पाकिस्तान के पूर्व जनरल और राष्ट्रपति 79 वर्षीय परवेज मुशर्रफ का रविवार को दुबई में निधन हो गया। मुशर्रफ वहां निर्वासन की जिंदगी गुजार रहे थे। बेशक उन्होंने खुद को इतिहास में जगह दिलाई, लेकिन इसकी एक कीमत उन्हें चुकानी पड़ी जिसको बाद में उन्होंने अपने दोस्तों के सामने भी कबूल किया और उन्हें कभी-कभी पछतावा होता था।
पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ द्वारा लाहौर में भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जाने के कुछ महीने बाद मुशर्रफ ने 1999 में तख्तापलट के जरिये पाकिस्तान की बागडोर संभाली थी। इससे पहले पाकिस्तान करगिल युद्ध में भारत से पराजित हो गया था।
जब वाजपेयी ने विभाजन से जुड़े लाहौर प्रस्ताव के स्थल मीनार-ए-पाकिस्तान का दौरा किया तब उन्होंने विजिटर बुक में लिखा, ‘एक मजबूत, स्थिर और समृद्ध पाकिस्तान भारत के हित में है। पाकिस्तान में इस बात को लेकर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। भारत ईमानदारी से पाकिस्तान को शुभकामनाएं देता है।’
इन भावनाओं के साथ पाकिस्तान की सहमति मानते हुए वाजपेयी ने उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के आग्रह पर जनरल मुशर्रफ को आगरा में एक बैठक के लिए आमंत्रित किया। वह बैठक जो दुनिया को बदल सकती थी, वह एक आपदा साबित हुई।
मुशर्रफ ने वाजपेयी से कहा था कि वह कश्मीर सहित सभी मुद्दों के शांतिपूर्ण समाधान के पक्ष में हैं, लेकिन कुछ घंटे पहले नाश्ते के वक्त अखबारों के संपादकों से यह कहते भी रहे कि कश्मीर में ‘जिहादियों’ और पूर्वी पाकिस्तान में ‘मुक्ति वाहिनी’ में कोई अंतर नहीं है।
मुशर्रफ को सवालों का सामना करना बिल्कुल पसंद नहीं था और जब यह बात सामने आई तब उन्होंने इससे पल्ला झाड़ लिया। आगरा की बैठक का होना भी अपने आप में एक चमत्कार था और अगर वाजपेयी नहीं होते तो ऐसा नहीं हो सकता था। और संभवतः मुशर्रफ भी नहीं होते तब भी ऐसा होना मुमकिन नहीं था। बाद में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संवाद प्रक्रिया जारी रखने की कोशिश की जो 2008 के मुंबई हमले के बाद भी जारी रहा लेकिन 2013 में एक भारतीय सैनिक का सिर काटे जाने के बाद इस वार्ता का आधार नहीं रहा।
मुशर्रफ महान तुर्की सुधारवादी कमाल अतातुर्क से प्रेरित थे। कट्टरपंथियों को लेकर उनका धैर्य कम था और वह खुद को एक ‘पेशेवर’ और व्यावहारिक तथा एक लचीले व्यक्ति के रूप में देखते थे जिनका मानना था कि सशस्त्र बल समाज में वैध बल और राष्ट्र का संरक्षक है। निर्णायक मोड़ 9/11 के बाद आतंकवाद के खिलाफ शुरू हुए अमेरिका का युद्ध था, जिसमें उन्होंने बुश शासन के साथ सहयोग करने के लिए पाकिस्तान को बढ़त दिलाने के लिए उत्साह से इस अभियान में हिस्सा लिया।
उन्होंने जनरल जिया उल हक की सियासी विरासत में मिले पाकिस्तान के ईशनिंदा कानून को संशोधित करने की कोशिश की, लेकिन उन्हें सेना में इस्लामवादियों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा।
आगरा शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए भारत आने पर उन्होंने कश्मीरी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेताओं को कुछ कड़वी हकीकत से रूबरू कराते हुए कहा, ‘हमसे यह उम्मीद न करें कि हम आपको उबारते रहेंगे। आपको अपने दम पर कश्मीर के लिए युद्ध लड़ने की जरूरत है।’ एक यथार्थवादी होने की वजह से उन्होंने सत्ता संभालने के बाद, जल्दी ही यह समझ लिया कि वह इतने सारे मोर्चों पर अकेले नहीं लड़ सकते।’
उन्होंने शौकत अजीज को वित्त मंत्री नियुक्त किया जो उस समय विश्व बैंक में थे। उन्होंने पाकिस्तान के केंद्रीय बैंक के संचालन को पेशेवर बनाने और बिजली तथा अन्य सब्सिडी के जटिल मुद्दे का हल निकालने की कोशिश की। यह एक आधी-अधूरी क्रांति थी जो नाकाम रही।
आंतरिक तौर पर पाकिस्तान की मुश्किलें बढ़ती जा रही थीं। वर्ष 2006 में जनरल मुशर्रफ के आदेश पर पाकिस्तानी सेना ने पूर्व कनिष्ठ गृह मंत्री और बलूचिस्तान के गवर्नर नवाब अकबर खान बुगती और उनके दो दर्जन से अधिक कबीलाई लोगों की हत्या कर दी। इससे क्षेत्र में व्यापक अशांति फैल गई और रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण ग्वादर बंदरगाह के साथ ईरान, अफगानिस्तान और अरब सागर की सीमा से लगे इस प्रांत में बलूच राष्ट्रवादी भावनाओं में तेजी दिखने लगी।
तब तक ओहदा बढ़ने के साथ ही मुशर्रफ के सलाहकारों ने उन्हें वर्दी छोड़ने और वैध तरीके से राजनीति में शामिल होने के लिए कहना शुरू कर दिया था। उनकी बात सुनना ही संभवत: मुशर्रफ की सबसे बड़ी गलती थी। इसके बाद वर्ष 2007 में पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की हत्या हो गई। उन्हें पाकिस्तान छोड़ना पड़ा लेकिन 2010 में उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी की घोषणा कर दी।
‘नेता’ के रूप में उनका अवतार बहुत बेहतर नहीं रहा। अतीत की चीजें उनका पीछा नहीं छोड़ रही थीं। वर्ष 2019 में उन्हें एक विशेष अदालत ने उनकी अनुपस्थिति में मौत की सजा सुनाई थी, जिसने उन्हें 3 नवंबर, 2007 को संविधान से परे आपातकाल लगाने और भुट्टो की हत्या में उनकी मिलीभगत के लिए उन्हें देशद्रोही बताया था। वह 2016 में ही दुबई चले गए थे, इसलिए उन पर केवल आरोप लगे थे और कुछ भी नहीं हुआ।
लेकिन उन्होंने अपने दुख में दोस्तों के सामने कबूल किया कि उन्हें कराची में अपने लिए अपनी प्यारी मां को छोड़ना पड़ा और जब उनकी मौत हुई तब उन्हें वह आखिरी बार देख भी नहीं सके।
मुशर्रफ स्वभाव से मजाकिया भी थे। वर्ष 2002 में जनमत संग्रह के बाद पाकिस्तान के राष्ट्रपति के रूप में उनके ‘चुनाव’ में बैलेट बॉक्स भरने में सैनिकों ने पूरे उत्साह के साथ भागीदारी की। वह जनमत संग्रह जीतने और राष्ट्रपति बनने के बाद एशिया में संवाद और विश्वास बहाली के उपायों (सीआईसीए) से जुड़े सम्मेलन की एक बैठक में उसी वर्ष भाग लेने आए थे।
कजाकस्तान में एक संवाददाता सम्मेलन में जब उन्होंने हिस्सा लिया तो वहां बिज़नेस स्टैंडर्ड ने उन्हें 98.8 फीसदी वोट पाने के लिए बधाई दी क्योंकि भारत के लोकतंत्र के इतिहास में कोई भी उस स्तर की चुनावी सफलता हासिल करने में कामयाब नहीं हुआ है। उन्होंने इस बधाई पर एक पल के लिए सोचा और जवाब दिया, ‘यदि आप व्यंग्य कर रहे हैं तो मुझे कुछ नहीं कहना है। लेकिन अगर आपकी नीयत नेक है तो मैं आपको धन्यवाद देता हूं।’