भारत ने नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली की भारत यात्रा (14-15 जनवरी) को सामान्य करार देते हुए कहा है कि यह छठी भारत-नेपाल संयुक्त आयोग बैठक का हिस्सा है, लेकिन इसे लेकर अटकलों का बाजार गरम है। खासतौर पर नेपाल में यह चर्चा जोरों पर है कि इस मुलाकात के क्या मायने हैं।
ज्ञवाली उस कार्यवाहक सरकार का हिस्सा हैं जो गत माह प्रधानमंत्री केपी ओली द्वारा संसद को भंग किए जाने और चुनावों का ऐलान होने के बाद बनी। उन्होंने यह कदम पार्टी में आंतरिक असहमति उत्पन्न होने के बाद उठाया था। हालांकि यह आमंत्रण ओली द्वारा संसद भंग करने के पहले दिया गया था लेकिन भारत के पास यह विकल्प था कि वह चाहे तो बैठक को चुनाव संपन्न होने तक टाल दे। संयुक्त आयोग के पास अनेक मुद्दों पर बातचीत करने का अधिकार है। हालांकि ओली को चीन की ओर झुकाव वाला माना जाता है लेकिन क्या भारत बदलते हालात में भी बैठक को अप्रभावित रखकर ओली प्रशासन में अपने लिए एक राह निकालना चाहता है? पुष्प कमल दहल (प्रचंड) ऐसा कह चुके हैं। ज्ञवाली की यात्रा के पहले 13 जनवरी को काठमांडू में उन्होंने कहा कि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एनसीपी) के पास संसद में दो तिहाई बहुमत होने के बावजूद ओली के संसद भंग करने की वजह भारत है। प्रचंड ने कहा, ‘सदन को भंग कर ओली ने संविधान को तो क्षति पहुंचाई ही है, उन्होंने लोकतांत्रिक गणतांत्रिक व्यवस्था को भी नुकसान पहुंचाया है जिसे जनता के सात दशक के संघर्ष के बाद स्थापित किया गया था।’ उन्होंने आगे कहा, ‘ओली ने बालुवातार में अपने आधिकारिक आवास पर भारत के खुफिया संगठन रॉ के प्रमुख सामंत गोयल से मुलाकात की। उस वक्त कोई अन्य व्यक्ति उपस्थित नहीं था और यह बात ओली के इरादे साफ करती है।’
भारत ने प्रचंड के आरोपों समेत नेपाल के घटनाक्रम पर चुप्पी बरती है। भारत ने केवल एक बयान जारी किया कि संसद का भंग होना नेपाल का आंतरिक मामला है और वह अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत निर्णय लेगा। भारतीय राजदूत विनय क्वात्रा ने काठमांडू में मंत्रियों से मुलाकात की ताकि सहयोग बना रहे हालांकि यह एकदम न्यूनतम स्तर पर है। नेपाल को आशा है कि ज्ञवाली की यात्रा के दौरान भारत-नेपाल सीमा विवाद पर चर्चा नहीं की जाएगी। उसे यह भी आशा है कि भारत कोविड-19 के टीके के रूप में मदद का वादा करेगा। इस बीच एनसीपी का बहुमत वाला धड़ा जिसकी अध्यक्षता माधव नेपाल और प्रचंड (संसदीय पार्टी के नए नेता भी) के पास है तथा अन्य विपक्षी दल सड़कों पर उतरकर ओली के सदन भंग करने के ‘अलोकतांत्रिक’ और ‘असंवैधानिक’ कदम को चुनौती दे रहे हैं। ज्ञवाली की यात्रा के साथ भारत ने अपना इरादा साफ कर दिया है कि जो भी सरकार होगी वह उसके साथ सामान्य व्यवहार जारी रखेगी।
इस प्रक्रिया में भारत, नेपाल के साथ रिश्तों के प्रबंधन में विवेकशीलता दिखा रहा है। यदि ओली की चुनाव कराने की योजना कामयाब नहीं होती (मामले की सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में चल रही है क्योंकि नेपाल में संसद भंग करने का संवैधानिक प्रावधान नहीं है), तो इस परेशान सरकार की ओर भारत की पहुंच बाद में मूल्यवान साबित होगी। यदि सर्वोच्च न्यायालय ओली के पक्ष में निर्णय देता है और चुनाव पूर्व घोषणा के मुताबिक होते हैं तो भारत की नजर ओली और उनसे परे भी होगी। गौरतलब है कि 67 वर्षीय नेपाली प्रधानमंत्री के गुर्दों का दोबार प्रत्यारोपण हो चुका है। भारत का रुख चीन के एकदम प्रतिकूल है जिसने ओली सरकार में भारी निवेश किया है और वह ओली-प्रचंड धड़ों को एकजुट करना चाहता है। हालांकि दोनों पक्षों ने इसमें रुचि नहीं ली है। भारत में नेपाल पर नजर रखने वालों का मानना है कि भारत ओली धड़े को वैधता देकर गलती कर रहा है। नेपाल में राजदूत रहे रंजीत राय कहते हैं कि जब प्रधानमंत्री ओली को लगा कि चीन उनके धड़े के बजाय एनसीपी में एकजुटता का समर्थन कर रहा है तो उन्होंने भारत का रुख किया। वह यह भी कहते हैं कि ये कूटनीतिक कदम हैं और दीर्घावधि में शायद ये भारत के लिए लाभदायक नहीं साबित हों।
इस यात्रा के दौरान कोविड-19 टीकों की आपूर्ति का वादा हुआ तो ओली के विरोधियों के लिए यह कहना मुश्किल होगा कि भारत नेपाल के हितों के खिलाफ है। इस बीच भारत की नजर केवल चीन की मौजूदा सरकार पर नहीं होगी बल्कि वह ओली के बिना बनने वाली सरकार पर भी ध्यान रख रहा होगा।