अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने भारत से आने वाले माल पर जो भारी भरकम आयात शुल्क लगाया है, उससे कानपुर के चमड़ा कारोबारियों पर कहर टूट पड़ा है। उत्तर प्रदेश का यह शहर लेदर हब कहलाता है मगर शुल्क की मार ऐसी पड़ी है कि यहां की टैनरियों में काम घटकर आधा ही रह गया है और मजदूरों के सामने रोजी-रोटी का सवाल खड़ा हो गया है। इस शहर में तैयार होने वाले करीब 50 फीसदी अपहोल्स्ट्री, सैडलरी, जैकेट और बटुए अमेरिकी बाजारों में जाते थे। मगर 50 फीसदी शुल्क से कारोबारी इस कदर सकते में आ गए हैं कि काम घटाने या बंद करने के अलावा उन्हें कोई सूरत ही नहीं दिख रही है।
उत्तर प्रदेश से 2024-25 में करीब 16,000 करोड़ रुपये के चमड़े के सामान का निर्यात हुआ था, जिसमें से 5,000 करोड़ रुपये का माल अमेरिका ही गया था। कानपुर से कुल निर्यात का 50 फीसदी काफी अरसे से अमेरिका ही जाता है। मगर चमड़ा कारोबारियों का कहना है कि नए शुल्क के बाद अमेरिका को माल भेजना असंभव ही हो गया है। बांग्लादेश, इंडोनेशिया, वियतनाम और पाकिस्तान से मिल रही होड़ के कारण वे पहले ही बहुत कम मार्जिन पर काम कर रहे थे, 25 फीसदी शुल्क को झेलने की जुगत भिड़ा ही रहे थे मगर 50 फीसदी शुल्क पर तो माल भेजना ही नामुमकिन है।
कानपुर में गंगा किनारे बसा जाजमऊ इलाका टैनरियों का गढ़ कहलाता है मगर अमेरिका से शुल्क का फरमान आने के बाद वहां सन्नाटा पसर गया है। टैनरी मालिक आसिफ का कहना है कि नोटबंदी, कोविड, जीएसटी और प्रदूषण संबंधी तमाम मानक लागू होने से टैनरियों में काम 40 फीसदी घट गया था। कई लोग अपनी टैनरी बंगाल और कुछ लोग तो बांग्लादेश तक ले गए थे। अब शुल्क लगने के बाद कच्चे माल की खपत और भी घट गई है, इसलिए टैनरी बंद करने के अलावा कोई चारा नहीं दिख रहा है। फिलहाल किसी तरह हफ्ते में तीन दिन काम कर टैनरी कामगारों के पेट पाले जा रहे हैं मगर ऐसा कितने दिन चल पाएगा।
टैनरी मजदूरों के ठेकेदार वीरेंद्र सिंह भी अफसोस के लहजे में कहते हैं कि महीने में 15 दिन ही काम मिलेगा तो कितने मजदूर रुकेंगे। बिहार के रहने वाले सिंह बताते हैं कि कानपुर में 400 टैनरियां चल रही हैं और किसी जमाने में 10 लाख लोग इस काम से जुडे थे। मगर जीएसटी और कोविड के कारण काम घटा तो बिहार, झारखंड से मजदूरों की आमद बहुत कम हो गई। सिंह कहते हैं, ‘कारखानों के मालिक ही कह रहे हैं तैयार माल ही नहीं बिक रहा है तो कच्चा माल खरीदकर क्या करेंगे। इसीलिए टैनरी भी उसी हिसाब से चलाई जा रही हैं। टैनरियां आधी क्षमता पर काम कर रही हैं तो चमड़े की रंगाई, धुलाई करने वालों के धंधे पर भी असर पड़ा है।’ कानपुर से बेल्ट का निर्यात करने वाले अफरोज बताते हैं कि अमेरिकी ग्राहक 50 फीसदी ज्यादा कीमत देने को तैयार नहीं हैं, इसलिए करीब 100 करोड़ रुपये का ऑर्डर रोक दिया गया है।
काउंसिल फॉर लेदर एक्सपोर्ट का कहना है कि ऐसे प्रतिकूल हालात में केंद्र सरकार को पहल करनी चाहिए और अमेरिकी बाजार को किसी भी तरह बंद नहीं होने देना चाहिए। काउंसिल चाहती है कि सरकार अमेरिका के विकल्प के तौर पर बाजार खोजने में मदद करे और निर्यातकों को राहत पैकेज दे। ऐसा नहीं हुआ तो कानपुर का चमड़ा उद्योग बचना बहुत मुश्किल है।
चमड़ा कारोबारी आसिम का कहना है कि अमेरिका में माल बेचकर जितना मुनाफा होता था उतना खाड़ी या दक्षिण एशिया के देशों से नहीं मिल सकता। अमेरिका में गुणवत्ता मानक बेशक कड़े थे मगर सबसे अच्छे दाम भी वहीं से मिलते थे। कानपुर के कुछ सैडलरी निर्माता तो अमेरिकी ग्राहकों के लिए ही माल बनाते थे और किसी अन्य बाजार में माल ही नहीं बेचते थे।
लखनऊ विश्वविद्यालय में व्यापार प्रशासन विभाग के प्रोफेसर अजय प्रकाश कहते हैं कि श्रम बहुत चमड़ा उद्योग में कच्चे माल की खरीद, ढुलाई और प्रसंस्करण से लेकर माल तैयार करने, पैकेजिंग करने और माल भेजने तक पूरे काम में श्रमिकों की बहुत भागीदारी रहती है। शुल्क की मार तगड़ी हुई तो लाखों श्रमिक बेरोजगार हो जाएंगे। प्रोफेसर प्रकाश के मुताबिक कानपुर में ही करीब 5 लाख लोग चमड़े के धंधे में हैं और किसी शहर से अचानक 500 करोड़ रुपये का धंधा गायब हो जाए तो रोजी-रोटी छिनना तय है।
प्रोफेसर प्रकाश ने उम्मीद जताई कि शुल्क के मसले को जल्द ही निपटा लिया जाएगा और धंध फिर पटरी पर आ जाएगा। मगर वैकल्पिक बाजार तलाशने की बात उन्हें ज्यादा उम्मीद नहीं देती। उनका कहना है कि खाड़ी देश, अफ्रीका या दूसरे इलाकों में बांग्लादेश, वियतनाम, चीन या दूसरे देशों का कच्चा माल पहले ही छाया हुआ है। नए सिरे से बाजार बनाना भी एक दिन का काम नहीं है।