महाराष्ट्र में नागपुर के नगर आयुक्त तुकाराम मुंढे शहर में कोविड-19 महामारी के प्रसार पर काबू पाने के लिए लागू उपायों की निगरानी के लिए हर दिन वार रूम में बैठकर अपने स्वास्थ्य अधिकारियों के साथ बैठक करते हैं। नागपुर ने पॉजिटिव पाए जाने वाले किसी भी शख्स को संस्थागत क्वारंटीन में रखने का विकल्प दिया हुआ है जिससे निगरानी रखना अधिक जरूरी हो जाता है। मुंढे कहते हैं, ‘हमने मार्च में ही यह फैसला कर लिया था। हमें लगा था कि लोगों को घरों पर बैठाकर रखना लगभग असंभव होगा। उन्हें अपने देखभाल केंद्रों में रखकर हमने महामारी के संक्रमण की शृंखला तोड़ दी है। हालांकि उस समय आईसीएमआर के दिशानिर्देश केवल घरों में ही क्वारंटीन करने की बात कर रहे थे।’ इसका परिणाम यह हुआ है कि नागपुर में कोविड से मौत के मामले राष्ट्रीय औसत से कम रहे हैं।
लेकिन हैदराबाद में इस तरह का तालमेल गायब नजर आ रहा है। वृहत्तर हैदराबाद नगर निगम ने शहर में महामारी प्रबंधन के कामकाज से खुद को अलग करने की धमकी दे दी है। उसने कहा है कि राज्य स्वास्थ्य विभाग ने हर दिन मामलों की संख्या को लेकर उसे जानकारी नहीं दी है लिहाजा निगम को पता ही नहीं है कि निगरानी किसकी करनी है। दरअसल महामारी के समय शहरी निकाय ही अपने निवासियों के जीवन-मरण पर असर डालने वाले मसलों पर नियम बना रहे हैं। वह नागपुर हो, हैदराबाद हो या दिल्ली, इनमें से अधिकांश नियम निकायों के अधिकारी निर्धारित कर रहे हैं। इससे पहले निकायों के अफसरों को ऐसी शक्तियां कभी नहीं मिली थीं।
महामारी की रोकथाम ने शहरी प्रशासकों की भूमिका को भी प्रकाश में ला दिया है। ये अधिकारी कुछ समय पहले तक भारत में शासन के तीसरे स्तर से जुड़े होने के नाते खुद को उपेक्षित महसूस किया करते थे। जैसे, आईएएस अधिकारी शहरी निकायों में पदस्थ होने से परहेज ही करते हैं, वैसे निकायों के प्रमुख नगर आयुक्त का पद इसका अपवाद है। यह ग्रामीण क्षेत्रों से काफी विरोधाभासी है जहां नगर आयुक्त के समकक्ष स्तर वाला जिलाधिकारी एक आईएएस ही होता है और उसके कुछ मातहत अधिकारी भी इसी सेवा से आते हैं।
वल्र्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट के मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ)- इंडिया ओ पी अग्रवाल कहते हैं, ‘इसमें अचरज की बात नहीं है। शहरी निकायों के उलट जिलाधिकारी सीधे राज्य सरकारों का हिस्सा होते हैं और उनके पास शक्तियां भी अधिक होती हैं।’
कोविड-19 ने इस पदानुक्रम को काफी हद तक बदल दिया है। मई में हमें इसकी बानगी भी देखने को मिली थी। कैबिनेट सचिव राजीव गौबा ने महामारी से बुरी तरह प्रभावित 13 शहरों के नगर आयुक्तों एवं जिलाधिकारियों के साथ बैठक की थी। यह एक अप्रत्याशित घटना थी। पदानुक्रम को लेकर बेहद सजग भारतीय अफसरशाही में ये अफसर गौबा से बहुत निचले पायदान पर मौजूद हैं। सामान्य हालात में उनसे केवल यही अपेक्षा होती है कि वे राज्य सरकारों को रिपोर्ट करें और उसमें केंद्र की कोई भूमिका नहीं होती है।
लेकिन यह समय किसी भी लिहाज से सामान्य नहीं है। उस बैठक में हरेक राज्य के मुख्य सचिव भी मौजूद थे लेकिन उन्हें आयुक्तों की तरफ से रखी गई जरूरतों के बारे में जवाब देने थे। भारत अब भी शासन के तीसरे स्तर यानी स्थानीय निकायों को उसके हिस्से की शक्तियां देने के मामले में काफी पीछे है। हालांकि अस्थायी तौर पर कोविड संकट ने नगर निकायों की भूमिका जरूर बढ़ा दी है।
सवाल है कि शहरी निकायों की भूमिका में हुई वृद्धि क्या नगर प्रशासन का हिस्सा बन पाएगी? सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की वरिष्ठ विजिटिंग फेलो पुष्पा पाठक कहती हैं, ‘कोविड-19 निश्चित रूप से इन निकायों को शहरों के प्रबंधन में अपनी भूमिका को लेकर नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करेगा।’ विश्व बैंक एवं नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स के साथ भी काम कर चुकीं पुष्पा पाठक को इस पर संदेह है कि मौजूदा स्थिति हमें किसी र्थक सुधार की तरफ ले जाएगी। वह कहती हैं, ‘शहरी क्षेत्र में एक तरह की कठोरता है। राज्य सरकारें इन निकायों को अधिक शक्तियां एवं स्वायत्तता देना नहीं चाहती हैं। तुलनात्मक रूप से वित्तीय ताकत बढऩे के साथ कामकाजी अधिकार नहीं बढ़े हैं।’
वैसे कुछ सुधारों के कायम रहने के लिए कुछ निकायों के प्रमुखों ने 15वें वित्त आयोग के प्रमुख एन के सिंह से पिछले महीने मुलाकात भी की। आयोग की तरफ से जारी विज्ञप्ति के मुताबिक कई निकाय प्रमुखों ने इस बात पर जोर दिया कि राज्य सरकारें जल्दी-जल्दी तबादले करती हैं।
स्थानीय निकायों के अधिक वित्त मुहैया कराने के लिए प्रस्तावित राज्य-स्तरीय वित्त आयोग का गठन किसी भी राज्य ने नहीं किया है। उत्तर प्रदेश में शहरी निकायों को 18 कार्य सौंपे जाने थे लेकिन अभी तक केवल आठ ही सौंपे गए हैं। वित्त आयोग की तरफ से जारी विज्ञप्ति में कहा गया है, ‘राज्य सरकार के अधिकारियों की तरफ से राज्य वित्त आयोग को जरूरी डेटा जारी करने में सहयोग का अभाव था और उनकी तरफ से गैरजरूरी प्रशासनिक हस्तक्षेप भी रहा।’ इसमें राजस्थान का जिक्र करते हुए कहा गया है कि ‘जलापूर्ति का काम आंशिक तौर पर निकायों को दे दिया गया है लेकिन शहरी नियोजन अभी उनके सुपुर्द नहीं हुआ है। राज्य में शहरी स्थानीय निकायों की जवाबदेही प्रणाली एवं वित्तीय रिपोर्टिंग की स्थिति कमजोर बनी हुई है।’ वित्त आयोग ने पाया है कि शहरी निकायों के 1,652 करोड़ रुपये बैंकों में रखे हुए हैं। शहरी निकायों की जवाबदेही के अभाव ने महामारी के खिलाफ जारी जंग को भी प्रभावित किया है। शहरी क्षेत्र के अग्रणी विश्लेषक पार्थ मुखोपाध्याय कहते हैं, ‘महामारी के मोर्चे पर असरकारिता कम होने का एक बड़ा कारण यह है कि इसके लिए जरूरी ढांचे का नियंत्रण शहरों के पास नहीं है। फिलहाल संदिग्ध मरीजों के संपर्क में आए लोगों की शिनाख्त डीएम ऑफिस में बैठे कर्मचारियों द्वारा की जा रही है, वह भी अस्पताल से डीएम को सूचित किए जाने के बाद।’ सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के सीनियर रिसर्च फेलो मुखोपाध्याय का मानना है कि दिल्ली में संक्रमित मामलों की बढ़ती संख्या को देखते हुए शहरी प्रशासन को सूचना प्रौद्योगिकी में अधिक निवेश की जरूरत है। दिल्ली सरकार के आईटी विभाग की वेबसाइट करीब दो साल पहले अद्यतन हुई थी। लंबे समय से यह काम अपेक्षित है। सरकार ने सामान्य दिनों में स्मार्ट सिटी मिशन शुरू किया था। उस योजना में स्थानीय निकायों को अपना राजस्व खुद जुटाने के लिए अधिक शक्तियां देने और उनकी क्षमता बढ़ाने पर भी जोर दिया गया था। अगर वैसा हुआ रहता तो इस तरह के हालात में काफी मददगार साबित होता।
