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स्वतंत्र नियामक संस्थाओं को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाना लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी

अमेरिका में हाल में हुए घटनाक्रम इस बात के संकेत देते हैं कि स्वतंत्र नियामकों को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचाने की जरूरत है। बता रहे हैं केपी कृष्णन

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के पी कृष्णन   
Last Updated- September 23, 2025 | 11:11 PM IST

अमेरिका से आई हाल की खबरों के मुताबिक, राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने फेडरल रिजर्व की गवर्नर लिसा कुक को बर्खास्त करने की कोशिश की। यह एक अभूतपूर्व कदम है जिसके कारण कुक ने पद छोड़ने से इनकार करते हुए ट्रंप के खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। फेडरल अपील अदालत ने ट्रंप के ​खिलाफ आदेश भी दिया। कानून के मुताबिक राष्ट्रपति किसी गवर्नर को सिर्फ ‘कारण बताकर’ ही हटा सकते हैं। ट्रंप के न्याय विभाग ने इससे पहले उनके खिलाफ आपराधिक जांच शुरू की थी और ट्रंप का दावा है कि उन्हें बर्खास्त करने के लिए यह पर्याप्त आधार है।

यह घटनाक्रम लोकतंत्र में शासन के एक मूलभूत सिद्धांत की याद दिलाता है जो शक्तियों के विभाजन और उसके दूसरे पहलू, नियंत्रण और संतुलन से जुड़ा है। हालांकि, यह घटनाक्रम भले ही पूरी तरह अमेरिका से जुड़ा हुआ है लेकिन इससे जो बहस छिड़ती है, उसका ताल्लुक लोकतांत्रिक जवाबदेही बनाम संस्थागत स्वायत्तता से है और यह भारत में भी उतना ही प्रासंगिक है।

यह धारणा कि ‘लोकतांत्रिक जवाबदेही’ वास्तव में कार्यपालिका को ऐसी निरंकुश शक्ति देती है, न केवल गलत है बल्कि यह शासन की आधुनिक संरचनाओं की अपर्याप्त समझ को भी दर्शाती है। सत्ता से जुड़ी आधुनिक संरचनाओं को देखने से पहले, यह जानना जरूरी है कि भारत में हमने एक ऐसा संवैधानिक ढांचा बनाया है जिसे सत्ता के ऐसे केंद्रीकरण को रोकने के लिए तैयार किया गया है।

हमारी व्यवस्था सत्ता के अलग और विशिष्ट क्षेत्रों की पहचान करती है जिनमें से प्रत्येक की अपनी जवाबदेही है। कार्यपालिका, विधायिका के प्रति जवाबदेह है। विधायिका चुनावों के माध्यम से जनता के प्रति जवाबदेह है। न्यायपालिका, एक अलग शाखा है जो न्यायिक समीक्षा की एक कठोर, कभी-कभी धीमी प्रक्रिया और कुछ चरम स्तर के मामलों में संसदीय महाभियोग के माध्यम से अपने कार्यों के लिए जवाबदेह है। न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की कार्यपालिका की शक्ति का विस्तार, उन्हें मनमर्जी से हटाने तक नहीं होता है। यह महत्त्वपूर्ण अंतर ही वास्तव में न्यायिक स्वतंत्रता का सार है।

हम यही संरचना अन्य ‘संरक्षक संस्थानों’ जैसे कि भारत निर्वाचन आयोग, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) और संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) के संदर्भ में भी देखते हैं। जहां तक पद से हटाने की बात है तो पहले दो संस्थान, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बराबर हैं। यूपीएससी के सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा कदाचार के आधार पर तभी हटाया जा सकता है जब उच्चतम न्यायालय ने जांच की हो और यह बताया हो कि सदस्य को हटाया जाना चाहिए।

संविधान स्पष्ट रूप से उस संस्था का उल्लेख नहीं करता है जिसे दुनिया के अन्य हिस्सों में ‘सरकार की चौथी शाखा’ और भारत में सांविधिक नियामकीय प्राधिकरण (एसआरए) कहा जाता है। हालांकि, ऊपर बताए गए सिद्धांत एसआरए पर भी समान रूप से लागू होते हैं। एसआरए को संसद द्वारा विशिष्ट कार्य करने के लिए बनाया जाता है जिनके लिए विशेषज्ञता, निरंतरता और राजनीतिक तटस्थता की आवश्यकता होती है। जैसे-जैसे बाजार विकसित हुए और उपभोक्ता संरक्षण की आवश्यकता बढ़ी, भारत के प्रबुद्ध संसद सदस्यों द्वारा कई एजेंसियां बनाई गईं। इस संरचना के अनुसार, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई), भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी), और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) जैसे सांविधिक नियामकीय प्राधिकरण सरकार का अंग नहीं हैं। हालांकि वे अक्सर सरकार के स्वामित्व वाली संस्थाओं का नियमन करते हैं।

उनके परिचालन की स्वायत्तता, कोई चयन का विषय नहीं है बल्कि यह एक संरचनात्मक आवश्यकता है। उदाहरण के तौर पर आरबीआई की भूमिका पर विचार करते हैं। इसका प्राथमिक उद्देश्य मौद्रिक स्थिरता बनाए रखना और मुद्रास्फीति को नियंत्रित करना है। इसके लिए अक्सर इसे राजनीतिक रूप से अलोकप्रिय निर्णय लेने पड़ते हैं भले ही इस कदम से निकट भविष्य में आर्थिक वृद्धि की रफ्तार धीमी हो जाए और ये फैसले सत्तारूढ़ दल को पसंद न आएं, जैसे कि मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दरें बढ़ाने का फैसला। यदि कार्यपालिका, ब्याज दर नीति पर असहमत होने पर आरबीआई गवर्नर को बर्खास्त कर सके, तब केंद्रीय बैंक अपनी विश्वसनीयता और अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक हित में कार्य करने की अपनी क्षमता गंवा देगा। बाजार भी इसे तुरंत भांप लेगा, जिससे निवेशकों का भरोसा कम होगा और आखिरकार आर्थिक अस्थिरता बढ़ेगी।

इसी तरह, प्रतिभूति बाजारों तक पहुंच, म्युचुअल फंडों के विनियमन, विलय और अधिग्रहण, स्पेक्ट्रम के आवंटन आदि पर निर्णय जानबूझकर, रोजमर्रा की राजनीति से दूर रखे गए हैं और इनकी जिम्मेदारी विशेषज्ञ सांविधिक नियामकीय प्राधिकरणों को सौंपे गए हैं।

भारतीय कानूनी ढांचा, सभी नियामक प्रमुखों को हटाने के बारे में उतना स्पष्ट नहीं है, लेकिन आमतौर पर इसी सिद्धांत को दर्शाता है। केवल एक एसआरए कानून यानी, ‘भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग अधिनियम’ में यूपीएससी सदस्य को हटाने जैसे ही पहले उच्चतम न्यायालय की जांच की आवश्यकता बताई गई है। हालांकि, व्यवहारिक तौर पर हमारे पास अमेरिका की हाल की घटनाओं जैसी स्थिति नहीं आई है।

यह मानना कि लोकतांत्रिक जवाबदेही, इन निकायों पर कार्यपालिका के नियंत्रण की मांग करती है, एक भ्रामक तर्क है। सच्ची लोकतांत्रिक जवाबदेही, कार्यपालिका के पास पूर्ण शक्ति होने से नहीं जुड़ी है। वास्तव में इसका संबंध नियंत्रण और संतुलन के एक तंत्र के भीतर, एसआरए सहित सभी एजेंसियों को उनके प्रदर्शन के लिए जवाबदेह ठहराने से जुड़ा है। वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) की सिफारिशों के आधार पर ही एसआरए की जवाबदेही कई स्तंभों के हिसाब से तैयार की जानी चाहिए।

किसी भी अन्य कॉरपोरेट निकाय की तरह, सांविधिक नियामक प्राधिकरणों को सबसे पहले ऐसे बोर्ड के प्रति जवाबदेह होना चाहिए जिसका गठन सावधानीपूर्वक किया गया हो। इस मामले में भारत को अभी बहुत आगे जाना है। सूचीबद्ध कंपनियों के बोर्ड की तरह, नियामकीय बोर्ड में भी बड़ी संख्या में सरकार से स्वतंत्र निदेशकों की आवश्यकता है। एसआरए के सभी आदेश, एक विशेषज्ञ न्यायाधिकरण के समक्ष अपील करने योग्य होने चाहिए। एसआरए के विधायी कार्य, संसदीय समितियों की विस्तृत जांच के अधीन होने चाहिए। वार्षिक रिपोर्ट और सीएजी द्वारा व्यापक ऑडिट के आधार पर एसआरए की पूर्ण संस्थागत जवाबदेही संसद के प्रति होनी चाहिए। स्वतंत्र शोधकर्ता और अकादमिक आलोचक इन स्तंभों में अंतिम पायदान पर खड़े हैं।

संस्थागत स्वतंत्रता का क्षरण, एक धीमी और घातक प्रक्रिया है, जिसे अक्सर शब्दाडंबर वाली दक्षता और जवाबदेही के तर्क से छिपाया जाता है। अमेरिका का मामला वास्तव में एक चेतावनी है। यह दिखाता है कि जब कार्यपालिका के राजनीतिक एजेंडे और किसी नियामक के तकनीकी कार्य के बीच की रेखाएं धुंधली हो जाती हैं तब क्या होता है। इसका नुकसान केवल संस्था को ही नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था और जनता के भरोसे को भी होता है।

भारत में हमारे पास अधिकतर, संस्थागत स्वतंत्रता की एक मजबूत परंपरा रही है। हालांकि, हाल के वर्षों में नियामक निकायों पर राजनीतिक दबाव बढ़ा है। हमें सत्ता के केंद्रीकरण के प्रलोभन का विरोध करना चाहिए और इसके बजाय उन संस्थागत सुरक्षा उपायों को मजबूत करना चाहिए जो यह सुनिश्चित करते हैं कि हमारे नियामक प्राधिकरण बिना किसी डर या पक्षपात के अपना काम कर सकें।

सरकार की ‘चौथी शाखा’ की स्वतंत्रता कोई विलासिता की बात नहीं है बल्कि यह हमारे लोकतंत्र का एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ है और एक स्थिर और समृद्ध भारत के लिए यह एक ऐसी जरूरी अपेक्षा है जिससे समझौता नहीं किया जा सकता है।


(लेखक आईसीपीपी में मानद सीनियर फेलो और पूर्व अफसरशाह हैं)

First Published : September 23, 2025 | 11:02 PM IST