मुफ्त उपहारों अर्थात ‘रेवड़ियों’ को लेकर चल रही मौजूद हल्की और राजनीतिक बहस मुझे सन 1992-1993 की याद दिलाती है जब सुधारों के बाद के शुरुआती वर्षों में भी ऐसी ही चर्चा उठी थी। राजीव गांधी द्वारा सन 1985-89 के दौरान किए गए भारी भरकम खर्च के बाद नरसिंह राव-मनमोहन सिंह की जोड़ी के पास खर्च को एकबारगी रोकने के लिए और कोई विकल्प ही नहीं बचा था।
उन्होंने विभिन्न प्रकार की सब्सिडी में भारी कटौती की और तब कांग्रेस संकट में थी। उसके दो प्रमुख सदस्यों अर्जुन सिंह और नारायण दत्त तिवारी ने तो पार्टी छोड़कर अपनी अलग पार्टी भी बना ली थी। उस वक्त वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि अगर समस्या उनकी वजह से है तो वह इस्तीफा देने को तैयार हैं। इस पर राव ने उनसे कहा था कि वह ऐसी मूर्खतापूर्ण बात न कहें। उस समय सुधारों को लेकर आये दिन संगोष्ठियां भी आयोजित होती रहती थीं।
मुझे नहीं पता क्यों लेकिन ऐसे ही एक आयोजन में मुझसे मेरा विचार पूछा गया। मैंने कहा कि जवाब इस बात में निहित है कि जिन चीजों पर सब्सिडी दी जाती है उनमें कितनी पूंजी और तकनीकी गहनता है। मैंने कहा कि पूंजी और तकनीक की गहनता जितनी अधिक होगी सब्सिडी उतनी ही कम हो सकती है। भारत जैसे पूंजी की कमी वाले देश में जहां उत्पादन में बहुत अधिक पूंजी लगती है वहां चीजें आसानी से मुफ्त में नहीं दी जा सकती हैं। बिजली इसका उदाहरण थी। किसी चीज को मुफ्त या लगभग मुफ्त देना दिवालिया होने की दिशा में बढ़ाया गया कदम ही माना जा सकता है।
मैंने कहा कि भारत दुनिया का इकलौता ऐसा देश है जहां उच्च पूंजी संसाधन वाली वस्तुओं पर सब्सिडी प्रदान की जाती है और कम पूंजी वाली वस्तुओं पर शुल्क वसूल किया जाता है। हालांकि किसी ने मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि यह एक पत्रकार की ओर से आई अजीबोगरीब सलाह थी। परंतु राजनेताओं की बात करें तो बीते 25 वर्षों के दौरान अधिकांश वस्तुओं और सेवाओं पर से गैर जरूरी सब्सिडी कम करने की बात को व्यापक तौर पर स्वीकार कर लिया गया। यहां तक कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी जैसा दल भी थोड़ी बहुत हिचकिचाहट के बाद इस पर तैयार हो गया। सब्सिडी को उचित तरीके से कम करने की बात करें तो इस विषय में युवा स्तंभकार राजेश कुमार ने हाल ही में एक बहुत अच्छा लेख लिखा।
उनका आलेख सुदीप्त मंडल और शताद्रु सिकदर द्वारा 2019 में पेश किए गये एक पर्चे पर आधारित था। कुमार ने कहा है कि खाद्य, प्राथमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा, स्वास्थ्य, जलापूर्ति और सफाई जैसी चीजों पर सीमित सब्सिडी दी जा सकती है जबकि अन्य सभी सब्सिडी को अवांछित करार दिया गया। लेकिन अगर त्रासदी ही नहीं घटित हो तो भला लोकतंत्र कैसा? सन 2015 में अरविंद केजरीवाल का प्रादुर्भाव हुआ। उनका राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी अर्थव्यवस्था के लिए वही साबित हो रहा है जो भारतीय जनता पार्टी देश के सामाजिक सद्भाव के लिए। दोनों ने जानबूझकर सामान्य समझ को धता बताया है और राजनीतिक शक्ति का निर्मम इस्तेमाल किया है। इस दौरान उन्होंने दीर्घावधि में होने वाले संभावित असर के बारे में भी नहीं सोचा।
वित्त मंत्री ने कुछ सप्ताह पहले संसद में कहा कि उनकी सरकार हर प्रकार की रेवड़ियों के खिलाफ नहीं है। क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसी चीजें हैं जो गरीब लोगों को नि:शुल्क मुहैया करानी होती हैं। मेरा सोचना है कि काश उन्होंने सब्सिडी कम करने की अपनी नीति के बचाव में दो और तत्त्व शामिल किए होते। कुछ ऐसा जो बीते 30 वर्षों से चल रहा है। उनमें से एक है तकनीक आधारित मानक और दूसरा पूंजी तैयार करने वाला मानक। पूंजी के निर्माण से मेरा तात्पर्य है ऐसी सामाजिक पूंजी जो नि:शुल्क शिक्षा और स्वास्थ्य से तैयार हो।
यह कोई संयोग नहीं है कि उत्तर प्रदेश और बिहार को छोड़कर देश के सभी अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्य नि:शुल्क या बहुत सस्ती शिक्षा और स्वास्थ्य की आपूर्ति पर केंद्रित रहे हैं। यहां तक कि पश्चिम बंगाल भी बेहतर स्थिति में है। केजरीवाल ने दिल्ली में स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करके एकदम ठीक किया है। परंतु उनके बजट को केंद्र से बहुत अधिक मदद मिली है। पंजाब में उनका प्रदर्शन कैसा रहता है इस पर नजर रखनी होगी।पूर्ण राज्यों की बात करें तो उनकी स्थिति एकदम अलग है। उनके पास इतना पैसा नहीं है और इसलिए वे कम खर्च करते हैं।
उन्हें अफसरों और सब्सिडी पर भी खर्च करना होता है। उस लिहाज से देखा जाए तो मैंने जो दो रास्ते सुझाए उनमें भी विरोधाभास नजर आता है। यहां एक बात यह भी है कि क्या शिक्षण का काम उन शिक्षकों से कराया जाना चाहिए जिन्हें सरकार द्वारा अन्य काम भी सौंपे जाते हैं। उदाहरण के लिए वे चुनाव के दौरान चुनावी सेवा देते हैं उसके बाद सत्ताधारी दल के लिए काम करते हुए नजर आते हैं। इस विषय पर चर्चा करने की आवश्यकता है।
आदर्श स्थिति में तो ऐसा नहीं होना चाहिए और शिक्षण का काम अनुबंधित शिक्षकों को सौंपा जाना चाहिए। अगर आप इस विषय में विचार करेंगे तो आप देखेंगे कि तकनीकी शिक्षा में भारी भरकम पूंजी लगती है और इसी से पूरे विषय को अच्छी तरह समझा जा सकता है क्योंकि कई ऐसी चीजें हैं जो अन्यथा काफी पूंजी की जरूरत वाली हो सकती हैं लेकिन सामाजिक पूंजी के कारण नि:शुल्क या भारी सब्सिडी वाले प्रावधान भी उपयोगी नजर आते हैं। विभिन्न आईआईटी इसके उदाहरण हैं। देश के आईआईटी संस्थानों में शिक्षा नि:शुल्क नहीं है लेकिन अन्य देशों की तुलना में वहां पढ़ना फिर भी काफी सस्ता है। इसका नतीजा क्या रहा है? इन संस्थानों ने देश को बहुत गर्व का अनुभव कराया है।