Photo: Shutterstock
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के भारी-भरकम शुल्क ने निर्यात के दम पर चलने वाले कई उद्योगों को तबाह किया है मगर सबसे ज्यादा कहर उत्तर प्रदेश के कालीन उद्योग पर बरपा है। प्रदेश की ‘कालीन बेल्ट’ कहलाने वाले भदोही-मिर्जापुर में महीने भर से कई कालीन कारखानों पर ताले लटके हैं और कुछ में नाम भर का काम चल रहा है।
भदोही के हाथ से बुने कालीन की मांग अमेरिकी बाजार में इतनी ज्यादा थी कि सैकड़ों कारोबारी केवल वहीं के ऑर्डरों से तगड़ी कमाई कर रहे थे। लेकिन ‘ट्रंप टैरिफ’ की वजह से भदोही-मिर्जापुर के कालीन कारोबारियों के करीब 2,500 करोड़ रुपये के अमेरिकी ऑर्डर फंस गए हैं और नाउम्मीद कारखाना मालिक मजदूरों की छुट्टी कर रहे हैं। इससे कालीन के धंधे से जुड़े करीब 7 लाख परिवारों की रोजी-रोटी जोखिम में पड़ गई है।
भारत से हर साल हाथ से बुने करीब 17,000 करोड़ रुपये के कालीन अमेरिका और दूसरे देशों को जाते हैं। इनमें 10,500 करोड़ रुपये के कालीन भदोही-मिर्जापुर से ही जाते हैं। इनमें भी 6,000 से 6,500 करोड़ रुपये का यानी 60 फीसदी माल अमेरिकी बाजार में ही जाता है। भदोही-मिर्जापुर के हाथ से बुने कालीन इतने कीमती होते हैं कि देश में उनका बाजार नहीं के बराबर है। जो कालीन बनते हैं उनका महज 2 फीसदी हिस्सा भारतीय बाजारों में आता है।
भदोही के पर्शियन अंदाज के हैंड-टफ्टेड और हैंड-नॉटेड कालीन लाखों रुपये में बिकते हैं, जिनके खरीदार सिर्फ विदेशी ही होते हैं। कालीन कारोबारी इश्तियाक बताते हैं कि भारत में बड़े होटलों से लेकर शॉपिंग मॉल और थिएटर में बिछे कालीन मशीन से बने होते हैं। इसलिए अमेरिकी बाजार में अच्छी कीमत देखकर कारोबारी वहीं के हिसाब से माल तैयार कराते हैं। अब नए बाजार तलाशना मुश्किल होगा और उसमें वक्त भी लगेगा।
हाथ से बुने कालीन का सीजन साल में केवल तीन महीने होता है। अमेरिकी बाजार से अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर में कालीन मंगाए जाते हैं, जिन्हें बनाने का काम मई-जून से शुरू हो जाता है। इस बार अप्रैल से ही ऊहापोह थी और उस समय आए ऑर्डर या तो रद्द हो रहे हैं या घाटा खाकर माल देने को कहा जा रहा है।
कारोबारी राजेश मिश्रा के मुताबिक हाथ से बुने कालीन पर पहले केवल 7 फीसदी शुल्क था, जो अप्रैल में 25 फीसदी कर दिया गया और अब 50 फीसदी हो गया है। इतने शुल्क पर पुराना ऑर्डर शायद ही कोई पूरा करेगा। कुछ कारोबारियों ने आयातकों से बात की तो वे 25-25 फीसदी शुल्क बांटने की बात कह रहे हैं। पहले से तैयार माल अभी भेजा जा रहा है और बाकी ऑर्डर रोक लिए गए हैं।
भदोही-मिर्जापुर के तमाम कारखानों के ऑर्डर रद्द होने के कारण तैयार कालीन गोदामों में पड़े हैं। करोड़ों रुपये खर्च कर इन्हें तैयार कराने वाले कारोबारियों को कई जगह से कर्ज भी लेना पड़ा है मगर खरीदार नहीं मिल रहे। कारोबारी सलमान अंसारी बताते हैं कि अमेरिकी टैरिफ के तूफान का फायदा दूसरे देश उठा रहे हैं और वहां के कारोबारी भी कम कीमत में माल मांग रहे हैं।
एक अनुमान के मुताबिक करीब 700 करोड़ रुपये का माल गोदामों में पड़ा है और इतनी कीमत का कच्चा माल बेकार हो चुका है। कालीन बनाने में ऊन, धागा, रंग, गांठ लगाने के लिए सिंथेटिक यार्न, डाई केमिकल जैसा कच्चा माल मार्च से ही जुटाना शुरू कर दिया जाता है। अब यह माल किसी काम का नहीं रहा और उसे खरीदने में लिया कर्ज चुकाना दूभर हो रहा है।
ट्रंप ने व्यापार समझौते पर बातचीत जारी रखने की बात कहकर कालीन निर्यातकों में उम्मीद जगा दी है मगर दूसरे देशों से होड़ में पिछड़ने का डर भी उन्हें है। भारत के अलावा इंडोनेशिया, वियतनाम, अजरबैजान, बांग्लादेश और तुर्किये में भी कालीन हाथ से बुने जाते हैं। इनमें तुर्किये और अजरबैजान सबसे आगे हैं। इधर बांग्लादेश में शुल्क कम है और मजदूर सस्ते में मिल जाते हैं। ऐसे में भदोही-मिर्जापुर के कारोबारियों को धंधा हाथ से छिटकने का डर सता रहा है। उनका कहना है बात होते-होते सीजन गुजर गया तो धंधा हाथ से चला जाएगा।
भदोही-मिर्जापुर और पड़ोसी जिलों के कालीन बुनकर दूसरे काम तलाशने लगे हैं। कई ई-रिक्शा चला रहे हैं और सब्जी या अंडे के ठेले लगा रहे हैं। बिहार से आने वाले मजदूर भी बड़ी तादाद में गांव लौट रहे हैं। कारोबारियों के पास मजदूरों को रोकने का कोई तरीका नहीं है क्योंकि दिहाड़ी कामगारों को रोजाना कमाना जरूरी है। मगर कोरोना महामारी के समय दूसरे कामों में लग गए मजदूर वापस नहीं आए थे, इसलिए कारोबारियों को इस बार हाल और भी बुरे होने का डर है।