लिए अतिरिक्त पूंजी जरूरी हो जाती है और बजट पर दबाव बढ़ जाता है। सरकार और नियामक दोनों को ही इस स्थिति से बचने की जरूरत है। आने वाली तिमाहियों में रिजर्व बैंक बढ़ते वित्तीय तनाव से जिस तरह निपटेगा, वह वित्तीय स्थायित्व सुनिश्चित करने के अलावा वृद्धि को सशक्त करने के लिए अहम होगा। इसका पहला इम्तिहान कर्ज पुनर्गठन कार्यक्रम में ही हो जाएगा।
आखिर में, यह काफी महत्त्वपूर्ण होगा कि सरकार मध्यम अवधि में अपने वित्त का प्रबंधन किस तरह करती है। केंद्र सरकार ने अपनी उधारी लक्ष्य को बजट अनुमान से 50 फीसदी तक बढ़ा दिया है। लेकिन इसने संशोधित उधारी लक्ष्य का 50 फीसदी हिस्सा तो पहली तिमाही में ही पार कर लिया है। इसका मतलब है कि दूसरी तिमाही में हालात सुधरने पर भी बढ़ी उधारी का इस्तेमाल काफी हद तक राजस्व में आई गिरावट की भरपाई के लिए किया जाएगा। कुछ लोगों के सुझावों के विपरीत सरकार अपना व्यय बढ़ाकर आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाने की हालत में शायद नहीं है। इस बारे में सरकार को निकट अवधि में एक फैसला लेने की जरूरत होगी।
सरकारी उधारी में खासी बढ़ोतरी होने से कर्ज का बोझ बढ़ेगा। इसके पहले से ही इस साल अधिक रहने की आशंका जताई जा रही है। राज्यों के लिए उधारी की सीमा में आगे चलकर और छूट दी जा सकती है क्योंकि वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) संग्रह में खासी गिरावट दर्ज की गई है। हालांकि सामान्य सरकारी घाटा इस पर निर्भर करेगा कि महामारी का प्रकोप खत्म होने के बाद आर्थिक वृद्धि दर कितनी कम रहती है। वृद्धि दर में गिरावट से ऋण टिकाऊपन संबंधी जोखिम बढ़ सकते हैं। इस लिहाज से नीति-निर्माताओं को अर्थव्यवस्था की तात्कालिक जरूरतों एवं दीर्घावधि आर्थिक स्थायित्व को कायम रखने के बीच बढिय़ा संतुलन साधने की जरूरत होगी।