Year-End Portfolio Review 2025: जब आप अपने पोर्टफोलियो के एसेट एलोकेशन का एनुअल रिव्यू पूरा कर लें और यह आकलन कर लें कि रीबैलेंसिंग की आवश्यकता है या नहीं, तो अगला कदम फंड के प्रदर्शन का मूल्यांकन करना होता है। किसी कैटेगरी का औसत रिटर्न अक्सर उस कैटेगरी के भीतर मौजूद रिटर्न के बड़े अंतर को छिपा देता है। उदाहरण के लिए, लार्ज-कैप कैटेगरी में पिछले एक साल का औसत रिटर्न 3.8 फीसदी रहा है, लेकिन इस दौरान सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले फंड ने 9.6 फीसदी रिटर्न दिया, जबकि सबसे कमजोर फंड का रिटर्न –6.4 फीसदी रहा। रिटर्न में यह बड़ा अंतर इस बात की गवाही देता है कि पोर्टफोलियो से कमजोर प्रदर्शन करने वाले फंडों की समय-समय पर पहचान कर उन्हें हटाना कितना जरूरी है।
सबसे पहले यह आकलन करें कि किसी फंड ने अपने बेंचमार्क के मुकाबले कैसा प्रदर्शन किया है। PrimeInvestor.in की एडवाइजरी हेड आरती कृष्णन कहती हैं, “सही बेंचमार्क का इस्तेमाल करें और पर्याप्त लंबी अवधि के लिए तुलना करें।” लंबे समय तक प्रदर्शन का मूल्यांकन करने से यह समझने में मदद मिलती है कि किसी फंड ने अलग-अलग बाजार चक्रों — तेजी (बुल) और मंदी (बियर) दोनों — में लगातार अपने बेंचमार्क को मात दी है या नहीं।
भारत के अधिकांश सूचकांक मार्केट-कैप वेटेड होते हैं और इनमें अपने आप बेहतर प्रदर्शन करने वाले शेयर जुड़ते रहते हैं, जबकि कमजोर शेयर बाहर हो जाते हैं। इसी वजह से फंडामेंटल स्टॉक पिकर्स के लिए शॉर्ट टर्म में इन्हें पछाड़ना मुश्किल होता है। कृष्णन कहती हैं, “लंबी अवधि में वेल्थ क्रिएशन उचित कीमत पर मजबूत कंपनियों के शेयर खरीदने से होता है, जो अपनी कमाई को लगातार बढ़ाते रहते हैं। निवेशकों को यह परखना चाहिए कि क्या उनके फंड मैनेजरों में ये कौशल मौजूद हैं।”
किसी फंड के एक, तीन, पांच और 10 साल के रिटर्न की उसके बेंचमार्क से तुलना करने से उसके प्रदर्शन की निरंतरता का आकलन किया जा सकता है।
कैप्चर रेशियो भी उपयोगी जानकारी देते हैं। PGIM इंडिया एसेट मैनेजमेंट के सीईओ अभिषेक तिवारी कहते हैं, “100 से ज्यादा का अपसाइड कैप्चर रेशियो यह दर्शाता है कि जब बेंचमार्क ने पॉजिटिव रिटर्न दिए हों, तब उस अवधि में निवेश ने बेंचमार्क से बेहतर प्रदर्शन किया है। वहीं, 100 से कम का डाउनसाइड कैप्चर रेशियो यह संकेत देता है कि जब बेंचमार्क नुकसान में रहा हो, तब निवेश में बेंचमार्क की तुलना में कम गिरावट आई है।”
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बेंचमार्क के साथ तुलना के अलावा साथ के (पीयर) फंडों से तुलना भी जरूरी है। प्रूडेंट इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स एलएलपी के सीईओ प्रशास्ता सेठ कहते हैं, “कैटेगरी के भीतर तुलना से निवेशकों को यह समझने में मदद मिलती है कि समान निवेश उद्देश्य (मैंडेट) वाले अन्य फंडों के मुकाबले किसी फंड का प्रदर्शन कैसा रहा है।” इन पीयर फंडों को भी समान अवसरों और सीमाओं का सामना करना पड़ता है।
इस तुलना से यह साफ होता है कि किसी फंड का प्रदर्शन वास्तविक निवेश कौशल का नतीजा है या फिर केवल व्यापक बाजार की तेजी का असर।
कृष्णन चेतावनी देती हैं कि किसी फंड की तुलना उन्हीं पीयर फंडों से की जानी चाहिए जिनकी इन्वेस्टमेंट स्ट्रैटेजी और रिस्क प्रोफाइल समान हो। वह दो उदाहरण देती हैं: वैल्यू-ओरिएंटेड फ्लेक्सीकैप फंड मजबूत बुल मार्केट में अपने पीयर फंडों से पीछे रह सकता है, लेकिन लंबी अवधि में ज्यादा स्थिर रिटर्न दे सकता है। वहीं, कम तरल (इलिक्विड) शेयरों में निवेश करने वाला स्मॉल-कैप फंड तेजी वाले बाजार में बेहतर प्रदर्शन कर सकता है, लेकिन बाजार में गिरावट आने पर अपनी कमाई जल्दी गंवा सकता है।
रोलिंग रिटर्न यह दिखाते हैं कि अलग-अलग समय में कोई फंड कितनी बार अपने बेंचमार्क से बेहतर प्रदर्शन करता है। तिवारी कहते हैं, “उदाहरण के तौर पर, यदि 60 रोलिंग पीरियड्स में से फंड A ने 45 अवधियों (75 फीसदी) में बेंचमार्क को मात दी है, तो उसे कंसिस्टेंट माना जा सकता है। वहीं, यदि फंड B ने केवल 18 अवधियों (30 फीसदी) में बेंचमार्क से बेहतर प्रदर्शन किया है, तो उसका प्रदर्शन कंसिस्टेंट नहीं माना जाएगा।”
रोलिंग रिटर्न्स प्रदर्शन की निरंतरता की ज्यादा साफ तस्वीर पेश करते हैं। किस्मत या जरूरत से ज्यादा जोखिम लेने के कारण शॉर्ट टर्म में बेहतर रिटर्न दिख सकता है। कृष्णन कहती हैं, “जब आप लंबी अवधि के रोलिंग रिटर्न्स देखते हैं, तो आंकड़े किस्मत के असर को संतुलित कर देते हैं और अलग-अलग बाजार परिस्थितियों में फंड की वास्तविक प्रदर्शन क्षमता को समझने में मदद करते हैं।”
ट्रस्ट म्युचुअल फंड के सीईओ संदीप बागला इस बात पर जोर देते हैं कि रोलिंग रिटर्न्स टाइमिंग बायस को खत्म कर देते हैं—वह पूर्वाग्रह जो किसी तय शुरुआत और समाप्ति तिथि के आधार पर प्रदर्शन का मूल्यांकन करने से पैदा होता है।
रोलिंग रिटर्न्स यह दर्शाते हैं कि एसेट मैनेजर विभिन्न परिस्थितियों में कैसा प्रदर्शन करने की क्षमता रखता है। सेठ कहते हैं, “जो फंड 65–75 फीसदी अवधियों में पॉजिटिव रोलिंग रिटर्न बनाए रखता है, वह लॉन्ग टर्म स्थिरता और मजबूत इन्वेस्टमेंट आउटलुक को दर्शाता है।”
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जोखिम को समझे बिना रिटर्न का आकलन करना भ्रामक हो सकता है। कोई फंड भले ही ज्यादा रिटर्न दे रहा हो, लेकिन उसे हासिल करने के लिए उसने अत्यधिक जोखिम लिया हो सकता है। बागला कहते हैं, “ज्यादा उतार-चढाव का मतलब यह हो सकता है कि जिस समय निवेशक बाहर निकलना चाहता है, उस समय एनएवी असामान्य रूप से बहुत नीचे हो।”
जोखिम एक और अहम कारण से भी महत्वपूर्ण है। कृष्णन कहती हैं, “पूंजी के नुकसान से उबरने में काफी मेहनत लगती है। 50 फीसदी के नुकसान की भरपाई के लिए पोर्टफोलियो को 100 फीसदी का रिटर्न कमाना पड़ता है।”
स्टैंडर्ड डिविएशन वोलैटिलिटी को मापता है, यह बताकर कि रिटर्न औसत से कितना भटका है। ज्यादा उतार-चढ़ाव निवेशकों के लिए यात्रा को असमान बनाता है और अनिश्चितता बढ़ाता है। तिवारी कहते हैं, “निवेशक ऐसे फंड को ज्यादा पसंद करते हैं, जो कम जोखिम के साथ समान रिटर्न देने में सक्षम हो।”
शार्प रेशियो यह मापता है कि फंड ने लिए गए जोखिम के बदले निवेशकों को कितनी कुशलता से रिटर्न दिया है। बागला के अनुसार, हाई शार्प रेशियो वोलैटिलिटी के मुकाबले बेहतर मुआवजा दर्शाता है। कृष्णन यह भी कहती हैं कि किसी फंड को जोखिम के अनुरूप पर्याप्त रिटर्न देने वाला मानने के लिए उसका शार्प रेशियो एक से ऊपर होना चाहिए।
इन्फॉर्मेशन रेशियो एक और उपयोगी संकेतक है। तिवारी कहते हैं, “यह बेंचमार्क के मुकाबले अतिरिक्त रिटर्न पैदा करने की फंड मैनेजर की क्षमता को मापता है और स्टैंडर्ड डिविएशन को शामिल करके प्रदर्शन की निरंतरता भी दर्शाता है।”
सेठ का सुझाव है कि निवेशक इन सभी मैट्रिक्स को कैटेगरी के औसत के संदर्भ में देखें।
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यहां तक कि एक्टिव फंड मैनेजर भी किसी खास निवेश शैली का पालन करते हैं—जैसे वैल्यू, ग्रोथ, क्वालिटी आदि—और ये शैलियां समय-समय पर निवेशकों की पसंद से बाहर या अंदर होती रहती हैं। तिवारी कहते हैं, “कई बार कमजोर प्रदर्शन अस्थायी होता है, क्योंकि उस समय फंड की निवेश शैली बाजार की पसंद में नहीं होती।”
सेठ बताते हैं कि वैल्यू पर फोक्स्ड फंड मोमेंटम-आधारित तेजी के दौर में पीछे रह सकता है, लेकिन जैसे ही बाजार की धारणा बदलती है, वह मजबूत वापसी कर सकता है। वह आगे कहते हैं कि अगर फंड की निवेश प्रक्रिया, फंड मैनेजर और पोर्टफोलियो की गुणवत्ता बरकरार है, तो शॉर्ट टर्म में कमजोर प्रदर्शन आमतौर पर चिंता का कारण नहीं होता।
कृष्णन के अनुसार, यह तय करने के लिए कोई आसान नियम नहीं हैं कि किसी फंड का कमजोर प्रदर्शन अस्थायी है या संरचनात्मक। वह कहती हैं, “अगर किसी फंड के पास अनुभवी मैनेजर है, जिसका विभिन्न बाजार चक्रों में मजबूत ट्रैक रिकॉर्ड रहा है, और वह फंड अपने घोषित निवेश उद्देश्य (मैंडेट) का पालन करता है, तो निवेशक ज्यादा भरोसे के साथ यह मान सकते हैं कि कमजोर प्रदर्शन अस्थायी है।”
कमजोर प्रदर्शन की मात्रा भी अहम होती है। कृष्णन आगे कहती हैं, “अगर कोई फंड अपने पीयर फंडों से 1–2 फीसदी अंक पीछे है, तो इंतजार करना ठीक हो सकता है, लेकिन 5 फीसदी अंक की पिछड़न तेजी से कदम उठाने की मांग कर सकती है।”
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कमजोर प्रदर्शन का सामना कर रहे निवेशकों को धैर्य रखना चाहिए। तिवारी बताते हैं कि बहुत जल्दी बाहर निकलने पर ऐसा हो सकता है कि निवेशक फंड से ठीक उसके रिकवरी शुरू होने से पहले ही निकल जाए। वहीं, बागला चेतावनी देते हैं कि बार-बार फंड बदलना टैक्स के लिहाज से भी नुकसानदेह हो सकता है।
बागला का सुझाव है कि फंड से बाहर निकलने का फैसला लेने से पहले कम से कम एक साल इंतजार करना चाहिए। वहीं, सेठ सलाह देते हैं कि कमजोर प्रदर्शन दिखने के बाद दो से तीन तिमाहियों तक फंड पर नजर रखें, ताकि यह देखा जा सके कि उसके रोलिंग रिटर्न्स और पीयर रैंकिंग में सुधार हो रहा है या नहीं। वह कहते हैं, “अगर स्थिर बाजार परिस्थितियों के बावजूद कोई फंड 12–18 महीनों तक अपने बेंचमार्क और कैटेगरी से पीछे रहता है, तो समस्या संरचनात्मक होने की संभावना है।”
FundsIndia में रिसर्च के सीनियर मैनेजर जिरल मेहता कहते हैं, “अगर तीन से चार तिमाहियों तक बिना किसी स्पष्ट एएमसी स्पष्टीकरण के फंड का प्रदर्शन पीयर फंडों और बेंचमार्क से पीछे रहता है, यदि जोखिम मैट्रिक्स खराब होते हैं या पोर्टफोलियो टर्नओवर बढ़ता है, यदि फंड अब निवेशक के लक्ष्यों से मेल नहीं खाता, या यदि लागत पैसिव विकल्पों के मुकाबले प्रतिस्पर्धी नहीं रह जाती, तो निवेशकों को बाहर निकलने पर विचार करना चाहिए।”
तिवारी यह भी कहते हैं कि फंड के निवेश दृष्टिकोण और निवेशक के लक्ष्यों के बीच तालमेल न होना भी फंड से बाहर निकलने का एक उचित कारण है।
एक्सपेंस रेशियो का सीधा असर रिटर्न पर पड़ता है। सैंक्टम वेल्थ में इन्वेस्टमेंट प्रोडक्ट्स के हेड अलेख यादव कहते हैं, “हाई एक्सपेंस रेशियो होने का मतलब है कि प्रतिस्पर्धी नेट रिटर्न देने के लिए फंड को ज्यादा मजबूत ग्रॉस रिटर्न कमाने पड़ते हैं, इसलिए खर्च कम रखना जरूरी है।” हालांकि, वह यह भी कहते हैं कि अंततः सबसे अहम चीज नेट रिटर्न होती है– यदि कोई फंड बेहतर नेट रिटर्न देने में सक्षम है, तो ज्यादा लागत भी जायज मानी जा सकती है।
किसी फंड मैनेजर के बाहर जाने का मतलब अपने आप में फंड बेचने का फैसला लेना नहीं होता। मजबूत प्रक्रिया और सशक्त बेंच स्ट्रेंथ वाली फंड हाउस प्रदर्शन बनाए रखने में सक्षम हो सकती हैं। अलेख यादव कहते हैं कि ऐसे फंड हाउस के मामले में निवेशकों को इंतजार करना चाहिए और फंड को स्थिरता साबित करने के लिए कुछ समय देना चाहिए। हालांकि, अगर प्रदर्शन में लगातार गिरावट आती रहे, तो बाहर निकलने का फैसला करना चाहिए।
रणनीति में बदलाव (स्ट्रैटेजी ड्रिफ्ट) को गंभीरता से लेना चाहिए। यह तब होता है जब कोई फंड अपने घोषित निवेश उद्देश्य (मैंडेट) से हट जाता है– जैसे कोई वैल्यू फंड ग्रोथ शेयरों के पीछे भागने लगे या कोई लार्ज-कैप फंड मिड- या स्मॉल-कैप शेयरों में निवेश बढ़ा दे। यादव कहते हैं, “यह एक रेड फ्लैग है, क्योंकि मैनेजर अपने विशेषज्ञता क्षेत्र से बाहर जा सकता है, फंड का जोखिम-रिटर्न प्रोफाइल बदल सकता है और इससे निवेशक का कुल एसेट एलोकेशन भी बिगड़ सकता है।”
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जब कोई फंड निवेशक के लक्ष्य के अनुकूल नहीं रह जाता हो या तुरंत नकदी की जरूरत हो, तो तुरंत बाहर निकलना आवश्यक हो सकता है।
अन्य स्थितियों में, जैसे जब निवेशक किसी बेहतर विकल्प में शिफ्ट होना चाहता हो, तो चरणबद्ध तरीके से निकासी करने से टैक्स प्रभाव को बेहतर ढंग से मैनेज किया जा सकता है। मेहता कहते हैं, “तीन से छह महीनों में सिस्टमैटिक विदड्रॉल प्लान के जरिए चरणबद्ध निकासी करने से टाइमिंग रिस्क कम होता है, टैक्स मैनेज आसान होता है और बदलाव भी सहज रहता है।”
यादव यह भी कहते हैं कि जब टैक्स देनदारी काफी ज्यादा हो, तो कई वर्षों में रिडेम्प्शन फैलाकर करना फायदेमंद हो सकता है।
(लेखक मुंबई स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)