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दोतरफा निवेश संधि भी विवादों के साये से दूर नहीं

Last Updated- December 06, 2022 | 10:44 PM IST

द्विपक्षीय निवेश संधि (बीआईटी) में शामिल होने वाले देशों को इस संधि से कितना फायदा होता है, यह हमेशा से विवाद का मुद्दा रहा है।


लैटिन अमेरिकी देशों के उदाहरणों को देखकर कहा जा सकता है कि इस संधि पर ग्रहण लगने का खतरा हमेशा बना रहता है। 1990 के दौरान पूर्वी यूरोपीय देशों को कम्युनिज्म के फंदे से छुटकारा मिला था और तभी बाजार पूंजीकरण के साथ साथ बीआईटी का जन्म हुआ था।


चीन ने इस दौरान अपनी आर्थिक बंदिशों को तोड़ने का संकेत दिया था। तीसरे पक्ष के रूप में लैटिन अमेरिकी देश खड़े थे। उसने निवेशकों का बचाव करने वाली संधियों के लिए एक मंच प्रदान करने की शुरुआत की थी। साथ ही इस दौरान अगर कोई विवाद उठ खड़ा होता है तो उसके निपटारे के लिए भी इन देशों ने कुछ पहल की थी।


अब इसे इत्तेफाक ही कहेंगे कि जिन लैटिन अमेरिकी देशों ने संधि के दौरान विवादों से बचने के लिए कदम उठाए थे, विवादों ने सबसे अधिक उन्हीं को घेरा है। जबकि चीन जो अब तक 100 से अधिक बीआईटी में शामिल हो चुका है, उसे किसी भी मामले में अब तक विवाद का सामना नहीं करना पड़ा है।


भविष्य के विवादों के मद्देनजर ही इक्वाडोर और बोलीविया ने आईसीएसआईडी से अपने कदम वापस खींच लिए थे। संधि की संरचना को ध्यान में रखते हुए बीआईटी का विश्लेषण करना अपने आप में एक रोचक विषय है। चीन ने इस संधि को इस तरीके से तैयार किया है कि निवेश की व्याख्या नियामकों के तहत होती है।


अगर संधि को लेकर किसी तरह का विवाद गरमाता है तो उसका निपटारा पीआरसी के तहत घरेलू अदालत में किया जाता है। चीन ने निवेशक देश के बीच पारस्परिक समन्वय स्थापित करने के लिए बड़ी चतुराई से कदम उठाए हैं।


कुछ इसी तरीके की न्यायिक संरचना दक्षिण पूर्वी एशिया में भी तैयार की गई है। बीआईटी के बारे में एक बात जो खास तौर पर जानने योग्य है वह यह है कि इसमें मेजबान देश के सार्वजनिक हितों का खास खयाल रखा गया है।


दक्षिण पूर्वी एशिया में संधि के नियमों को कुछ इस तरीके से गढ़ा गया है कि अगर कोई देश चाहे भी तो इस संधि में अपने अपने तरीके से फेरबदल नहीं कर सकता और न ही उसके पास यह मौका रह जाता है कि संधि का जानबूझकर उल्लंघन किया जा सके। विदेशी निवेशों को लेकर स्थिति को काफी स्पष्ट रखा गया है और इसमें संशय की संभावना बहुत कम दिखती है।


यही वजह है कि जब मलेशिया में वित्तीय हालात चरमरा गए थे और विनिमय पर नियंत्रण रखा जा रहा था तो भी देश इन संकटों से उबर कर सामने आ पाया। चूंकि इस दौरान निवेश को स्वीकृति नहीं मिली थी इस वजह से आर्बिट्रल ट्रिब्यूनल ने न्यायिक आदेश मानने से इनकार कर दिया था। फिर भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रवाह पर रोक नहीं लगाई जा सकी थी।


पर अर्जेंटीना के लिए अनुभव कड़वे रहे हैं। निवेश के  मामले में देश को कुछ समझौते करने पड़े थे, जिनका प्रतिफल भी देश के लिए फायदेमंद नहीं रहा। इस उदाहरण को देखने के बाद यह सुगबुगाहट शुरू होने लगी कि क्या संधि के प्रावधानों को तैयार करते वक्त निष्पक्षता बरती गई थी। संधि में निवेशक और निवेश की नई तरीके से व्याख्या करने की कोशिश की गई है।


ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं जब संधि में शामिल दो देशों की बजाय किसी तीसरे देश के नागरिक को इससे लाभ मिलता हो। कई बार ऐसा भी देखने को मिलता है कि कुछ देश के लोग जानबूझकर संधि में शामिल देशों की ओर से फायदा उठाने की कोशिश करते हैं। कर संधियों की तरह ही इसमें भी उन्हें कुछ लाभ मिल जाता है।


विदेशी निवेशकों को स्वामित्व प्रदान करने के लिए संधि में वृहत दायरा रखा गया है। अगर हम एक बार फिर से अर्जेंटीना की चर्चा करें तो पाएंगे कि स्थानीय मुद्रा को स्थायित्व प्रदान करने के लिए जो कोशिशें की गई थीं, उससे अमेरिकी निवेशकों को चुकाए जाने वाले गैस टैरिफ को नुकसान पहुंचा था।


यही नहीं हालात इतने प्रतिकूल हो गए थे कि देश में राजनीतिक बवंडर पैदा होने के आसार दिखने लगे थे। इसकी सबसे बड़ी वजह थी कीमतों में की गई वृद्धि जिससे पहले ही देश के कई हिस्सों में दंगे भड़क चुके थे।


ऐसे में बचाव के लिए अर्जेंटीना ने कवच के तौर पर स्टेट ऑफ नेसेसिटी का सहारा लिया। पर अदालत ने एक फैसले में कहा कि यह मामला स्टेट ऑफ नेसेसिटी का नहीं बनता, इस वजह से निवेशकों के नुकसान की भरपाई की जिम्मेवारी अर्जेंटीना की ही बनती है।

First Published - May 12, 2008 | 12:29 AM IST

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