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Trump Tariffs Impact on Stock Market: ट्रंप टैरिफ का असर दुनियाभर के बाजारों में दिखाई दे रहा है। भारतीय बाजार भी इसकी चपेट में हैं। सोमवार (7 अप्रैल) को एक झटके में घरेलू बाजार 4 फीसदी से ज्यादा धराशायी हो गए। हालांकि, मंगलवार (8 अप्रैल) को एक मजबूत रिकवरी आई और करीब 1.5 फीसदी बढ़त के साथ सेटल हुए। बाजार की इस उठापटक में विदेशी निवेशकों (FIIs) का बड़ा रोल है। FIIs ने भारतीय बाजारों से ताबड़तोड़ बिकवाली की। महज 5 सेशन में 22,770 करोड़ रुपये की इक्विटी निकाल ली है। मार्केट एनॉलिस्ट मान रहे हैं कि डॉनल्ड ट्रंप की ओर से शुरू की गई टैरिफ वार ग्लोबल मार्केट्स को उसी तरह नुकसान पहुंचा रही है, जैसा 2008 के फाइनेंशियल क्राइसिस या 2020 की कोविड महामारी के दौरान हुआ था। ऐसे में निवेशकों को सतर्क रहना जरूरी है और चुनिंदा सेक्टर्स पर ही फोकस करना चाहिए।
नुवामा इंस्टीट्यूशनल इक्विटीज (Nuvama Institutional Equities) ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि पिछले हफ्ते ट्रंप टैरिफ के एलान के बाद दुनियाभर में ट्रेड वार की आशंका गहरा गई है। इससे दुनियाभर के बाजारों को नुकसान पहुंच रहा है। यह ठीक उसी तरह है जैसा 2008 के आर्थिक संकट या 2020 की कोविड महामारी के दौरान हुआ था। आज के फाइनैंशयली ज्यादा वाइब्रेंट सिस्टम में अचानक उठाए गए ऐसे कदम ‘रिफ्लेक्सिविटी’ (Reflexivity) के जरिए नया संकट खड़ा कर सकते हैं।
नुवामा की रिपोर्ट के मुताबिक, ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर देखें तो बाजार कैपिटुलेशन फेज (यानी समग्र बिकवाली के दौर) में एंट्री ले सकते हैं, जिसमें साइक्लिकल सेक्टर जैसे मेटल्स, इंडस्ट्रियल्स और रियल एस्टेट सबसे अधिक जोखिम में हैं। वहीं, मार्केट में सुधार तब नहीं आता जब नीतिगत नरमी शुरू होती है, बल्कि तब आता है जब वह पूरी तरह मेच्योर और वैल्यूएशन बेहद सस्ते और आकर्षक हो चुके हों।
मौजूदा समय में समय में ग्लोबल और घरेलू स्तर पर पॉलिसी समन्वय (policy coordination) कमजोर है। भारत के अर्निंग्स दबाव में है और इक्विटी के वैल्यूएशन महंगे हैं। ऐसे में सतर्क रहने की जरूरत है। हालांकि, टैरिफ आखिर में डिफ्लेशनरी (मूल्य घटाने वाले) हो सकते हैं, इसलिए FMCG, सीमेंट और टेलीकॉम जैसे सेक्टरों में निवेश अन्य सेक्टर्स के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित हो सकता है। भारत की कंपनियों की मजबूत बैलेंस शीट और RBI की ओर से मॉनेटरी पॉलिसी में मिलने से काफी हद तक चुनौतियों से निपटना मुमकिन होगा।
नुवामा ने कहा कि ट्रंप टैरिफ के असर से वैश्विक संकट का खतरा बढ़ा है। ट्रंप की टैरिफ नीति पैक्स अमेरिकाना (Pax Americana) यानी अमेरिकी प्रभुत्व को फिर से परिभाषित करने के बजाय उसे करती करती दिख रही है।
ट्रंप टैरिफ के एलान के दो दिनों के भीतर S&P 500 और कच्चे तेल की कीमतों में 10% गिरावट आई। US हाई यील्ड बॉन्ड स्प्रेड्स में 75–100 बेसिस प्वाइंट की बढ़ोतरी देखी गई।
रिस्क एसेट्स में ऐसी चौतरफा बिकवाली पहले केवल 2008 और 2020 में देखी गई थी। अगर यह स्थिति अनियंत्रित रही, तो हेज फंड्स या प्राइवेट क्रेडिट संस्थाओं में संकट की आशंका बन सकती है। खासकर तब जब अमेरिकी प्राइवेट सेक्टर और ग्लोबल इकोनॉमी पहले से कमजोर स्थिति में हों।
रिपोर्ट के मुताबिक, हर आर्थिक संकट अलग होता है। लेकिन उससे कुछ सबक मिलते हैं। जबभी हम 2008 की मंदी की बात करते हैं तो उससे कुछ ऐसी अहम बातें सामने आईं जिसने भविष्य के लिए एक नया मैकेनिज्म दिया। 2008 की बात करें तो लिक्विडिटी संकेत के चलते बाजारों में जोरदार गिरावट आई। बाजारों में सबसे पहले हाई वैल्यूएशन, तेल की ऊंची कीमतों और RBI की लिक्विडिटी टाइटनिंग के चलते सेंटीमेंट कमजोर हुआ।
दूसरी गिरावट ग्रोथ संकट के कारण देखी गई। NIFTY ने तीन महीनों में 45% की गिरावट दर्ज कीद्ध तेल और बॉन्ड यील्ड भी गिरे। मेटल्स, रियल एस्टेट, इंडस्ट्रियल्स में 50% से ज्यादा की गिरावट आई। फेड ने रेट कट शुरू कर दिए थे, लेकिन गिरावट जारी रही।
रिपोर्ट बताती है कि नवंबर 2008 में करीब 60% की गिरावट और 1 साल फॉरवर्ड PE 10x तक आने के बाद बाजारों ने बॉटम बनाना शुरू किया। इसमें फेड की QE और फिस्कल पैकेज की पॉलिसी का रिस्पांस बड़ा फैक्टर रहा। हालांकि, बाजार मार्च 2009 तक सीमित दायरे में ही रहे। उस समय अमेरिका के साथ-साथ भारत और चीन जैसे इमर्जिंग मार्केट्स ने भी बड़े प्रोत्साहन पैकेज दिए, जिससे बाजारों में तेज रिकवरी देखने को मिली।
नुवामा रिपोर्ट का कहना है कि इस बार भी संकेत अमेरिका से ही शुरू हुआ है। लेकिन हालात 2008 से एकदम विपरीत हैं। इस बार अमेरिका और उसके ग्लोबल प्रतिस्पधिर्यों के बीच पॉलिसी रिस्पांस को लेकर परस्पर तालमें काफी कम है। अमेरिका और अन्य देशों के बीच जवाबी टैरिफ लागू हो चुके हैं और अमेरिकी ट्रेजरी व फेडरल रिजर्व के बीच भी तालमेल नहीं है। फेड का फोकस ग्रोथ की बजाय महंगाई पर है। घरेलू स्तर पर देखें तो भारत पहले ही कमजोर ग्रोथ मोमेंटम के साथ इस संकट में प्रवेश कर रहा है। हालांकि इस बार भारतीय कंपनियों की मजबूत बैलेंस शीट थोड़ी राहत देने वाली बात होगी।
ट्रंप टैरिफ का असर यह रहा कि घरेलू बाजारों में मार्च 2025 में अच्छी-खासी खरीदारी के बाद फॉरेन इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर्स (FIIs) एक बार फिर नेट सेलर बन गए हैं। विदेशी निवेशकों ने अप्रैल के सिर्फ 5 ट्रेडिंग सेशन में 22,770 करोड़ रुपये की इक्विटी निकाल ली है। जबकि इस दौरान डॉमेस्टिक इन्वेस्टर्स (DIIs) ने 17,755 करोड़ रुपये की इक्विटी खरीदी है।
दरअसल, डॉलर के मुकाबले घरेलू करेंसी रुपये में गिरावट से विदेशी निवेशकों के सेंटीमेंट्स प्रभावित हुए है। मंगलवार (8 अप्रैल) को रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 0.2% फिसलकर 86 रुपये पर आ गया। शुक्रवार को 14 पैसे की गिरावट के बाद सोमवार को रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 32 पैसे गिरकर 85.76 पर बंद हुआ था।