मूल्य नियमन हस्तांतरण जिसे 2001 में आयकर कानून में शामिल किया गया था, अभी विकास की प्रक्रिया में है।
अनुभव की कमी के कारण करदाताओं के लिए प्रारुप और दस्तावेज को बनाने में वास्तविकता कम होती है। वैसे इन प्रस्तावों को प्रारुपित करने के लिए आकलन अधिकारी (एओ) के पास पूरा अधिकार होता है। उसे दंड आरोपित करने का भी अधिकार होता है।
इन सारी बातों से करदाताओं को अनावश्यक परेशान होना पड़ता है। इस संदर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल ही में कारगिल इंडिया लि. बनाम डीसीआईटी (110 आईटीडी 616) मामले में एक निर्णय दिया है, जिसमें कर के प्रारुप और दस्तावेजों के प्रस्तुतिकरण, एओ द्वारा नोटिस जारी करने और कर पर दंड लगाने संबंधी कई दिशा निर्देश दिए गए हैं।
आयकर कानून में यह व्यवस्था दी गई है कि प्रत्येक व्यक्ति जो अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन करते हैं, को संबद्ध सूचनाओं और दस्तावेजों को मजबूत बनाये रखना चाहिए। इसके अंतर्गत एओ को यह अधिकार दिया गया है कि वे इस तरह के व्यक्ति से सूचनाओं और दस्तावेजों से ऐसी कोई भी पूछताछ कर सकते हैं, जो आयकर कानून में उल्लिखित है।
ऊपर के संदर्भों में कारगिल इंडिया प्राइवेट लि. बनाम डीसीआईटी (110 आईटीडी 616) मामले में एक बड़ी रोचक समस्या खड़ी हो गई थी। ट्रांसफर प्राइसिंग अधिकारी (टीपीओ) ने समीक्षाकर्ता से आयकर कानून के तहत सारी सूचनाओं और दस्तावेजों के बारे में जानकारी लेनी चाही।
आयकर कानून के नियम 10 डी में विभिन्न सूचनाओं और दस्तावेजों के प्रेषण संबंधी कई उपबंध उल्लिखित हैं, जो जमाकर्ता को उल्लेख करना चाहिए, लेकिन यह कभी कभार होता है कि किसी खास मामले में इस उपबंध का जिक्र किया जाए। इसमें कहा गया था कि – इसलिए यह स्पष्ट है कि संबंधित सूचनाओं के अंतर्गत नियम 10 डी दूसरे कॉलम में काफी वृहत्, वैकल्पिक है और इसमें यह देखा जाना चाहिए कि क्या सूचनाओं को उपबंधों के जरिये किसी खास मामले में उल्लिखित किया गया है।
किसी अकस्मात मामले में टीपीओ ने एक नोटिस जारी किया और करदाता से सारी सूचनाओं और दस्तावेजों का ब्यौरा मांगा। प्राधिकरण ने कहा – नोटिस काफी गंभीर है और किसी निर्धारित समय में दंड का आरोपण, जो करोडों रुपये में होता है, करना काफी मुश्किल है। यह कोई आम नोटिस नहीं है। इसे जारी करने का मतलब है कि मामला काफी नाजुक है।
अगर कोई व्यक्ति इन सारी सूचनाओं और दस्तावेजों को प्रस्तुत करने में असफल होता है, तो उसे कुल अंतर्राष्ट्रीय लेनदेन का 2 प्रतिशत बतौर दंड भरना होता है। जबकि अगर इस विलंब या असफलता का कोई ठोस कारण हो, तो दंड से बचा जा सकता है। किसी अकस्मात् मामले में यह देरी हो सकती है, क्योंकि इसमें उल्लिखित सूचना और दस्तावेज का पुलिंदा काफी वृहत् होता है।
माननीय प्राधिकरण ने इसका उल्लेख करते हुए कहा था कि, किसी ठोस कारण के अभाव में अगर दोष सिद्ध हो जाता है, तब जाकर धार 271 जी के तहत दंड की बात बनती है। किसी दिए गए समयांतराल में अगर सूचनाओं और दस्तावेज संबंधित विलंब का कोई ठोस कारण प्रस्तुत नही किया जाता है, तो करदाता दंड के दायरे में आता है। इसलिए इस वजह से दंड में कोई रियायत नही दी जा सकती है।