वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण इसी हफ्ते 2025-26 का बजट पेश करेंगी। पुराने रुझान देखें तो उनके भाषण का बड़ा हिस्सा विकास कार्यक्रमों और अन्य मंत्रालयों द्वारा क्रियान्वित की जाने वाली योजनाओं के बारे में होगा। गत वर्ष वित्त मंत्री के बजट भाषण में 165 पैराग्राफ शामिल थे और इनमें से ज्यादातर में व्यय प्रस्तावों की ही बात थी। बजट का तकरीबन 79 फीसदी हिस्सा इसी पर केंद्रित था। व्यय प्रस्तावों में प्राथमिक तौर पर कार्यक्रमों की बात थी, जो यकीनन उन सरकारी विभागों ने तैयार किए होंगे, जिनके जिम्मे उनका क्रियान्वयन होता है।
वित्त मंत्री को व्यय के तरीके का इशारा देने कि लिए विभिन्न क्षेत्रों के कार्यक्रमों के वास्ते धन की व्यवस्था करने पर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए। उसके बजाय उन्हें वृहद आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक वित्तीय प्रबंधन के नजरिये से इसे देखना और दिखाना चाहिए। लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान बजट भाषणों में तमाम सराकारी विभागों द्वारा किए जा रहे विकास के प्रयासों का प्रचार-प्रसार को कुछ ज्यादा अहमियत दी गई है।
इसे बदलना होगा। बजट का अधिकांश हिस्सा वित्त मंत्रालय द्वारा लिए गए निर्णयों और उपायों पर केंद्रित होना चाहिए। इन उपायों में बजट प्रबंधन खास है यानी बजट के संसाधन किस तरह जुटाए जाएंगे और वृद्धि तथा विकास पर इनका क्या प्रभाव होगा। इसमें खरीदारों और विक्रेताओं तथा बचतकर्ताओं और निवेशकों को मिलाने वाली वित्तीय मध्यवर्ती व्यवस्था तैयार करने और संभालने की रणनीत भी शामिल होनी चाहिए। इसमें यह भी बताया जाना चाहिए कि पिछले साल के बजट में की गई प्रमुख घोषणाओं के क्या नतीजे निकले।
वित्त मंत्रालय का सबसे अहम प्रभाव अर्थव्यवस्था की अल्पकालिक और मध्यम अवधि की तात्कालिक संभावनाओं पर पड़ता है। फिलहाल वृद्धि के मामले में सबसे अहम नीतिगत चुनौती है विनिर्माण क्षेत्र की वृद्धि और दीर्घकालिक संभावनाओं में धीमापन। कोविड वाले साल छोड़ दिए जाएं तो तयशुदा निवेश में तेजी से उछाल आई और 2023-24 के दूसरे अग्रिम अनुमान के अनुसार यह वर्तमान मूल्यों पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 31.3 फीसदी हो गया। अब भी यह 2011-12 के 34.3 फीसदी के उच्चतम स्तर से कम है। राष्ट्रीय लेखा से यह भी पता चलता है कि जीडीपी के प्रतिशत के रूप में विनिर्माण और खनन में तयशुदा निवेश की हिस्सेदारी 2022-23 में 5.3 फीसदी रह गई, जो 1990-91 में उदारीकरण शुरू होने पर 6.4 फीसदी थी। सकल मूल्यवर्धन में विनिर्माण की हिस्सेदारी भी 1990-91 के 21 फीसदी से कम होकर 2022-23 तक 16 फीसदी रह गया।
सेवा क्षेत्र में भारी इजाफा हुआ और जीडीपी के अनुपात के रूप में तयशुदा निवेश की हिस्सेदारी 1990-81 के 4.5 फीसदी से बढ़कर 2022-23 तक 9.2 फीसदी हो गई। इस आधार पर कहा जा सकता है कि उदारीकरण के बाद वृद्धि का एक बड़ा हिस्सा सेवा उपक्रमों में इजाफे के रूप में सामने आया खास तौर पर निर्यात करने वाली आईटी कंपनियों और ई-कॉमर्स तथा ई-फाइनैंस में तेज वृद्धि के रूप में।
बजट निर्माण में एक अन्य अहम कारक है 1991 के उदारीकरण के बाद सरकारी क्षेत्र के बजाय निजी क्षेत्र पर जोर देना। मगर निवेश में इस बदलाव से कंपनियों की खर्च करने की क्षमता इतनी नहीं बढ़ पाई कि वह राजकोषीय प्रणाली के जरिये निवेश संसाधन जुटाने की सार्वजनिक क्षेत्र की उस क्षमता का मुकाबला कर सके, जो उदारीकरण से पहले थी। साथ ही बजट संसाधन भी तयशुदा निवेश से हटाकर सब्सिडी और मुफ्त उपहारों में खर्च किए जाने लगे हैं। इसके कारण केंद्र सरकार की देनदारियों के अनुपात में उसकी संपत्तियां काफी कम हो गईं। 1950-51 में यह अनुपात 67 फीसदी था, जहां से बढ़कर 1960 के दशक के आरंभ में 100 फीसदी हो गया और 1980 के आरंभ तक इसी स्तर पर बना रहा क्योंकि सरकारी क्षेत्र के औद्योगिक और बुनियादी ढांचा निकायों में निवेश पर जोर दिया गया। तब से अब तक इसमें लगातार गिरावट आई है और 1990-91 के 75 फीसदी से कम होकर यह 2023-24 तक 42 फीसदी रह गया। इस दौरान सब्सिडी और मुफ्त रेवड़ियों पर ज्यादा जोर दिया गया। चुनावों में रेवड़ियों की बढ़ती भूमिका ने भी सरकार का परिसंपत्ति-देनदारी अनुपात कम किया होगा।
सरकार ने 2019 में कॉरपोरेट टैक्स दर को 30 फीसदी से घटाकर 22 फीसदी किया था और विनिर्माण को प्रोत्साहन देने का प्रयास किया था लेकिन इसका कारोबारी निवेश पर सकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ा। वित्त मंत्रालय को समझना होगा कि कंपनियों से निवेश को बढ़ावा मांग बढ़ने और प्रतिस्पर्द्धा की संभावना होने से मिलता है। इन दोनों को उसके क्षेत्राधिकार में आने वाली कई नीतिगत पहलों की मदद से गति दी जा सकती है। इस वर्ष बजट भाषण में प्राथमिक रूप से ध्यान यह बात की जानी चाहिए कि उसकी नीतियां मांग में वृद्धि को गति देने के लिए क्या करेंगी और देश के भीतर तथा बाहर होड़ पर उनका क्या असर होगा। आय वितरण पर कर ढांचे के असर की बात करें तो हालिया वर्षों में उसे शायद ही भी इतना अधिक महत्त्व मिला हो। मांग में वृद्धि पर इसके असर को ही ज्यादा तरजीह दी गई है। देश के भीतर मांग बढ़ाने पर वित्त मंत्रालय के प्रत्यक्ष प्रभाव की बात करें तो वह व्यक्तिगत कर की दरों निर्भर करेगा, जो फिलहाल ठीक हैं और उनमें फेरबदल महंगाई के हिसाब से ही की जानी चाहिए। हाल ही में बिना किसी बड़ी रियायत के वैकल्पिक दरों में किए गए बदलाव प्रभावी नजर आते हैं। व्यक्तिगत आयकर में बदलाव वेतनभोगी मध्य वर्ग और छोटे उद्यमियों की खर्च करने की क्षमता पर असर पड़ेगा।
किंतु हमें मांग में जिस वृद्धि की जरूरत है वह निम्न आय समूहों से आती है, जो कर दायरे से बाहर हैं। इस पर असर का आकलन करने के लिए देखना होगा कि बजट के कार्यक्रम और नीतियां छोटे उद्यमों की वृद्धि को कितनी रफ्तार देती हैं क्योंकि भारत में कृषि से हटकर रोजगार बढ़ाने का यह अहम जरिया है। वित्त मंत्री ने गत वर्ष के बजट में सूक्ष्म, लघु और मझोले उपक्रमों को लेकर कुछ सहायक कदमों की घोषणा अवश्य की थी। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इस दिशा में गत वर्ष क्या हासिल हुआ खास तौर पर उत्तर के राज्यों में। यह वित्त मंत्रालय की सीधी जवाबदेही वाला ऐसा क्षेत्र है, जो गरीबी और असमानता में कमी लाने में अहम भूमिका निभा सकता है।
जहां तक बात कॉरपोरेट क्षेत्र की महत्त्वाकांक्षा को बढ़ावा देने की है तो इसकी कुंजी उत्पादों को प्रोत्साहन देने तथा प्रक्रिया विकास में निहित है। इसका सबसे प्रभावी उपाय है देश की अर्थव्यवस्था को वैश्विक होड़ के लिए खोलना। इसके लिए शुल्कों के जरिये देसी उद्योगों को सुरक्षा देने का रवैया छोड़ना पड़ेगा और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की उदार नीति अपनानी होगी। गत वर्ष के बजट में निजी क्षेत्र में शोध एवं विकास को बढ़ावा देने के लिए एक अहम कार्यक्रम शामिल था। वित्त मंत्री को बताना चाहिए गत वर्ष इसका किस प्रकार क्रियान्वयन किया गया।
वित्त मंत्रालय के लिए एक और अहम काम है वित्तीय मध्यस्थता को बढ़ावा देना। निजी क्षेत्र के बल पर वृद्धि हासिल करने के लिए यह जरूरी है। हाल के वर्षों में कई सकारात्मक घटनाएं घटी हैं, इनमें गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों, इंटरनेट पर काम करने वाले वित्तीय मध्यस्थों तथा यूपीआई का तेज विस्तार शामिल है, जिससे एमएसएमई के लिए मार्केटिंग के नए अवसर तैयार होते हैं। एक क्षेत्र जिसमें पहल करने की जरूरत है वह है देसी वेंचर कैपिटल फाइनैंसिंग को बढ़ावा देना। ऐसा इसलिए क्योंकि स्टार्टअप रोजगार को बढ़ावा देने के लिए जरूरी हैं। वित्त मंत्री को अपने भाषण का बड़ा हिस्सा वित्तीय मध्यस्थों के विकास की व्यापक रणनीति बताने में लगाना चाहिए।
मोटे तौर पर कहें तो तो वित्त मंत्री को अपने बजट भाषण में उन बातों पर अधिक ध्यान देना चाहिए, जिनके लिए वह सीधे तौर पर जिम्मेदार हैं न कि उन कार्यक्रमों पर जहां उनकी भूमिका सहायक की ही रही है।