अगर किसी व्यक्ति का बीमा हुआ है और उसका प्रीमियम उसकी बजाय कोई और भर रहा है ।
और कुछ दिनों बाद सड़क हादसे में उस व्यक्ति की मौत हो जाए तो बीमा कंपनी को इस स्थिति में भी उस व्यक्ति के आश्रित को मुआवजे का भुगतान करना पड़ेगा।
यह मामला आत्मा राम नाम के एक ट्रक डाइवर से जुड़ा है। उसका बीमा यूनाइटेड इंडिया एश्योरेंस लिमिटेड से हुआ था। एक हादसे में उसकी मौत हो गई लेकिन उसके आश्रित प्रीमियम अदा करते रहे। बैंक भी तीन साल तक प्रीमियम स्वीकार करता रहा।
ड्राइवर के आश्रित कामगारों के मुआवजे अधिनियम के तहत मुआवजे की मांग कर रहे हैं। इस अधिनियम के मुताबिक बीमा कंपनी को इन आश्रितों को मुआवजे के तौर पर 1.42 लाख रुपये की रकम अदा करनी है।
बीमा कंपनी ने इस रकम को देने से मना कर दिया। उच्चतम न्यायालय ने बीमा कंपनी के उस तर्क को भी खारिज कर दिया जिसमें कंपनी ने कहा कि वास्तविक बीमा धारक की मौत के बाद यह बीमा अनुबंध स्वत: ही समाप्त हो जाता है।
न्यायालय का कहना है कि केवल नाम में गड़बड़ी की वजह से ही यह खारिज नहीं हो जाता। साथ ही न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर यह मामला धोखाधड़ी का होता उस स्थिति में यह खारिज हो जाता।
सिंघानिया हॉस्पिटल के मामले पर पुनर्विचार
सरकार ने उन अस्पतालों को चिकित्सीय उपकरण मंगाने में सीमा शुल्क में छूट देने की घोषणा की है जिनमें दस फीसदी बेड ऐसे लोगों के लिए हैं जिनकी मासिक आय 500 रुपये प्रति माह से कम है और इन अस्पतालों के बहिरंग विभाग (ओपीडी) में 40 फीसदी इलाज इतनी ही आमदनी वाले लोगों का होता हो।
सीमा शुल्क विभाग इस तरह के कानून को 1988 से ही लागू करने की कोशिश में लगा है। पिछले हफ्ते उच्चतम न्यायालय ने कस्टम अपेलिट ट्राइब्यूनल से पूछा कि सुनीता देवी सिंघानिया हॉस्पिटल के मामले पर पुनर्विचार किया जाए। यह मामला सिंघानिया हॉस्पिटल के चिकित्सा उपकरण मंगाने से जुड़ा है।
विभाग ने सिंघानिया हॉस्पिटल पर इन उपकरणों को मंगाने और सीमा शुल्क में छूट लेने के चलते फाइन और पेनाल्टी लगा दिया। दूसरी ओर हॉस्टिपल का दावा है कि उनके यहां पर गरीब लोगों का मुफ्त में इलाज किया जाता है।
इस मामले में सिंघानिया हॉस्पिटल के अलावा मिराज मेडिकल सेंटर और बालाभाई नानावती हॉस्टिपल भी ट्राइब्यूनल के सामने हाजिर हुए।
इकाइयों को राहत
उत्तर प्रदेश की उन इकाइयों को राहत मिल गई जहां पर धान की भूसी को ईंधन के तौर पर उपयोग किया जाता है। दरअसल, राज्य सरकार इन इकाइयों पर व्यापार कर लगाने की योजना बना रही थी।
लेकिन उच्चतम न्यायालय ने इन इकाइयों को राज्य सरकार के इस प्रस्तावित कर से बचा लिया। राज्य सरकार का तर्क था कि धान की भूसी और चावल की भूसी एक ही तरह के हैं। इसलिए इन इकाइयों को चावल की भूसी के बराबर ही कर अदा करना चाहिए।
ट्रेड टैक्स ट्राइब्यूनल और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि ये दोनों भूसी अलग-अलग तरह की हैं और धान की भूसी पर ज्यादा कर नहीं लगाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय ने भी इस फैसले को बरकरार रखा।