वर्ष 1950 के दशक में विभिन्न विषयों के ज्ञाता, अफसरशाह एवं भौतिक शास्त्री सी पी स्नो ने ‘द टू कल्चर्स’ शीर्षक नाम से एक लेख लिखा था।
अपने इस लेख में स्नो ने विज्ञान एवं मानविकी विषयों के बीच खींची गई विभाजन रेखा का जिक्र किया था। लेख में उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया था कि वास्तविक संसार की समस्याओं के समाधान के लिए नीतियां तैयार करने में अध्ययन की इन दोनों विधाओं में विभाजन किस तरह बड़ी बाधा साबित हो रही है।
स्नो ने कहा कि मानविकी विषयों के साथ उच्च शिक्षा प्राप्त लोग ‘द्रव्यमान’ (मास), ‘त्वरण’ (एक्सलरेशन) या ‘उष्मागतिकी का दूसरा नियम’ (सेकंड लॉ ऑफ थर्मोडायनेमिक्स) परिभाषित नहीं कर पाएंगे।
स्नो ने यह भी कहा कि ठीक इसी तरह प्रशिक्षित वैज्ञानिक भी शेक्सपियर के प्रसिद्ध वक्तव्य से अनभिज्ञ होते हैं और वे कई कालजयी रचनाओं के ज्ञान से वंचित रह जाते हैं।
कोविड-19 महामारी के दौरान तो अध्ययन की दोनों धाराओं में यह विभाजन व्यक्तिगत रूप से मुझे दिखने भी लगा। कोविड महामारी से बचाव के लिए लगाए गए पहले लॉकडाउन के दौरान इतिहास विषय से स्नातकोत्तर मेरे एक मित्र ने मुझे घातीय वृद्धि (एक्स्पोनेंशियल ग्रोथ) को परिभाषित करने के लिए कहा।
उन्होंने मुझसे यह भी पूछा कि कोई महामारी के प्रसार को कैसे समझ सकता है और महामारी की रोकथाम एवं इससे निपटने के उपाय किस तरह सुझा सकता है।
मैं महामारी विज्ञान विशेषज्ञ नहीं हूं। मगर इसे समझने के लिए आवश्यक बुनियादी गणित सदियों पुराना है और उच्च विद्यालयों में पढ़ाया जाता है। मैंने अपने मित्र को दोहरीकरण के सिद्धांत के जरिये समझाने का प्रयास किया। मान लें कि एक संक्रमित व्यक्ति दो लोगों को संक्रमित करता है और फिर दोनों व्यक्तियों में प्रत्येक अन्य दो-दो लोगों को संक्रमित करता है। इस तरह महामारी फैलती जाती है।
इस उदाहरण से मैंने उन्हें समझाया कि किस तरह कोई महामारी तेजी से फैल सकती है। उसके बाद मैंने डिफरेंशियल कैलकुलस की संकल्पना समझाई और बताया कि यह किस तरह उन दरों की गणना के उपाय बताता है जिस पर ढलान (कर्व) अपने रुझान बदलते हैं।
मैंने उसे बेयस की सशर्त संभाव्यता (कंडीशनल प्रोबेबिलिटी) के कुछ बुनियादी सिद्धांतों को भी समझाया। बेयस की सशर्त संभाव्यता कुछ शुरुआती सिद्धांतों के साथ आगे बढ़ती है और जैसे-जैसे नई सूचनाएं मिलती हैं वैसे-वैसे इन सिद्धांतों में बदलाव होते रहते हैं।
इन सिद्धांतों का इस्तेमाल आबादी में संक्रमण के सटीक अनुमानों तक पहुंचने के लिए आवश्यक संकलित नमूने के आकार एवं इसकी संरचना की गणना के लिए किया जा सकता है। मैंने उन्हें सामूहिक प्रतिरोधक क्षमता जैसी संबंधित संकल्पना और किसी आबादी में संक्रमण की आवृत्ति का अनुमान लगाने के बारे में भी बताया।
इसमें शक नहीं कि महामारी विज्ञान विशेषज्ञ जिन प्रारूपों का इस्तेमाल करते हैं वे अत्याधुनिक हैं। मगर बुनियादी बातें समझना बहुत मुश्किल नहीं है। 60 वर्ष की उम्र पार कर चुके मेरे मित्र ने कभी प्रोबेबिलिटी या कैलकुलस की पढ़ाई नहीं की थी मगर उन्हें निहित बातें आसानी से समझ में आ गईं।
ऐसा भी नहीं है कि मेरे समझाने भर से वे उच्च विद्यालय की गणित की परीक्षा पास करने जितनी योग्यता हासिल कर लेंगे। मगर उनमें यह आत्म विश्वास जरूर आया था कि महामारी के लेकर जिस तरह अनुमान लगाए जाते हैं उनके तौर-तरीकों को समझा जा सकता है।
इसके बाद उन्होंने स्वयं ही प्लेग और 1918 में आए फ्लू, यूरोप के ब्यूबोनिक प्लेग, 19वीं शताब्दी में फैली हैजा महामारी आदि की तरफ मेरा ध्यान खींचा। ये ऐसी जानकारियां थीं जो शायद पाने में मुझे संघर्ष करना पड़ता। मुझे यह समझने में आसानी हुई कि किस तरह बड़ी आबादी और उनके शासकों ने महामारी से निपटने के प्रयास किए।
इसका नतीजा यह हुआ कि मैं कोविड महामारी की दूसरी, तीसरी लहर के लिए तैयार था और जब टीके आने शुरू हे गए तो मैंने सरकार के प्रति आभार जताया।
सरल शब्दों में कहें तो ‘द टू कल्चर्स’ पर बहस में मैं भी शामिल हो गया। महामारी जैसी स्थिति से निपटने के लिए नीति निर्धारकों को विज्ञान एवं मानविकी दोनों धाराओं की कुछ हद तक समझ होनी चाहिए। इससे उन्हें प्रभावी निर्णय लेने में आसानी होगी।
उन्हें महामारी विज्ञान विशेषज्ञों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले गणितीय एवं सांख्यिकीय प्रारूपों को समझने की क्षमता के साथ ही ऐतिहासिक प्रतिरूप की भी जानकारी होनी चाहिए। ऐतिहासिक प्रतिरूप की जानकारी होने से उन्हें यह समझने में मदद मिलेगी कि बड़ी संख्या में लोगों को बचाने में किन प्रयासों की जरूरत होती है।
दोनों विधाओं में गहरा विभाजन कई अन्य उलझन भरी स्थितियों का संभावित स्पष्टीकरण हो सकता है। आखिर बीटामैक्स क्यों विफल हुआ और वीडियोटेप के साथ वीएचएस की लोकप्रियता कैसे बढ़ गई? बीटामैक्स रिजॉल्यूशन के लिहाज से उच्च गुणवत्ता वाला था। मगर वीएचएस की मदद से अधिक देर तक रिकॉर्डिंग संभव हो पाई। यानी एक कैसेट में अधिक सामग्री मिलने लगी और ये कम कीमतों पर उपलब्ध होने लगीं।
यह 20वीं शताब्दी के शुरू के चलन से थोड़ा अलग था। जिन प्रकाशकों ने पेपरबैक बेचे उनकी गाड़ी चल निकली मगर जिन्होंने सुंदर ढंग से मुद्रित, महंगे चमड़ा युक्त हार्डबैक तैयार किए वे दिवालिया हो गए।
दोनों विधाओं में विभाजन महामारी के प्रबंधन में स्पष्ट रूप से समझने में भी एक बड़ी बाधा थी। टीके का विरोध करने वाले लोगों ने सामूहिक प्रतिरोधी क्षमता को समझने से इनकार कर दिया, वहीं मास्क नहीं लगाने वाले जोखिम लेते रहे।
वैज्ञानिक एवं नीति निर्धारक आबादी के एक बड़े हिस्से को कोविड उपयुक्त व्यवहार अपनाने के लिए राजी करने में विफल रहे। यह विभाजन मानव जनित जलवायु परिवर्तन से निपटने में भी एक बड़ी बाधा बनी। इससे पहले कि ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने के उपाय कारगर हों वैश्विक शिक्षा प्रणाली में बदलाव कर इस विभाजन को पाटना जरूरी है।