खतरा देखकर रेत में मुंह छिपाना और यह समझना कि खतरा टल गया, शुतुरमुर्ग की यह अदा भले ही अनूठी हो लेकिन भारत में ऐसा आमतौर पर होता आया है।
तभी यहां जब-जब किसी संकट की आहट सुनाई देती है तो सत्ता में बैठे देश के नीति-निर्धारक न सिर्फ उससे जुड़े सवालों से कतराते हैं बल्कि यह दावा करने से गुरेज नहीं करते कि महज चंद कागजी कदमों से खतरा टल जाएगा।
फिलहाल खतरा एक नहीं है बल्कि कई मोर्चों से मंडरा रहा है। रुपये की मजबूती से जार-जार रोते निर्यातक, आसमान छूती महंगाई, बढ़ती ब्याज दरें, पिछले कुछ अंतराल में ही औंधे मुंह गिर चुका शेयर बाजार, सुस्त पड़ती उद्योग विकास दर, खरीदार और कारोबार को तरसते कई सेक्टर, कच्चे तेल की बढती कीमत के बोझ से दम तोड़तीं तेल कंपनियां, खाद्यान्न और कृषि क्षेत्र पर मंडराता संकट…एक के बाद एक मोर्चे से आती बुरी खबरों की एक अंतहीन सूची है।
ये वे खबरें हैं, जो इस साल की शुरुआत से सुनाई दे रही हैं। अब जबकि ये खबरें देश पर गहराते आर्थिक संकट का संकेत देने लगी हैं तो न सिर्फ हर खासो-आम बल्कि खुद सरकार के होश फाख्ता हो गए हैं।विश्लेषकों का मानना है कि सरकार इस खतरे को काफी पहले ही भांप चुकी थी।
दिसंबर 2007 में पेश हुई रिजर्व बैंक (आरबीआई) की पिछली ऋण नीति में लिए फैसलों से इस बात की पुष्टि भी हो गई थी कि उसे भी यह अहसास है कि देश में आर्थिक सुधार एक्सप्रेस की चाल कुछ सुस्त पड़ रही है। लेकिन खतरा दिखने पर महज चंद कागजी फैसलों की उसकी शुतुरमुर्गी अदा से हालात इस कदर बेकाबू हो जाएंगे, इसका अंदाजा शायद उन्हें नहीं था।
हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत ही इस दौर से गुजर रहा है बल्कि दुनिया के कई बड़े देश तो फिलहाल इससे भी बुरे हालातों का सामना कर रहे हैं। महंगाई और खाद्यान्न संकट तो कमोबेश पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बन चुके हैं। दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका को तो पहले ही आर्थिक मंदी अपनी चपेट में ले चुकी है। अब भारत में भी इसकी आहट आर्थिक विश्लेषकों को सुनाई देने लगी है।
अर्थशास्त्रियों के मुताबिक, जब देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में किसी साल की दो तिमाही तक लगातार गिरावट आए तो उस देश को आर्थिक मंदी की चपेट में आया हुआ मान लिया जाता है। भारत फिलहाल तो इस परिभाषा से बचा हुआ है लेकिन महंगाई दर की उड़ान से इसकी जीडीपी के नीचे आने के कयास भी तेज हो गए हैं।
महंगाई के ही चलते पिछली ऋण नीति में आरबीआई ने कड़े कदमों को उठाया था और अब इस माह के आखिर में पेश होने वाली उसकी नई मौद्रिक नीति में भी कड़े रुख के बने रहने के अनुमान लगाए जा रहे हैं। और अगर ये अनुमान सही साबित हुए तो बकौल आईएमएफ, भारत की जीडीपी में 1.25 फीसदी की गिरावट आ सकती है।
इधर कुआं, उधर खाई की तर्ज पर सरकार पसोपेश में है। महंगाई पर लगाम न लगी तो नतीजे और भी गंभीर हो सकते हैं और अगर लगाने के लिए कड़े उपाय किए तो मंदी की मंजिल की ओर कदम खुद-ब-खुद चल पड़ेंगे। लिहाजा जरूरत कदम फूंक-फूंक कर रखने की है।
बहरहाल, इन्हीं मसलों पर पिछले कुछ माह से चल रही सरकार की तमाम कवायद और लोगों के बीच इस मसले पर तेज होती बहस के मद्देनजर ही बिजनेस स्टैंडर्ड ने इस बार की व्यापार गोष्ठी में विशेषज्ञों और देशभर के अपने पाठकों से रायशुमारी करके यह जानना चाहा कि महंगाई और अन्य आर्थिक मोर्चों से आती ये बुरी खबरें क्या वाकई भारत को मंदी की ओर ले जा रही हैं।
विशेषज्ञों ने तो साफ तौर पर माना कि हालात जितने बुरे आज हैं, उतने शायद कभी नहीं थे। उनकी राय में दुनिया एक बार फिर 1930 की आर्थिक मंदी की ओर जा रही है या फिर कहें कि शायद उससे भी बुरे दौर की ओर। इसी तरह प्रबुध्द पाठकों ने भी बदतर होते आर्थिक हालात को लेकर गहरी चिंता तो जताई ही, साथ ही यह भी बताया कि किन मोर्चों पर हमारे नीति निर्धारकों से चूक हो रही है।