प्रतीकात्मक तस्वीर
सरकार ने लगभग दस वर्ष पहले ‘स्मार्ट सिटी मिशन’ की शुरुआत की थी। इस मिशन का उद्देश्य शहरों में जीवन की गुणवत्ता में सुधार करना था और इसे अंजाम देने के लिए सरकार ने 100 शहरों की एक सूची बनाई थी। इस लक्ष्य की पूर्ति में देरी होने पर सरकार ने पिछले साल मिशन के लिए तय समयसीमा बढ़ाकर 31 मार्च, 2025 कर दी थी। लगभग दस वर्ष बाद अब इस अभियान की पड़ताल करने पर पता चलता है कि चुने गए 100 शहरों में केवल 18 में ही वे सभी परियोजनाएं पूरी हो पाई हैं जो शहरी नियोजन एवं जीवन स्तर सुधारने के लिए शुरू की गई थी।
हालांकि, अच्छी बात यह है कि मोटे तौर पर ज्यादातर परियोजनाएं मुकाम तक पहुंच गई हैं और केवल 7 फीसदी ही निर्माणाधीन चरण में हैं। जिन शहरों में सभी परियोजनाएं पूरी तरह लागू हुई हैं उनमें आगरा, वाराणसी, मदुरई, कोयंबत्तूर, उदयपुर, पुणे, सूरत और वडोदरा शामिल हैं। जो 7 फीसदी योजनाएं पूरी नहीं हो पाई हैं वे देश के 82 विभिन्न शहरों में हैं। इस अभियान का विश्लेषण राज्यवार आधार पर करें तो स्मार्ट सिटी में पूरी तरह तब्दील हुए 18 शहरों में आधे तो तमिलनाडु (5) और उत्तर प्रदेश (4) में ही हैं। देश के शहरी क्षेत्रों में यातायात, जल जमाव, प्रदूषण एवं सेवाओं की आपूर्ति में व्यवधान आदि समस्याएं दूर करने के लिए सरकार ने 25 जून, 2015 को ‘स्मार्ट सिटी मिशन’ की शुरुआत की थी।
इस मामले में तेलंगाना का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है। राज्य में इस मिशन के लिए चुने गए दो शहरों ग्रेटर वारंगल और करीमनगर में 169 परियोजनाएं स्वीकृत हुईं थी जिनमें केवल 108 ही पूरी हो पाईं। इस साल 4 मार्च तक राज्य में स्वीकृत परियोजनाओं में से 36 फीसदी अधूरी थीं। ग्रेटर वारंगल में लगभग 40 फीसदी और करीमनगर में 28 फीसदी परियोजनाओं पर अभी काम जारी है। इसका नतीजा यह हुआ है कि तेलंगाना में स्मार्ट शहरों के लिए मंजूरी राशि का केवल 22.93 फीसदी हिस्सा ही खर्च हो पाया है।
देश के कई पूर्वोत्तर राज्य तो समय सीमा से काफी पीछे चल रहे हैं। मणिपुर की राजधानी इम्फाल के लिए 27 परियोजनाएं मंजूरी हुई थीं जिनमें 19 ही पूरी हो पाई हैं। इसके अलावा इन परियोजनाओं के लिए आवंटित रकम में 51.85 फीसदी हिस्सा फिलहाल खर्च हो रहा है। इसी तरह, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश में कुल आवंटित राशि में क्रमशः 45.28 फीसदी और 40.41 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल उन परियोजनाओं के लिए हो रहा है जो अभी पूरी नहीं हुई है।
देश के अन्य राज्यों जैसे बिहार, आंध्र प्रदेश और हरियाणा में भी परियोजनाएं पूरी होने एवं उन पर रकम खर्च होने की रफ्तार संतोषजनक नहीं रही है। चंडीगढ़, दिल्ली और लक्षद्वीप को छोड़कर अन्य केंद्र शासित प्रदेशों का प्रदर्शन भी इस मामले में कमजोर रहा है। पोर्ट ब्लेयर में 18 परियोजनाएं मंजूर हुई थीं जिनमें केवल 7 ही पूरी हुई हैं जबकि मौजूदा परियोजनाओं पर 90 फीसदी से अधिक रकम अभी खर्च हो रही है।
केंद्र सरकार ने पिछले पांच वर्षों के दौरान वित्तीय सहयोग के रूप में 48,000 करोड़ रुपये दिए हैं और इतनी ही रकम का बंदोबस्त संबंधित राज्यों एवं शहरी स्थानीय निकायों से होना तय हुआ था। बाकी रकम निजी क्षेत्रों के साथ साझेदारी, बाजार से उधारी, सरकारी संसाधनों, निगम (म्युनिसिपल) बॉन्ड और अन्य स्रोतों से जुटाए जाने की योजना है।
आवास एवं शहरी मामलों के राज्य मंत्री तोखन साहू ने हाल में राज्य सभा को बताया कि भारत में 8,063 स्मार्ट सिटी परियोजनाओं में 559 पर अब भी काम चल रहा है। उन्होंने यह भी कहा कि इन परियोजनाओं के लिए आवंटित 1.65 लाख करोड़ रुपये में से 14,239 करोड़ रुपये निर्माणाधीन परियोजनाओं पर खर्च हो रहे हैं। डेलॉयट में पार्टनर कौशल कुमार सिंह ने कहा कि स्मार्ट सिटी परियोजनाओं पर खर्च हुए 1.5 लाख करोड़ रुपये में से लगभग 60,000 करोड़ रुपये नगर निकायों द्वारा सार्वजनिक-निजी भागीदारी, बॉन्ड और सरकार समर्थित उधारी से जुटाए गए हैं। उन्होंने कहा, ‘यह एक बड़ी उपलब्धि है। लगभग 550 परियोजनाएं अगले तीन से चार महीनों में पूरी हो जाने की उम्मीद है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि बहुत अधिक देरी हुई है। इन परियोजनाओं से आम लोगों को काफी फायदा हुआ है।‘
मगर वाणिज्यिक रियल एस्टेट सलाहकार कंपनी सीबीआरई के चेयरमैन एवं मुख्य कार्याधिकारी (सीईओ-भारत) अंशुमन मैगजीन का मानना है कि शहरों में यातायात से जुड़ी दिक्कतों, खराब निकासी तंत्र और बाढ़ आदि से निपटने में स्मार्ट सिटी परियोजनाओं का योगदान मिला-जुला रहा है। उन्होंने कहा, ‘इन मिशन का मकसद तो काबिल-ए-तारीफ है जिसमें तकनीक के इस्तेमाल से शहरी जीवन स्तर सुधारने का लक्ष्य रखा गया है। मगर जमीन पर संभावित लाभों के साथ ही क्रियान्वयन से जुड़ी चुनौतियां भी साफ दिखाई दे रही हैं।’
मैगजीन ने कहा कि विभिन्न कारणों से अलग-अलग शहरों में परियोजना पूरी होने की रफ्तार एक समान नहीं है। उन्होंने कहा कि केवल तकनीक से एक छोटी अवधि में ढांचागत क्षेत्र से जुड़ी विकराल समस्याएं दूर नहीं हो सकती हैं।
मोदी सरकार ने लोगों की जीवन की गुणवत्ता में सुधार, निवेश आकर्षित करने और एक टिकाऊ शहरी विकास के लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए स्मार्ट सिटी मिशन की शुरुआत की थी। मूल रूप में पांच साल की अवधि के लिए यह परियोजना शुरू हुई थी मगर शहरों को परियोजनाएं पूरी करने का अतिरिक्त समय देने के लिए इसकी अवधि तीन बार बढ़ाई जा चुकी है। साल 2021 में आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय ने स्मार्ट सिटी मिशन की समयसीमा बढ़ाकर जून 2023 कर दी और फिर यह बढ़ाकर 30 जून 2024 कर दी गई। बाद में यह अवधि बढ़ाकर 31 मार्च 2025 कर दी गई।
अनुमान है कि शहरीकरण की रफ्तार तेज होने से भारत के शहरी क्षेत्र देश की अर्थव्यवस्था में 2030 तक 75 फीसदी तक योगदान दे सकते हैं। भौतिक, संस्थागत एवं सामाजिक-आर्थिक ढांचागत विकास की जरूरत महसूस करते हुए सरकार ने स्मार्ट सिटी मिशन की शुरुआत की थी। हालांकि, ‘स्मार्ट’ सिटी के लिए कोई स्वीकृत मानक परिभाषित नहीं किया गया।
इस मिशन के अंतर्गत दो तरीकों से शहर विकसित करने की योजना तैयार हुई। उनमें पहला ‘क्षेत्र-आधारित विकास’ था जिसमें मिशन के अंतर्गत चुने गए प्रत्येक शहर में मौजूदा संरचनाओं में सुधार, पुनर्विकास एवं नए सिरे से विकास के लिए खास क्षेत्र चिह्नित किए गए। दूसरा तरीका ‘अखिल-शहर समाधान’ (पैन-सिटी विकास) था जिसमें मौजूदा शहरी ढांचे में तकनीक आधारित समाधान लागू किए गए। देश में शुरू में 100 शहरों का चयन जनवरी 2016 और जून 2018 के बीच प्रतिस्पर्द्धी चरणों के माध्यम से हुआ। शहरी स्तर पर मिशन के क्रियान्वयन के लिए एक विशेष उद्देश्य इकाई (एसपीवी) का गठन किया गया।
केंद्र ने मिशन के लिए 48,000 करोड़ रुपये आवंटित किए जिनमें 47,538 करोड़ रुपये 4 मार्च 2025 तक जारी हो चुके थे। अब तक 45,772 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं यानी 3.71 फीसदी रकम ही शेष रह गई है जो खर्च नहीं हो पाई है। दिलचस्प है कि लक्षद्वीप की राजधानी कवरत्ती में सभी परियोजनाएं पूरी हो गई हैं मगर केंद्र द्वारा आवंटित 183 करोड़ रुपये में केवल 45 करोड़ रुपये ही खर्च हुए यानी 75.41 करोड़ रुपये बच गए हैं। इसी तरह, ईटानगर और आइजोल में आवंटित रकम में से क्रमशः 25.20 फीसदी और 21.63 फीसदी हिस्सा खर्च नहीं हो पाया है। मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, हरियाणा और तेलंगाना ही केवल ऐसे राज्य हैं जो आवंटित राशि का 10 फीसदी से अधिक हिस्सा खर्च नहीं कर पाए हैं। लक्षद्वीप को छोड़कर सभी केंद्र शासित प्रदेशों में रकम के इस्तेमाल की दर कम रही है।
सभी 100 स्मार्ट शहरों में एकीकृत कमान एवं नियंत्रण केंद्र स्थापित किए गए हैं जिन पर 11,775 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। मगर आर्थिक ढांचे और सुगम एवं सुरक्षित यातायात (स्मार्ट मोबिलिटी प्रोजेक्ट्स) का 10 फीसदी हिस्सा अब भी पूरा नहीं हो पाया है। जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य (वॉश) परियोजनाओं पर सबसे अधिक 46,730 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं और परियोजना क्रियान्वयन दर 93.14 फीसदी रही है। स्मार्ट ऊर्जा परियोजनाओं एवं पर्यावरण से जुड़ी पहल (खासकर पीपीपी के जरिये लागू हुईं) के पूरी होने की दर 95 फीसदी से अधिक रही है। हालांकि, जीवंत एवं गतिशील सार्वजनिक स्थान तैयार करने से जुड़ी
परियोजनाएं समय सीमा से काफी पीछे चल रही हैं। दस वर्ष बीतने के बाद मिशन में चुने गए कुछ शहर पहले से अधिक स्मार्ट हो गए हैं मगर वे अब भी अपने मकसद से दूर ही हैं।